'जय मधेश!' भारत और नेपाल के बीच भिट्टा मोड़-जनकपुर की खुली सरहद पर घुप्प अंधेरी रात में यह नारा मोबाइल पर अभिवादन करता है. आप बीरगंज में और पश्चिम की ओर चले जाएं तो यही नारा कुछ नौजवानों की जंग में तब्दील होता दिखता है जो नेपाल की सशस्त्र पुलिस पर पत्थर बरसा रहे हैं या बिहार के रक्सौल को यहां से जोड़ने वाले मैत्री सेतु पर बंधी मूर्तियों के साथ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
नेपाल के 1,800 किलोमीटर लंबे तराई क्षेत्र में गूंज रहा 'जय मधेश' का नारा देश के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के लिए एक चेतावनी है कि अधूरी मांगों और जातीय भेदभाव के जहरीले मिश्रण से ऊपजी यह स्थिति उनके लिए खतरा बन सकती है.
दूसरी ओर, नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने रविवार को एक बार फिर भारत को देश में आए संकट के लिए जिम्मेदार माना है. सीमा पर दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट बढ़ती जा रही है, वहीं इस पूरी कवायद में सत्ता से आगे स्थानीय लोगों के मन पर भी नकारात्मक छाप पड़ी है. लेकिन भारत के लिए एक बड़ी समस्या यह भी है कि चीन की दिलचस्पी बीते कुछ समय से नेपाल में बढ़ी है.
नेपाल में टीवी पर अपने पहले संबोधन में ओली ने कहा, 'नाकाबंदी का दंश जिन लोगों को सबसे अधिक भोगना पड़ रहा है, उनमें गर्भवती महिलाएं, स्कूल जाने वाले बच्चे और वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें तत्काल चिकित्सीय सहायता की जरूरत है.' उन्होंने चीन की प्रशंसा करते हुए कहा कि पड़ोसी मुल्क ने तेल से लेकर हर जरूरी चीज में उसकी सहायता की है और वह भविष्य में चीन के साथ व्यापारिक संबंध बढ़ाएंगे.
पिछले 2 नवंबर को तड़के आक्रोश और असंतोष के इस उभार ने नया रूप ले लिया जब कुछ पुलिसवाले मैत्री सेतु पर सो रहे मधेशियों पर टूट पड़े. मधेशी यानी भारतीय मूल के वे लोग जो कुछ सौ साल पहले भारत और नेपाल के बीच की जमीन पर बस गए थे. इन पुलिसवालों ने मधेशियों को डंडों से पीटा और उनके तंबू जला दिए. वे जब अपने मोबाइल और माल-असबाब छोड़कर जान बचाने के लिए यहां-वहां भागने लगे, तब तराई के लोगों के सामने यह बात खुली कि 80 दिन से चल रहे उनके प्रदर्शन को अब नेपाल सरकार कुचल कर ही रहेगी.
...और आवाज शोर में बदल गई
यह तो महज शुरुआत थी. उसी दोपहर गुस्साए नेपाली पुलिसवालों ने मैत्री सेतु से पहले स्थित भव्य शंकराचार्य गेट से गुजर रहे एक युवक को पकड़ लिया. दरभंगा का आशीष राम बीरगंज में अपनी मां के परिवार से मिलने आया था. यहां मिथिलांचल और मधेश के लोगों के बीच शादियों का चलन आम है. उस दोपहर 19 साल का यह लड़का रक्सौल में अपने घर लौट रहा था.
घटनास्थल से कुछ फुट की दूरी पर संजय यादव अपना भारत का ट्रक लेकर पार आने का इंतजार कर रहे थे. यादव कहते हैं, 'यह लड़का प्रदर्शनकारी नहीं था. वह तो सेतु की तरफ पैदल आ रहा था कि नेपाली पुलिसवालों ने उसे पकड़ कर खींच लिया और सटाकर गोली मार दी.'
जल उठा शहर, दरकने लगी रिश्तों की दीवार
गोलीबारी की घटना के बाद बीरगंज में तनाव बढ़ा तो कुछ युवा अपने घरों से निकल आए और टायर जलाकर शहर के मुक्चय रास्ते बंद करने लगे. दोपहर में देर तक पत्थरबाजी होती रही. जल्द ही अनिश्चितकालीन कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई. शाम होने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ओली को फोन करके राम की मौत के मामले में जांच की मांग की. चौबीस घंटे के भीतर ओली ने भारत को चेतावनी जारी कर दी कि वह अपने काम से काम रखे. उन्होंने एक सभा में कहा, 'भारत नेपाल के आंतरिक मामलों में दखल दे रहा है और मधेशी दलों को उकसा रहा है.'
बीरगंज में भारत की वाणिज्य महादूत अंजू रंजन ने इंडिया टुडे को बताया, 'भारत, नेपाल की सभी आंतरिक समस्याओं का हल संवाद और परस्पर परामर्श के जरिए चाहता है. नेपाल खुद अपने संकट के लिए जिम्मेदार है इसलिए उसे भारत पर दोष मढऩा बंद कर देना चाहिए.' विडंबना यह है कि भारत ने नेपाल के आंतरिक मामलों में आखिरी बार 2006 में दखल दिया था, जब भारत समर्थित नेपाल की लोकतांत्रिक पार्टियों ने, जिसमें ओली की नेकपा-एमाले भी थी, राजशाही को उखाड़ फेंका था. उस वक्त ओली ने भारत की सराहना की थी.
भेदभाव के खिलाफ उठने लगी आवाजें
एक दशक भी नहीं बीता है कि भारत और नेपाल फिर उलझ गए हैं. नेपाल की सरकार के भीतर और बाहर काठमांडो का अभिजात्य तबका हाल में पारित संविधान का समर्थन कर रहा है जो मधेशियों के खिलाफ भेदभाव करता है. नेपाली संविधान के अनुसार चुनाव क्षेत्रों का जैसा परिसीमन किया गया है, वह तराई के साथ गंभीर भेदभाव करता है, क्योंकि यह परिसीमन आबादी के आधार पर नहीं बल्कि भौगोलिकता के आधार पर किया गया है.
इसे इस तरह से समझें कि अगर एक पहाड़ी क्षेत्र में 5,000 की आबादी एक चुनाव क्षेत्र बनाती है तो तराई में यही परिसीमन एक लाख की आबादी के लिए किया गया है. दूसरे, मधेशी यह भी कह रहे हैं कि नौकरशाही और पुलिस में 'पहाड़ की ऊंची जातियों' यानी ब्राह्मणों और क्षत्रियों का प्रतिनिधित्व ज्यादा है जबकि इन क्षेत्रों में मधेशियों को 1.2 फीसदी रोजगार ही प्राप्त हैं. तीसरी मांग तराई के प्रांतों के पुनर्गठन की है. मधेशी जनाधिकार फोरम के अध्यक्ष उपेंद्र यादव कहते हैं, 'पहाड़ ने तराई को अपना उपनिवेश बना रखा है. राजाओं ने जो किया था या उससे भी पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में जो हाल था, आज हालात उससे बेहतर नहीं हैं.'
मिथिलांचल और मधेश का रिश्ता
यादव 1816 की सुगौली संधि का हवाला देते हैं जिसके अनुसार नेपाल को ईस्ट इंडिया कंपनी ने विभाजित करके उससे कुछ तराई की उपजाऊ जमीन अलग कर दी. बाद में 1857 की पहली आजादी की लड़ाई को दबाने में गोरखाओं के योगदान स्वरूप 1860 में नेपाल को कुछ हिस्से वापस कर दिए गए. बाद में शासक बदलते रहे और उनके साथ जमीन का स्वामित्व भी बदलता रहा, लेकिन मिथिलांचल और मधेश के लोगों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता लगातार कायम रहा.
नए संविधान ने बदली परिभाषा
नेपाल के नए संविधान ने इस युगों पुरानी परंपरा में आमूलचूल बदलाव कर दिया है. इसमें कहा गया है कि मधेश में ब्याही जाने वाली भारतीय औरतों को विदेशी माना जाएगा. पहले यह व्यवस्था थी कि मधेश में ब्याही जाने वाली औरतें भारतीय नागरिकता को छोड़कर अपने पति की नागरिकता ले सकती थीं और नेपाल में रोजगार पा सकती थीं. मधेशी आंदोलन को वहां की जनता का समर्थन इसी पुरानी परंपरा के नष्ट हो जाने की आशंका पर आधारित है. जनकपुर रेड क्रॉस के अध्यक्ष नरेश प्रसाद सिंह कहते हैं कि मधेश के करीब 75 फीसदी लोगों की रिश्तेदारी उत्तर प्रदेश और बिहार में है. खुद नरेश प्रसाद की पत्नी सीतामढ़ी से हैं.
अर्थव्यवस्था पर गंभीर संकट
विरोध प्रदर्शनों के कारण रक्सौल-बीरगंज सीमा बंद हो गई है जिसके चलते अनिवार्य वस्तु जैसे तेल और ईंधन ले जाने वाले भारतीय ट्रक भारत की सीमा के भीतर लंबी कतारों में खड़े इंतजार कर रहे हैं. इस चक्कर में नेपाल की अर्थव्यवस्था पर गंभीर संकट है. जनकपुर चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष शिवशंकर शाह के मुताबिक, अप्रैल में आए भूकंप ने अर्थव्यवस्था को 60,000 करोड़ रु. का नुक्सान पहुंचाया था. मौजूदा प्रदर्शनों से नेपाल की रीढ़ टूट जाएगी.
कम से कम अभी तक काठमांडो ने ठान रखी है कि वह झुकेगा नहीं. गुस्से में ओली ने नेपाल को पेट्रोल की आपूर्ति के लिए ग्लोबल टेंडर निकालने का हुक्म दे दिया. वे बीरगंज की नाकाबंदी को भारत प्रायोजित मानते हैं और दूसरे देशों से तेल खरीदकर इसी को तोडऩा चाहते हैं. कई चीनी कंपनियों ने आवेदन किया, मगर पता यह चला कि उन्होंने जो कीमतें बताईं, वे भारतीय कंपनियों की कीमतों से दोगुनी से भी ज्यादा थीं. चीन ने 1,000 मीट्रिक टन पेट्रोल की सहायता जरूर दी है, मगर उसके कुछ दिनों से ज्यादा चलने की उम्मीद नहीं है.
भारत-नेपाल के बीच फिर आया चीन
भारतीय राजनयिकों ने 'चाइना कार्ड' खेलने की काठमांडो की गिरती-पड़ती कोशिशों पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया, लेकिन मधेशी आंदोलनकारी इतनी एहतियात बरतने को तैयार नहीं हैं. इसमें कोई शक नहीं कि काठमांडो अपना वही पुराना खेल खेल रहा है. वह मधेश के साथ भारत के पुराने रिश्ते के मुकाबले पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी चीन को खड़ा कर रहा है. लेकिन बीजिंग भी बखूबी जानता है कि वह नेपाल में ज्यादा हाथ-पैर नहीं फैला सकता और तराई में हिंदुस्तान की जगह तो बेशक नहीं ही ले सकता. नेपाल के साथ भारत के भौगोलिक, भावनात्मक, राजनैतिक और पारिवारिक रिश्तों को लेकर दिल्ली और बीजिंग के बीच एक अघोषित सहमति है. यानी बीजिंग के ऐसा कुछ भी करने की संभावना नहीं है, जिससे भारत और नेपाल के बीच बुनियादी रिश्ते पर आंच आए.
मधेशी फोरम के यादव ने तराई में आंदोलनकारियों को चीन के झंडों की होली जलाने से रोकने की कोशिश की. उन्होंने उन्हें समझाया कि यह बहुत फिसलन भरी ढलान है. यादव ने कहा, 'भारत की तरफ भक्ति दिखाने का यह तरीका नहीं है. तराई में चीन का न कोई हित है, न दिलचस्पी. वह मधेश को तकरीबन भारत का हिस्सा ही मानता है. हमें मधेश समर्थक होना होगा यानी हमें नेपाल समर्थक होना होगा.'
दूरी बनाकर नजदीकी की कोशिश
नेपाल सद्भावना पार्टी के अध्यक्ष राजेंद्र महतो कहते हैं, 'जय मधेश आंदोलन बिल्कुल वैसा ही है, जैसा 1971 में बांग्लादेशियों ने जय बांग्ला आंदोलन खड़ा किया था और जिसके नतीजतन वह पाकिस्तान से अलग हो गया था. अगर काठमांडो संभलने को तैयार नहीं होता तो मधेश भी उसी रास्ते पर जा सकता है.'
भारत की नीति दूरी बनाए रखकर नजदीक से निगाह रखने की है. लेकिन तीन महीने पहले जब विरोध प्रदर्शन अचानक उग्र और व्यापक हो उठे, तो भारत भी हालात के ऐसा मोड़ लेने के लिए चौकन्ना और तैयार नहीं था. तभी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और विदेश सचिव एस. जयशंकर मसले के उस सही हल की तलाश में एक-दूसरे से होड़ करने लगे, जो पीएम नरेंद्र मोदी को नेपाल के बरअक्स अपनाना चाहिए.
भारत ने स्पष्ट किया रुख
अलबत्ता इन शुरुआती डगमगाहटों के बाद भारत की नीति में ठहराव आया लगता है. हाल ही में जब नेपाल के शाह-समर्थक उप-प्रधानमंत्री कमल थापा भारत की यात्रा पर आए, तो उन्होंने नई दिल्ली को नसीहत दी कि वह मधेशी आंदोलनकारियों को आंदोलन वापस लेने के लिए मनाए. लेकिन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उन्हें याद दिलाया कि मधेशियों से ठोस बातचीत ही एकमात्र जवाब है.
थापा और ओली, दोनों टस से मस नहीं हुए. मधेशी नेताओं के साथ बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला. विरोध प्रदर्शनों में अब तक 44 मधेशी और आठ नेपाली पुलिसकर्मी मारे जा चुके हैं और ऐसे में हालात के और बिगड़ने की ही आशंका है. आसान तरीका यही होगा कि काठमांडो माने कि मधेशियों के साथ गैर-बराबरी का बर्ताव हो रहा है और अब उनकी शिकायतें दूर करने का वक्त आ गया है. तराई को ज्यादा लंबे वक्त तक जलता हुआ छोड़ देना डरावना ख्याल है, जिसे काठमांडो और मधेश के सभी नेताओं को फौरन दिमाग से निकाल देना चाहिए.