हिलेरी क्लिंटन ने इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में वर्तमान अमेरिकी सरकार की आलोचना की और उन्होंने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पेरिस समझौते से हटने के फैसले को अमेरिका के लिए शर्म करार दिया.
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2018 के दूसरे और अंतिम दिन के सत्र में दि ग्रेट चर्न-व्हाट हैपेन्स नाउ विषय पर अमेरिका की पूर्व सेक्रेटरी ऑफ स्टेट हिलेरी क्लिंटन ने शिरकत की. अपने संबोधन में हिलेरी ने कहा कि भारत उनके और उनके परिवार के दिल में खास जगह रखता है.
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कॉन्क्लेव में अपने संबोधन में क्लिंटन ने कहा कि यह शर्मनाक है कि अमेरिका दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जो पेरिस समझौता का हिस्सा नहीं है. उन्होंने आगे कहा, 'क्या अमेरिका को डोनाल्ड ट्रंप चाहिए? मैं कहना चाहूंगी कि नहीं, वह हमारे लिए डिजर्व नहीं करते.'
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले साल जून में ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकलने का ऐलान किया था और उन्होंने अपने इस फैसले के लिए भारत और चीन को जिम्मेदार ठहराया था. ट्रंप ने समझौते से हटते हुए कहा था कि यह समझौता उनके लिए अनुचित था. इसमें अमेरिका को उन देशों के लिए कीमत चुकानी पड़ती जिन्हें इससे सबसे ज्यादा फायदा हो रहा था.
क्या है पेरिस समझौता
पूरी दुनिया में अमेरिका ही सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करता है उसके बाद चीन का नंबर आता है.
समझौते के तहत प्रावधान है कि वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना और यह कोशिश बनाए रखना कि वो 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने पाए. मानवीय कार्यों की वजह से होने वाले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को इस स्तर पर लाना कि पेड़, मिट्टी और समुद्र उसे प्राकृतिक रूप से सोखते रहें.
समझौते के तहत हर पांच साल में गैस उत्सर्जन में कटौती में प्रत्येक देश की भूमिका की प्रगति की समीक्षा करना भी उद्देश्य है. साथ ही इसमें विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्तीय सहायता के लिए 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष देना और भविष्य में इसे बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने की बात भी कही गई है.
हालांकि यह समझौता विकसित और विकासशील देशों पर एक सामान नहीं लागू किया जा सकता था. इस कारण से समझौते में विकासशील देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए आर्थिक सहायता और कई तरह की छूटों का प्रावधान किया गया.
ट्रंप का कहना था कि भारत और चीन इस पर कुछ खास नहीं कर रहे थे. भारत को लगातार इस मुद्दे पर विदेशी मदद मिल रही है. 2015 में भारत को 3.1 बिलियन डॉलर की मदद मिली थी, जिसमें से कुल 100 मिलियन डॉलर की मदद तो सिर्फ अमेरिका ने ही की थी.