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इंदिरा को नहीं थी इमरजेंसी के प्रावधान की जानकारी, चुकानी पड़ी कीमत: राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 1975 की इमरजेंसी को 'टालने योग्य घटना' और 'दुस्साहसिक कदम' बताया है. दिग्गज कांग्रेसी रहे प्रणब ने कहा कि उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी.

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Pranab Mukherjee
Pranab Mukherjee

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 1975 की इमरजेंसी को 'टालने योग्य घटना' और 'दुस्साहसिक कदम' बताया है. दिग्गज कांग्रेसी रहे प्रणब ने कहा कि उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. राष्ट्रपति ने माना कि उस दौरान मौलिक अधिकारों और राजनीतिक गतिविधि के निलंबन, बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों और प्रेस सेंसरशिप का काफी बुरा असर पड़ा था.

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याद रहे कि इमरजेंसी के दौरान प्रणब इंदिरा गांधी कैबिनेट में जूनियर मंत्री थे. हालांकि अब भी उन्होंने जयप्रकाश नारायण की अगुवाई वाले तत्कालीन विपक्ष को भी नहीं बख्शा. उन्होंने प्रणब के आंदोलन को ‘दिशाहीन’ बताया है. मुखर्जी ने अपनी किताब ‘द ड्रैमेटिक डिकेड: द इंदिरा गांधी इयर्स’ में भारत के आजादी के बाद के इतिहास के सबसे बड़े उथल-पुथल भरे काल के बारे में अपने विचार लिखे हैं. पुस्तक हाल ही में रिलीज हुई है.

'इंदिरा को नहीं थी प्रावधानों की जानकारी'
उन्होंने खुलासा किया है कि 1975 में जो आपातकाल लगाया गया था, उसके प्रावधानों के बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जानकारी नहीं थी और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के सुझाव पर उन्होंने यह फैसला किया था. मुखर्जी के मुताबिक लेकिन यह विडंबना थी कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री राय ने शाह आयोग के सामने आपातकाल लगाने में अपनी भूमिका से पलटी मार ली. आपातकाल के दौरान की ज्यादतियों की इस आयोग ने जांच की थी.

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गुरुवार को अपना 79वां जन्मदिन मना रहे मुखर्जी ने बताया, ‘द ड्रैमेटिक डिकेड’ तीन खंडों में से पहला है, यह किताब 1969 से लेकर 1980 के कालखंड पर है. मैं दूसरे खंड में 1980 और 1998 के बीच की अवधि और तीसरे खंड में 1998 और 2012, जब सक्रिय राजनीति के मेरे करियर का समापन हो गया, के बीच की अवधि पर लिखना चाहता हूं.’ उन्होंने कहा, ‘पुस्तक में इस पड़ाव पर, यह कहना पर्याप्त होगा कि उन दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहे हममें से कई इमरजेंसी के गहरे और दूरगामी असर को नहीं समझ पाए.’

'टाली जा सकती थी इमरजेंसी'
राष्ट्रपति की ओर से लिखी गई 321 पन्नों की इस किताब में बांग्लादेश की मुक्ति, जेपी आंदोलन, 1977 के चुनाव में हार, कांग्रेस में विभाजन, 1980 में सत्ता में वापसी और उसके बाद के घटनाक्रमों पर प्रकाश डाला गया है. उन्होंने कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि आपातकाल से जनजीवन में अनुशासन आया, अर्थव्यस्था तेजी से बढ़ी, मुद्रास्फीति नियंत्रण में आई, पहली बार व्यापार घाटे की स्थिति बदलने लगी, विकास कार्यों पर खर्च बढ़ने लगा, कर चोरी और तस्करी पर अंकुश लगाया गया लेकिन ‘यह संभवत: टालने योग्य कदम था.’ मुखर्जी ने लिखा है, ‘मौलिक अधिकारों और राजनीतिक गतिविधि (श्रमिक संगठन गतिविधि समेत) का निलंबन, राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां, प्रेस सेसरशिप और बिना चुनाव कराए विधायिकाओं का कार्यकाल बढ़ाना आपातकाल की कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने लोगों के हितों पर विपरीत असर डाला. कांग्रेस और इंदिरा गांधी को इस दुस्साहसिक कदम की भारी कीमत चुकानी पड़ी.’

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'बंगाल के CM के सुझाव पर ही लगी थी इमरजेंसी'
साल 1975 में 25 जून को आधी रात से महज कुछ मिनट पहले इमरजेंसी के ऐलान के नाटकीय क्षणों को याद करते हुए उन्होंने लिखा कि यह पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री राय का ही सुझाव था और इंदिरा गांधी ने उस पर अमल किया. उन्होंने लिखा है, ‘इंदिरा गांधी ने मुझसे बाद में कहा कि अंदरूनी गड़बड़ी के आधार पर इमरजेंसी के ऐलान की इजाजत देने वाले संवैधानिक प्रावधानों से तो वह वाकिफ भी नहीं थीं खासकर ऐसी स्थिति में जब 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के चलते पहले से ही आपातकाल लगाया जा चुका था.’ मुखर्जी ने कहा कि कांग्रेस कार्यसमिति और केंद्रीय संसदीय बोर्ड के तत्कालीन सदस्य राय इंदिरा गांधी के ‘सर्वाधिक प्रभावशाली सलाहकारों’ में थे और अलग-अलग मुद्दों पर उनकी राय ली जाती थी.

(इनपुट: भाषा)

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