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पहुंचने से पहले पढ़ा गया था नेताजी की पत्नी का पत्र

हाल ही में सार्वजनिक की गईं नेताजी से जुड़ी गोपनीय फाइलें कुछ पक्के और चैंकाने वाले रहस्य का खुलासा करती हैं. आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने करीब दो दशक तक नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परिवार की करवाई थी जासूसी...

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subhash chandra bose (File Photo)
subhash chandra bose (File Photo)

हाल ही में सार्वजनिक की गईं नेताजी से जुड़ी गोपनीय फाइलें कुछ पक्के और चैंकाने वाले रहस्य का खुलासा करती हैं. आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने करीब दो दशक तक नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परिवार की करवाई थी जासूसी ...

विएना
20 अक्तूबर, 1952
'अनिता की सेहत ठीक है और उसकी पढ़ाई अच्छी चल रही है. वह लंबी हो रही है और तगड़ी भी, हालांकि अब तक मोटी नहीं कही जा सकती. अभी उसे स्कूल में अंग्रेजी सिखाई जा रही है जिसमें उसका काफी मन लगता है.'

यह खत नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पत्नी एमिली शेंकल ने विश्व युद्ध से उबरे ऑस्ट्रिया से लिखा था. उनकी एकाकी जिंदगी में बची कुछ उम्मीदों में एक उनकी बेटी थी. चिट्ठी सुदूर कोलकाता में नेताजी के भतीजे शिशिर कुमार बोस के नाम भेजी गई थी, पर वहां पहुंचने से पहले ही इसे पढ़ा जा चुका था. यह पहला खत नहीं था जिसे पढ़ा गया था. उनके पढ़ने से पहले ही खुफिया ब्यूरो (आइबी) के कई अफसरों ने चुपचाप चिट्ठी की प्रतियां बनाकर उसे बोस परिवार से जुड़ी सीक्रेट फाइलों में नत्थी कर दिया था.

आधी सदी से ज्यादा समय तक इसकी और ऐसे तमाम पत्रों की प्रतियां कोलकाता स्थित राज्य आइबी मुख्यालय के दराजों में बंद पड़ी थीं. हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इससे गोपनीयता का मुलम्मा हटा लिया और इन्हें दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखा गया है. ये फाइलें आजाद भारत के दागदार सरकारी राज से परदा उठाती हैं. वह यह है कि 1948 से 1968 के बीच दो दशकों तक सरकार ने बोस परिवार के सदस्यों की गहन जासूसी की थी. सरकारी जासूस उस स्वतंत्रता सेनानी के परिजनों के पत्र पढ़ते और दर्ज करते रहे जो 25 वर्ष तक नेहरू का राजनैतिक सहकर्मी रहा था.

आइबी के जासूस इस परिवार के सदस्यों का उनकी घरेलू और विदेश यात्राओं के दौरान लगातार पीछा करते रहे और उनसे मिलने वालों और उनकी बातों के महीन से महीन विवरणों को रिकॉर्ड करते रहे. यह निगरानी बिल्कुल उसी तर्ज पर थी जैसा आज किसी वांछित आतंकवादी के परिवार पर रखी जाती है-बेहद सघन, व्यवस्थित और सतर्कता भरी. इन खुलासों ने बोस परिवार को हैरत में डाल दिया है. नेताजी के भतीजे के बेटे चंद्र कुमार बोस सवाल उठाते हैं, 'निगरानी उन पर रखी जाती है जिन्होंने कोई अपराध किया हो या जिनके आतंकी तार जुड़े हों. नेताजी और उनके परिवार ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, फिर उन पर निगरानी रखने की क्या जरूरत थी?'

सुभाष चंद्र बोस की इकलौती पुत्री अनिता बोस-फॉफ जर्मनी में अर्थशास्त्री हैं. वे भी इन खुलासों से सकते में हैं. वे कहती हैं, 'मेरे चाचा (शरत चंद्र बोस) पचास के दशक तक राजनैतिक रूप से सक्रिय थे और कांग्रेसी तत्कालीन नेतृत्व के विरोध में थे, लेकिन जो बात मुझे चौंकाती है वह यह कि मेरे चचेरे भाई-बहन भी जासूसी के दायरे में थे जबकि सुरक्षा की दृष्टि से इसका कोई मतलब नहीं बनता था.'

कौम के भटके सिपाही थे नेता जी!

नेताजी ने जापान में भारतीय युद्धबंदियों को साथ लेकर आजाद हिंद फौज (आइएनए) बनाई थी जिसके सहारे उन्होंने आजाद भारत की अस्थाई सरकार का गठन किया. आइएनए ने अंग्रेजी राज वाले इस उपमहाद्वीप की सरहदों पर 1943 पर कब्जा जमाया और इसकी टुकड़ियों ने पहली बार भारत की धरती पर तिरंगा फहराया था. इसके तुरंत बाद 1944 में जापानी सेना की हार ने आइएनए को लौटने को मजबूर कर डाला. माना जाता है कि अलाइड सैन्य बलों के सामने जापान के घुटने टेकने के तीन दिन बाद 18 अगस्त, 1945 को 48 वर्षीय नेताजी की मौत ताइवान में एक विमान हादसे में हो गई थी.

नाराज है बोस परिवार
बोस परिवार इन खुलासों पर बहुत नाराज है और उसकी मांग है कि केंद्र सरकार बीते 60 वर्षों से अपने कब्जे में रखी नेताजी से जुड़ी टॉप अतिगोपनीय फाइलों को तेजी से सार्वजनिक करने का काम करे. उनका मानना है कि ये दस्तावेजी रहस्योद्घाटन सिर्फ एक हल्की-सी झलक हैं. करीब एक दशक से आरटीआई कार्यकर्ता और शोधार्थी यह मानते रहे हैं कि अब तक गोपनीय रखी गई फाइलों का इस चमत्कारिक इंकलाबी शख्सियत की गुमशुदगी पर कुछ रोशनी डालने का काम कर सकता है. सरकार लगातार उनके काम में रुकावट डालती रही है.

राजनाथ सिंह जब बीजेपी के अध्यक्ष थे, तब पिछले साल उन्होंने कटक में कहा था, 'समूचा देश यह जानने को बेचैन है कि नेताजी की मौत कैसे और किन परिस्थितियों में हुई.'पिछले साल उनकी सालगिरह पर बोलते हुए उन्होंने वादा किया था कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आ गई तो नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक कर दिया जाएगा. आज वे सरकार में हैं लेकिन उसकी प्रतिक्रिया भी यूपीए जैसी ही है. पिछले 2 फरवरी को प्रधानमंत्री कार्यालय ने आरटीआइ कार्यकर्ता सुभाषचंद्र अग्रवाल को बताया कि पीएमओ के पास मौजूद नेताजी की फाइलों का उद्घाटन 'दूसरे देशों के साथ रिश्तों को पूर्वाग्रहग्रस्त तरीके से प्रभावित कर सकता है.' पीएमओ ने बिल्कुल ऐसा ही जवाब 'मिशन नेताजी' को दिया है. यह कुछ कार्यकर्ताओं का एक ऐसा दबाव समूह है जो 2006 से लगातार इन फाइलों को सार्वजनिक किए जाने की लड़ाई लड़़ रहा है.

बोस परिवार की जासूसी
अंग्रेजी राज में सीआइडी 1930 के दशक से ही कोलकाता-1 स्थित बोस परिवार के दो मकानों की निगरानी कर रही थी- 1, वुडबर्न पार्क का मकान था और दूसरा था 38@2, एल्गिन रोड. यही वह समय था जब शरत चंद्र और उनके छोटे भाई सुभाष चंद्र बोस बंगाल में स्वतंत्रता आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे थे. परिवार को सीआइडी के साए की आदत पड़ चुकी थी.

इसका पता इस घटना से चलता है कि एक बार सीआइडी के एक अफसर ने शरत चंद्र को भेजे गए पत्र को बीच में ही जब्त करके उसकी प्रति बना ली थी लेकिन गलती से एक प्रति उन्हें भेज दी. जब वह अपनी गलती को स्वीकारने बोस परिवार के पास आया तो बड़े भाई ने उससे कहा कि कुछ दिन बाद आकर उसे ले जाए. नेताजी को 1941 में नजरबंद किया गया था. वे पुलिस को चकमा देकर एल्गिन रोड वाले मकान से निकल गए और नाजी शासन वाले जर्मनी में जाकर रुके. अंग्रेजों ने उन्हें इसके बाद फासीवादी ताकतों का सहयोगी करार देते हुए उनके परिजनों पर निगरानी बढ़ा दी. जैसा कि सार्वजनिक किए गए दस्तावेज दिखाते हैं, आजाद भारत की सरकार भी इस परिवार पर उतनी ही मुस्तैदी से निगरानी रखती रही थी.

देश में सत्ताधारी दल अमूमन राजनैतिक विरोधियों और यहां तक कि खुद उनके अपने परिजनों पर निगाह रखने के लिए आइबी का इस्तेमाल करते रहे हैं. आइबी के पूर्व प्रमुख एम.के. धर ने 2005 में आई अपनी पुस्तक ओपन सीक्रेट्स में बताया था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मेनका गांधी और उनके परिवार पर निगाह रखने का आदेश आइबी को दिया था क्योंकि उन्हें इस परिवार की राजनैतिक महत्वाकांक्षा पर संदेह था. नेताजी के दो भतीजों शिशिर कुमार बोस और अमिय नाथ बोस पर जिन दिनों निगरानी रखी जा रही थी, उस समय उनका सियासी वजन ज्यादा नहीं था. दस्तावेजों के मुताबिक आइबी ने जब उन पर अपनी निगरानी ढीली कर दी थी, उसके कई साल बाद उन्होंने चुनाव लड़ा. अमिय नाथ ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के टिकट पर आरामबाग से 1968 में सांसद चुने गए जबकि शिशिर बोस कांग्रेस के टिकट पर 1987 में पश्चिम बंगाल की विधानसभा में विधायक चुने गए थे.

ऐसा लगता है कि आइबी को इस बात में ज्यादा दिलचस्पी थी कि बोस परिवार क्या करता है और किससे मिलता है. सार्वजनिक हो चुके सिलसिलेवार हस्तलिखित संदेश दिखाते हैं कि आइबी के एजेंट आइबी मुख्यालय ''सिक्योरिटी कंट्रोल'' को फोन करके परिवार की हरकतों के बारे में जानकारी देते थे, हालांकि पारिवारिक पत्रों के माध्यम से ही आइबी को यह पता चल पाता था कि परिवार क्या सोच रहा है. इस पत्राचार में नेताजी का जिक्र खूब होता था. जाहिर है, परिवार और किस बारे में बात करेगा? ये पत्र मोटे तौर पर सामान्य पारिवारिक मसलों के बारे में होते थे.

नेताजी की पत्नी अपने खतों में परिवार के आर्थिक संकट, बेटी के पालन-पोषण और विएना वाले मकान की मरम्मत का जिक्र करती थीं. कोलकाता से बोस परिवार खर्चा चलाने के लिए उन्हें पैसा भेजता था. आइबी ने इन पत्रों में उन हिस्सों को रेखांकित किया है जिनमें एमिली शेंकल के मुलाकातियों के नाम हैं. यह दिखाता है कि आइबी को आखिर किस चीज में दिलचस्पी थी. ऐसे ही 1953 में लिखे पत्र पर आइबी की टिप्पणी एमिली को ''श्री सुभाष चंद्र बोस की कथित पत्नी'' करार देती है.

नेताजी भवन संग्रहालय बन चुके 38@2 एल्गिन रोड स्थित मकान में सार्वजनिक हुए दस्तावेजों को पलटते हुए मरहूम शिशिर कुमार बोस की 85 वर्षीया पत्नी कृष्णा बोस की प्रतिक्रिया थी, ''भारी रहस्यमय और चौंकाने वाली बात है! आखिर वे हमारा पीछा क्यों करना चाह रहे थे?'' वे तृणमूल कांग्रेस से तीन बार लोकसभा सांसद रह चुकी हैं. वे इस बात पर हंसती हैं कि यह जासूसी कितनी असरदार रही होगी क्योंकि परिवार को इसका कोई अंदाजा नहीं था. वे कहती हैं, ''मेरे पति कहते थे कि अस्पताल जाते समय या ट्राम पर चढ़ते वक्त उन्हें महसूस होता था कि उनका पीछा हो रहा है...पर यह अंग्रेजों के दौर की बात थी.''

जासूसी से जुड़े इन रहस्योद्घाटनों को देखकर एक अंदाजा लगता है कि दुनिया की सबसे पुरानी खुफिया एजेंसियों में एक आइबी कैसे काम किया करती थी. जो चिट्ठियां जब्त की जाती थीं, उनकी निगरानी का केंद्र तकरीबन पूरी तरह एल्गिन रोड डाकघर हुआ करता था जहां बिना किसी संदेह के बोस परिवार अपनी चिट्ठियां डालता था. परिवार के सदस्यों ने 1956 में गठित शाहनवाज आयोग पर अपना संदेह जताया था. चाचा को मान्यता न देने से उपजी निराशा का भी इजहार किया था. इस बारे में 1955 में शिशिर बोस ने नेताजी की पत्नी को लिखा था, ''अगर आज आप भारत में होतीं, तो आपको यह एहसास होता कि भारत की आजादी की लड़ाई में सिर्फ दो लोगों का महत्व था-गांधी और नेहरू. बाकी सब महत्वहीन थे.''

1950 के दशक में परिवार के सभी पत्रों की प्रतियां बनाई जाती थीं और कुछ को दिल्ली स्थित मुख्यालय में बैठे आइबी के दो अहम अफसरों से साझा किया जाता था-एक एम.एल. हूजा थे जो 1968 में आइबी के मुखिया बने और दूसरे रामेश्वरनाथ काव थे, जिन्होंने 1968 में रिसर्च ऐंड ऐनालिसिस विंग (रॉ) की स्थापना की. इन सबके पीछे जो इकलौता शख्स था, उसका नाम भोला नाथ मलिक था. यह शख्स नेहरू की सरकार में आंतरिक सुरक्षा का मुखिया था जो 1948 से 1964 के बीच लगातार 16 साल तक आइबी का प्रमुख रहा.

यह जासूसी राजनैतिक रूप से संवेदनशील थी, इसमें कोई दो राय नहीं है. फाइलों पर ''टॉप सीक्रेट'' और ''वेरी सीक्रेट'' की मुहर तय कर देती थी कि इन फाइलों तक कुछ मुट्ठी भर अफसरों की ही पहुंच होगी. ये फाइलें कोलकाता की प्रिटोरिया स्ट्रीट स्थित आइबी के राज्य मुख्यालय में स्टील की बनी दराजों में रखी जाती थीं, जो बोस के घर से कुछ ही दूरी पर है.

नेताजी से जुड़े रहस्यों पर लिखी किताब इंडियाज बिगेस्ट कवर-अप के लेखक और कार्यकर्ता अनुज धर कहते हैं, ''जब बंगाल का भद्रलोक छोटे-मोट अपराधों को सुलझाने वाले कपोल-कल्पित शख्स ब्योमकेश बख्शी पर निहाल था, उस समय आइबी के जासूस ऐसे कारनामों में मुब्तिला थे जिनके सामने सीआइए और केजीबी को पानी भरना पड़ जाता.''

आइबी की जासूसी कोलकाता तक सीमित नहीं थी. मद्रास में सीआइडी की विशेष शाखा की 1958 की एक रिपोर्ट शिशिर बोस की आवाजाही का पता देती है जब वे नेताजी रिसर्च ब्यूरो बना रहे थे. 1963 में जब्त एक पत्राचार अमिय नाथ का है तो नेताजी के पुराने सहयोगी एसीएन नांबियार के लिए था जो उस समय स्विट्जरलैंड में भारतीय राजनयिक थे. इसमें विडंबना यह है कि दिल्ली में आइबी के जो आला अफसर इस पत्राचार को पढ़ रहे थे, उनमें एक शख्स नांबियार का भतीजा ए.सी. माधवन नांबियार था.

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