लॉ कमिशन की 1987 में आई रिपोर्ट में न्यायपालिका में जजों की जरूरतों का ब्लूप्रिंट पेश किया गया था. उस वक्त न्यायपालिका में 7,675 जज थे यानि प्रति 10 लाख लोगों पर 10.5 जज थे. उसके बाद से जजों और आबादी का अनुपात (स्वीकृत संख्या) बढ़कर 17 जज प्रति दस लाख लोग हो गया लेकिन अब जजों के खाली पदों की संख्या 5000 से ज्यादा हो गई है.
कई पद पड़े हैं खाली
सब-ऑर्डिनेट जूडिशरी में मौजूदा स्वीकृत पदों की संख्या 20,214 हैं जबकि 24 हाई कोर्ट में जजों के लिए 1,056 पद हैं और करीब 3.10 करोड़ केस पेंडिंग हैं. सब-ऑर्डिनेट जूडिशरी में 4,600 स्वीकृत पद खाली हैं, जो कुल स्वीकृत पदों का 23 प्रतिशत है. हाईकोर्ट में करीब 44 फीसदी यानि 462 जजों के पद खाली पड़े हैं. सुप्रीम कोर्ट में भी 31 में से 6 स्वीकृत पद खाली हैं.
कोलेजियम के चलते अटकी नियुक्ति
जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम सिस्टम और सरकार के बीच चले गतिरोढ की वजह से इन खाली पड़े पदों को भरने का काम अटक गया.
जजों की संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव
जूडिशरी में खाली पदों की संख्या को देखते हुए लॉ पैनल ने अपनी 120 रिपोर्ट में पदों की संख्या को बढ़ाकर प्रति दस लाख लोगों के लिए 50 जज करने का प्रस्ताव रखा था. भारत में जज-आबादी का ये अनुपात अमेरिका से कम है, जहां प्रति दस लाख लोगों पर 107 जज हैं. यूके में ये अनुपात 51, कनाडा में 75 जबकि ऑस्ट्रेलिया में 42 है.
कमिशन ने 2014 में सरकार को अपनी 245वीं रिपोर्ट पेश की, जिसमें प्रति दस लाख लोगों पर जजों की संख्या 50 करने का समर्थन किया गया था. 20वें लॉ कमिशन की स्टडी में पाया गया कि पेंडिंग पड़े केसों के निपटारे के लिए विभिन्न हाई कोर्ट में 56 अतिरिक्त जजों की जरूरत है. यह अनुमान 895 पर विभिन्न हाईकोर्ट की स्वीकृत संख्या के आधार पर किया गया था.