नवनिर्वाचित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के शपथ समारोह को देख रहा था, तभी बीजेपी के दलित चेहरा रहे बंगारू लक्ष्मण की याद आ गई. एक मीडिया हाउस के स्टिंग ऑपरेशन में फंसने के बाद लक्ष्मण को पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इसके साथ ही उनके राजनीतिक कॅरियर पर विराम लग गया था. लक्ष्मण पर पार्टी ने किसी भी तरह की सहानुभूति दिखाने से इनकार कर दिया था. बीजेपी अध्यक्ष बनने वाले वह पहले दलित नेता थे. वह ऐसे समुदाय से आते थे, जो हमेशा से ही हाशिए पर रहा और उत्पीड़न का शिकार रहा. उनका बीजेपी अध्यक्ष बनना भी अप्रत्याशित था. हकीकत यह है कि उनकी बीजेपी अध्यक्ष पद पर नियुक्ति राजनीतिक फायदे के लिए की गई थी. हालांकि लक्ष्मण को पद से हटाने के पीछे वजह थी, लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई के दौरान जाति फैक्टर को नजरअंदाज नहीं किया जा सका. अब यह सवाल उठना लाजमी है कि बीजेपी के लिए कोविंद को राष्ट्रपति बनाया जाना क्या मायने रखता है?
बंगारू लक्ष्मण के मामले में एक बार बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा था कि उनको अपने कदाचार का खामियाजा भुगतना पड़ा है, लेकिन यह कार्रवाई सिर्फ एक ही वजह से नहीं की गई. उनका दलित होना भी एक फैक्टर था. अगर वह ब्राह्मण या अन्य उच्च जाति के होते, तो उनको इतनी ज्यादा उपेक्षा का शिकार नहीं होना पड़ता. बीजेपी की कलई खोलने के लिए यह एक नजीर है कि वह दलितों की कितनी फिक्र करती है. अगर बीजेपी अपने वोटबैंक या सामाजिक एजेंडे के लिए दलित चेहरे का इस्तेमाल करती है, तो उसे दलित प्रेमी के रूप में नहीं देखना चाहिए. यह समुदाय के लिए चिंताजनक होना चाहिए कि इसके विचारक और राजनीतिक कार्यकर्ता राजनीतिक और चुनावी फायदे के लिए अपने चेहरे एवं पहचान का इस्तेमाल कर रहे हैं.
बंगारू लक्ष्मण अकेले ऐसे नेता नहीं थे, जिनको कदाचार का दोषी पाया गया. बीजेपी के कई मौजूदा मुख्यमंत्री, केंद्र सरकार के मंत्री और पार्टी के सीनियर पदों पर बैठे नेताओं के खिलाफ कदाचार समेत कई मामले हैं, लेकिन उनको जाति समेत कई कारणों से बंगारू लक्ष्मण की तरह सजा नहीं दी गई. क्या यह बीजेपी के दलित प्रेम की हकीकत को उजागर नहीं करता है? बीजेपी ने राजनीतिक मजबूरी के चलते एक बार फिर से दलित चेहरे का इस्तेमाल किया है. इस बार बीजेपी ने दलितों को खुश करने के लिए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया. अब वह देश के राष्ट्रपति हैं. इसके जरिए पार्टी ने दलितों को मजबूत संदेश देने की कोशिश की है कि वह उनकी हितैशी है.
बीजेपी ने रामनाथ कोविंद को उस समय राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया, जब दलित वोटबैंक पर निर्भर रहने वाली क्षेत्रीय पार्टियां कमजोर हो रही हैं. मतलब साफ है कि बीजेपी हरहाल में दलित वोटों को अपने पक्ष में लाना चाहती है. बीजेपी ने राष्ट्रपति चुनाव में उत्तर भारतीय दलित के रूप में कोविंद कार्ड पहली बार खेला है. अब कोविंद चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बन चुके हैं और वह मंगलवार को शपथ भी ले चुके हैं. उनके शपथ समारोह के दौरान संसद के सेंट्रल हाल में 'जय श्रीराम' और 'भारत माता की जय' के नारे गूंजे, जो बीजेपी के असली चेहरे को फिर से बेनकाब कर दिया. इससे यह साफ हो गया कि बीजेपी के दिल में क्या है और उसका मुखौटा क्या है? हालांकि बीजेपी इसके बचाव में कह रही है कि ऐसे नारे लगाने में गलत क्या है? लेकिन बीजेपी के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर वह इस दौरान वह 'जय भीम' के नारे लगाना क्यों भूल गई? क्या जय श्रीराम के साथ जय भीम के नारे नहीं लगाना पार्टी के दलित चेहरे और हकीकत के बीच दूरी को साफ नहीं दर्शाता है?
हाल ही के दिनों में बीजेपी ने अंबेडकर को उचित स्थान देने की कोशिश की है, लेकिन रामनाथ कोविंद के शपथ के दिन जय श्रीराम के नारे लगने और जय भीम के नारे नहीं लगने से ऐसे लोग बेहद हैरान हैं, जो अंबेडकर पर यकीन करते हैं और दलितों के साथ वास्तव में खड़े रहते हैं. इससे यह तो साफ हो गया कि बीजेपी दलित चेहरे का इस्तेमाल राजनीतिक हित के लिए कर रही है और यही उसकी हकीकत है. बीजेपी सच्चाई छिपाने की कितनी भी पुरजोर कोशिश करे, लेकिन हकीकत अपने आप ही बयां हो जाती है. सेंट्रल हाल में जय श्रीराम के नारे बीजेपी की विचारधारा और विश्वास को दर्शाता है, लेकिन क्या एक दलित का राष्ट्रपति चुना उत्सव मनाने का वक्त नहीं था? अगर हां, तो जय भीम के नारे को पहले क्यों नहीं लगाया गया.
सेंट्रल हाल में जय श्रीराम के नारे लगाने की परीक्षा सिर्फ उसी वक्त होगी, जब हिंदू धर्म से इतर अन्य धर्म से जुड़े नारे लगाए जाएंगे. यह सवाल उठ रहा है कि क्या तब बीजेपी ऐसे नारों का स्वागत करेगी? यह बीजेपी के लिए खुशी का दिन है और उसने अपनी खुशी को व्यक्त किया है. बंगारू लक्ष्मण से लेकर कोविंद के राष्ट्रपति बनने तक बीजेपी ने दलितों को खुश करने की पूरी कोशिश की. हालांकि रोहित वेमुला, ऊना घटना और फरीदाबाद घटना के बाद जनरल वीके सिंह का बयान बीजेपी के दोहरे चेहरे को उजागर करते हैं. भीड़ की ओर से दलितों की हत्या समेत कई घटनाएं बीजेपी के वोटबैंक की राजनीति के पुलिंदा को खोलते हैं.