जनता दल से टूटकर अलग हुईं कई पार्टियां अरसे बाद फिर जनता परिवार की छतरी की आड़ में एकजुट हुई हैं. इसमें शामिल तमाम राजनीतिक सूरमा एक दल के लिए अपनी पार्टी के निशान और पहचान को कुर्बान करने के लिए तैयार हैं. लेकिन क्यों?
इस पॉलिटिकल फैमिली री-यूनियन के पीछे कई दलीलें पेश की जा रही हैं-
-इस साल बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. लालू और नीतीश दोनों की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी है.
-मुलायम केंद्र की राजनीति में अपना दबदबा चाहते हैं और अखिलेश को राज्य की कमान सौंपना.
-देवेगौड़ा ने अपनी पार्टी की कमान बेटे को सौंप दी है और वो उसे पूरा वक्त देना चाहते हैं.'
कहा जा रहा है कि जनता परिवार का ये महामिलन मजबूरी और स्वार्थ का नतीजा है. लेकिन अगर ऐसा है, तो भी यह डील फायदेमंद साबित हो सकती है क्योंकि नीतीश कुमार और लालू यादव को छोड़ दें, तो दल के बाकी नेताओं की राहें अलग हैं, बस मंजिल एक है.
- लालू-मुलायम पहले से ही एक दूसरे की राह का रोड़ा नहीं हैं. निजी जिंदगी में दोनों करीबी रिश्तेदार भी हैं,
- मतलब यूपी की कमान मुलायम और बिहार की नीतीश-लालू के पास रहेगी,
- समाजवादी पार्टी, जेडी(यू) और आरजेडी की कर्नाटक में कोई भूमिका नहीं है और न ही जेडी(एस) की उत्तर भारत में,
- मतलब जेडी(एस) को कर्नाटक में किसी प्रकार की चुनौती नहीं है,
- वहीं INLD के हरियाणा पर भी कोई प्रभाव नहीं है.
आशंका जताई जा रही है कि नीतीश कुमार और लालू यादव की राजनीतिक महत्वकाक्षाएं जनता परिवार की सेहत खराब कर सकती है. जनता के बीच सवाल उठ रहे हैं कि फिलहाल तो लालू प्रसाद और नीतीश कुमार साथ-साथ हैं. लेकिन चुनावों के बाद भी क्या वो साथ-साथ रहेंगे?
संसद में जनता परिवार
संसद के मौजूदा हाल पर नजर डालें, तो छह पार्टियों के जुटान से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. दल में शामिल समाजवादी पार्टी, जनता दल
(सेक्यूलर), राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), इंडियन नेशनल लोक दल, समाजवादी जनता दल की सीटों को जोड़ें तो इनके
पास लोकसभा में केवल 15 और राज्यसभा में 30 सीटें हैं.
अब देखना है कि जनता परिवार का ये एक्सपेरिमेंट देश की राजनीति को एक नई दिशा देगी या सिर्फ निजी महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाने का एक जरिया बनकर रह जाएगी.
साभार newsflicks.com