जिस आम आदमी पार्टी ने देश-विदेश में अपनी धाक जमा दी, अब वो एक भंवर में फंसती दिखाई दे रही है. इस नई नवेली पार्टी को आंतरिक कलह का जो सामना करना पड़ रहा है वह अभूतपूर्व तो नहीं है लेकिन परेशान करने वाला जरूर है. विनोद कुमार बिन्नी इस पार्टी के ऐसे सदस्य हैं जिनका उदाहरण अरविंद केजरीवाल चुनाव के पहले खुद देते थे. उनके साहस और ईमानदारी की वो तारीफ करते थे. लेकिन अब बात बिगड़ गई है.
बिन्नी ने अपनी पार्टी के नेता पर ही तानाशाह होने का आरोप लगा दिया है और उन्हें धोखेबाज तक करार दे दिया है. वह पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं और पार्टी के बैनर तले ही आंदोलन करना चाहते हैं. मतलब साफ है कि पार्टी में छोटी सी ही सही एक बगावत हो गई है. यह इतना बड़ा मामला नहीं है कि इसे लेकर पार्टी के टूटने या दरकने का खतरा पैदा हो जाए. और न ही इसे आखिरी समझ लिया जाए. लोकतांत्रिक पार्टियों का यह गुण है कि उसमें असमान से स्वर उठते रहते हैं. उसे विद्रोह कहना अनुचित होगा. हर पार्टी के जीवन में ऐसे मौके आते हैं और उसके बाद ही पता चलता है कि उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं और उसका नेतृत्व कितना मजबूत है. आम आदमी पार्टी की समस्या यह है कि न तो इसकी जड़ें गहरी हैं और न ही उसका नेतृत्व कुशल है. वह तो पैदा हुई है असंतोष, अराजकता और भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के गुस्से तथा विरोध से. इसका स्वाभाविक विकास होना बाकी है. पार्टी ने जो अनायास सफलता पा ली है अभी तो वह उसके ही उल्लास से नहीं उबरी है. उसके लिए यह उत्सव जैसा है. वह आगे की नहीं सोच पा रही है.
अब समस्या यह है कि आम आदमी पार्टी ने लोगों में जितनी उम्मीदें पैदा कर दी हैं उनका क्या होगा. दरअसल इन्हीं उम्मीदों की लहरों पर पार्टी ने चुनाव के सागर की सफल यात्रा की थी. उसने यह नहीं सोचा कि इन्हें पूरा कैसे किया जाएगा. बिजली हो या पानी या फिर भ्रष्टाचार का बड़ा मामला, पार्टी हर जगह घिरती दिख रही है. वादों को आधे-अधूरे ढंग से पूरा करना और फिर उसे न्यायोचित ठहराना पार्टी के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है. अब जबकि वह लोकसभा की 400 सीटों पर चुनाव लड़ने की मंशा जता रही है, यह देखना दिलचस्पी का विषय होगा कि पार्टी में कितना लोकतंत्र है. लेकिन उससे भी बड़ी बात है कि पार्टी इतनी महत्वाकांक्षी हो गई है कि वह इतना बड़ा कदम उठाने जा रही है. उस लगता है कि वह एक शहरी आंदोलन को दूर-दराज के गांवों और कस्बों तक सफलता पूर्वक ले जाएगी तो वह गलतफहमी में है.
एक मजबूत ढांचा बने और कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज खड़े हुए बगैर यह संभव नहीं है और इसमें वर्षों लग जाते हैं. कुछ नामी-गिरामी और विख्यात लोगों के साथ हो जाने मात्र से ही एक बड़ी राजनीतिक पार्टी खड़ी नहीं हो जाती है. लोकतांत्रिक पार्टियां समय के साथ पलती-बढ़ती हैं. जल्दबाजी में उठाया गया हर कदम उसे बर्बादी की और ले जाएगा.