दो दिनों तक चलने वाला 13वां इंडिया टुडे कॉन्क्लेव शुक्रवार को नई दिल्ली में शुरू हो गया. कॉन्क्लेव की शुरुआत इंडिया टुडे ग्रुप के चेयरमैन और एडिटर इन चीफ अरुण पुरी के भाषण से हुई. उन्होंने मौजूदा राजनीतिक माहौल, आर्थिक चुनौतियों और उसमें कॉन्क्लेव की अहमियत और प्रासंगिकता पर बात की और कार्यक्रम में सबका स्वागत किया.
अरुण पुरी का भाषण
देवियों और सज्जनों,
सुप्रभात
मैं ऐसे समय में आपके सामने खड़ा हूं जब हवा बिजली की तरह बह रही है. 7 अप्रैल से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक चुनाव शुरू हो रहा है. साढ़े 81 करोड़ लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे. जिनमें 1.5 करोड़ पहली बार वोट देने वाले युवा होंगे.
1977 में इंदिरा गांधी के एमरजेंसी हटाने के बाद यह सबसे उत्साही चुनाव होने वाले हैं. क्या स्थिर सरकार बनेगी? क्या अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटेगी? क्या भ्रष्टाचारियों के भीतर कोई ईश्वर का डर पैदा कर पाएगा? सांप्रदायिकता बढ़ेगी या घटेगी? ऐसे ही बहुत सारे सवाल हमारे सामने है. लेकिन देश को 16 मई को नतीजे आने तक इंतजार करना होगा.
ऐसे उत्तेजक समय में, मैं 13वें इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में आपका स्वागत करता हूं. 12 साल पहले इंडिया टुडे की 12वीं सालगिरह पर हमने यह कॉन्क्लेव शुरू किया था. तब से इसने लोगों के बीच एक खास पहचान बनाई है. दुनिया के इस हिस्से में यह अपनी तरह का सबसे बड़ा सोच और विचार का कार्यक्रम बन चुका है.
इससे पहले भी कॉन्क्लेव में अलग-अलग क्षेत्रों के लोग हिस्सा लेते रहे हैं. इस बार भी अगले दो दिन तक हम सभी वक्ताओं की बात पूरी दिलचस्पी से सुनना चाहेंगे. मैं उन सबका स्वागत करता हूं. हमें पता है कि यह आम चुनाव का वक्त है, लिहाजा हमने अपना थीम रखा है, 'जीत'. तो इस बार कॉन्क्लेव का फोकस भविष्य की ओर देखने पर होगा.
पिछले साल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हमारे गाला नाइट स्पीकर थे. अब वह बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. आगामी आम चुनाव में उनका पलड़ा भारी बताया जा रहा है. पिछले चुनावों में कांग्रेस पार्टी हावी रही है. इस बार चुनाव मोदी विरोधी और मोदी समर्थकों के बीच बंट गया है. बीजेपी का सवाल कहीं है ही नहीं. बल्कि मोदी अपनी पार्टी पर भी हावी हो गए हैं. यहां तक कि क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका को भी 'मोदी समर्थक' और 'मोदी विरोधी' में वर्गीकृत करके देखा जा रहा है.
लंबे समय बाद चुनाव से पहले एक विकल्प साफ नजर आ रहा है. यह मार्च 1977 के जैसा है, जब इंदिरा गांधी केंद्रीय शख्सियत थीं और उतनी ही विवादास्पद भी. इसी तथ्य ने चुनाव को दिलचस्प बना दिया था.
मौजूदा भारत के बारे में मुझे लगता है कि यह एक भूखा देख है. भूखा मतलब, भोजन का भूखा नहीं. अगर हम ठीक से वितरण कर पाएं तो यहां इतना भोजन है कि कोई भूखा नहीं सोएगा. हम भूखे हैं तो पूंजी के, तरक्की के, ऊर्जा, शिक्षा और अवसरों. और इन सबसे बढ़कर एक साफ मजबूत और ईमानदार नेतृत्व के भूखे हैं हम.
हम बेड़ियों से आजाद होने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं. हमें ऐसा नेता चाहिए जो सबको साथ ला सके और देश की राजनीतिक क्षमताओं को आकार दे सके. देश की समस्याओं का समाधान सब जानते हैं. हमें बस बिना भेदभाव के उन्हें सुलझाने पर ध्यान देना चाहिए.
आप जानते हैं कि हम इस मुहाने पर इसलिए खड़े हैं क्योंकि पिछले कुछ साल सरकार, व्यापार और लोकतंत्र के लिए बुरे सपने की तरह रहे हैं. 25 साल में पहली बार दो साल लगातार अर्थव्यवस्था 5 फीसदी की दर पर रही. उत्पादकता के लिहाज से यह सबसे खराब लोकसभा रही. इसने कुल समय का 63 फीसदी ही इस्तेमाल किया और 74 बिल पेंडिंग छोड़ दिए.
इसके अलावा, टेलीकॉम, कॉमनवेल्थ और कोयला से लेकर रक्षा सामग्री तक, यह सरकार घोटालों में घिरी रहने के लिए भी जानी जाएगी. क्रोनी कैपिटलिज्म में फंसा भारत करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में 94वें नंबर पर है. इस मामले में हम ब्राजील, चीन, बुरकिना फासो और मलावी से भी पीछे हैं. मुझे यह कहते हुए दुख होता है कि करप्शन हमारी जिंदगी के लगभग हर पहलू में प्रवेश कर चुका है और हमारे प्यारे खेल क्रिकेट को भी चपेट में ले चुका है.
इसने करप्शन को चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया. मैं इससे खुश हूं. क्योंकि जो भी सत्ता में आएगा, इस 'कैंसर' से निबटने के लिए उसे गंभीर कोशिशें करनी ही होंगी.
कुछ ही घंटों में सीबीआई के डायरेक्टर रंजीत सिन्हा यहां मौजूद होंगे, जिन्होंने कई बड़े घोटालों की जांच की. ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट सीबीआई को 'पिंजरे का तोता' कह चुका हो, यह काम निश्चित रूप से मुश्किल होगा. हम उनसे अंदर की बात जानेंगे कि पिंजरे के भीतर की जिंदगी कैसी होती है. लोकपाल बिल की बात को भी सीबीआई की आजादी के सवाल से ही नया आयाम मिला.
दुर्भाग्य से, बिल्डिंग या इंफ्रास्ट्रक्चर ठीक करने पर बहुत कम फोकस है. घाटे में चल रही पब्लिक सेक्टर की कंपनियां सरकारी खजाने को सोखे जा रही हैं. 50 लाख लोगों को रोजगार देने वाली हमारी 'आलसी' नौकरशाही को और प्रभावी बनाने का कोई तरीका हमारे पास नहीं है. कुछ ही देर में पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी इस मुद्दे पर बात करेंगे.
एक और समस्या जो अर्थव्यवस्था को नीचे ला रही है, वह है चुनाव के मद्देनजर घोषित की जा रही लोक-लुभावनवादी योजनाएं. हर साल हजारों करोड़ ऐसी योजनाओं में खर्च हो जाते हैं और जरूरतमंदों तक फिर भी सुविधाएं नहीं पहुंचतीं. भारत जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, उसे तय करना होगा कि वह क्या चाहता है, उच्च वृद्धि या उच्च दान. इस पर बात करने के लिए दो बड़े अर्थशास्त्री हमारे साथ होंगे.
करप्शन की तानाशाही में व्यापार पर हर तरफ से नेता और नौकरशाह बंदिशें लगा रहे हैं. प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन पर हम लाइसेंस राज की तरफ लौट रहे हैं. अगले दशक में भारत अपना प्रभुत्व स्थापित कर पाए इसके लिए हमें उच्च वृद्धि दर और रोजगार के मौकों की जरूरत है. केंद्रीय वाणिज्य मंत्री इस पर बात करने के लिए हमारे साथ होंगे.
मैं खुश हूं कि चुनाव प्रचार के शबाब पर होने के बावजूद कॉन्क्लेव में देश भर के कुछ शीर्ष नेता भी शिरकत कर रहे हैं. हम मध्य प्रदेश, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्रियों से मुखातिब होंगे.
भारतीय राजनीति बड़े बदलाव के दौर में हैं. पुराने वोटबैंक काटे-छांटे जा रहे हैं. हमारा बढ़ता हुआ मध्य वर्ग एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर रहा है, जो जाति की राजनीति से ऊपर है. भारत के लोग अपने नेताओं से और भी बहुत कुछ चाहते हैं. धार्मिक गोलबंदी और जातीय समीकरण से इतर वे नौकरी, अवसरों, सड़क, बिजली, पानी और घर की चिंता करते हैं. हाल ही में पांच विधानसभा चुनावों ने यह साबित किया. विकास के एजेंडे वाले मुख्यमंत्रियों को मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एक और मौका दिया गया, वहीं बदलाव का वादा करने वाले नेताओं को राजस्थान और दिल्ली में चुना गया.
हम भारतीय राजनीति के इस नए ट्रेंड पर अपने मेहमानों से चर्चा करेंगे. अगले दो दिनों में आपके सामने केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और देश भर की पार्टियों से वरिष्ठ नेता होंगे. हमारा पहला सेशन उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ है.
हमारे साथ आज वह भी होंगे, जिनकी वजह से नेता खुद को नए सिरे से बदलने की कोशिश कर रहे हैं. वह हैं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. उन्होंने अपनी भ्रष्टाचार और वोट बैंक विरोधी राजनीति और चुनावों में पारदर्शिता के बूते देश भर के लोगों का ध्यान खींचा है. उनकी सत्ता के उथल-पुथल भरे 49 दिन कितने सफल रहे, वह बहस का विषय है. लेकिन मौजूदा दौर की राजनीति पर उनका गहरा असर पड़ा है. पार्टियों के भीतर उम्मीदवारों और चुनाव फंड की जबरदस्त छंटनी होने लगी है.
लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हीरो के बिना 'जीत' नहीं पाई जाती. भारत के सुपरस्टार और बॉलीवुड के हिट मशीन सलमान खान हमारे गाला डिनर स्पीकर होंगे. वह एक जबरदस्त एंटरटेनर और यूनिवर्सल भाई हैं.
लीजेंड्री एक्टर अमिताभ बच्चन भी हमारे साथ होंगे. इंडिया टुडे ग्रुप से थोड़ा ही पहले 1970 में एंग्री यंग मैन की छवि के साथ उन्होंने सफर शुरू किया. आज 71 साल की उम्र में भी वह सबसे पसंदीदा और प्रासंगिक अभिनेता बने हुए हैं.
मुझे यह बताते हुए बेहद खुशी है कि इस कार्यक्रम में फ्रांस हमारे सहयोगी देश के रूप में रहेगा. जब फ्रांस हमारे साथ जुड़े हैं तो खाना भी इससे अछूता नहीं रहेगा. हमारे साथ मास्टर पेस्ट्री शेफ पीयरे हर्म्स होंगे जो 'पेस्ट्री के पिकासो' के रूप में मशहूर हैं. साथ ही हमारे साथ फ्रांस के टॉप रॉकेट वैज्ञानिक होंगे. साथ में हमारे मशहूर परमाणु विशेषज्ञ भी होंगे. दोनों ही बड़े प्रासंगिक विषय हैं.
अगले दो दिनों में 48 वक्ता राजनीति और रोबोटिक्स से लेकर शौचालय बनाम देवालय तक के मुद्दों पर बोलेंगे. मुझे यकीन है कि वे आपको जानकारी देंगे, मनोरंजन करेंगे और इन सबसे बढ़कर आपके सामने चुनौतियां रखेंगे. कॉन्क्लेव का आनंद लीजिए.
धन्यवाद!
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