जयललिता जून 1991 में जब पहली बार मुख्यमंत्री चुनी गईं तो उनकी संपत्ति करीब 3 करोड़ रुपये घोषित की गई. पांच साल बाद यह संपत्ति करीब 66 करोड़ रुपये की छलांग लगा गई. 1996 के विधानसभा चुनावों में जयललिता और एआइएडीएमके को डीएमके के हाथों करारी हार झेलनी पड़ी थी. डीएमके ने चुनाव अभियान जयललिता के राज में भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने के वादे पर ही चलाया था. नई सरकार ने उन पर भ्रष्टाचार के कई मुकदमे चस्पां कर दिए. इसके अलावा 1996 में एक शिकायत उस वक्त जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी दायर की कि जयललिता ने मुख्यमंत्री रहते अपनी आय के अनुपात से कहीं ज्यादा संपत्ति जुटा ली है.
यूं लटकता चला गया मामला
साल 1997 में आय से अधिक संपत्ति जुटाने का मामला खुल गया था. इसमें पहली समस्या यह आई कि तमिलनाडु के प्रमुख सत्र न्यायाधीश ने कहा कि उनके पास मुकदमों का ढेर है और नेताओं के खिलाफ मुकदमों की जांच के लिए अतिरिक्त विशेष अदालतें बनाई जाएं. तीन अतिरिक्त अदालतें बनाई गईं. लेकिन जयललिता और उनके सहयोगियों ने इनके गठन और मामले की सुनवाई की उनकी क्षमता को चुनौती दे डाली.
अनुवादकों की मांग
मामले की आरोपी शशिकला ने मांग की कि मामले से जुड़े सभी दस्तावेजों का तमिल में अनुवाद मुहैया कराया जाए, क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं जानतीं. करीब एक साल सभी दस्तावेजों के अनुवाद में बीत गया और मुकदमा 1999 में ही शुरू हो सका.
बचाव पक्ष की टाल-मटोल
अगस्त 2000 तक सभी 259 गवाहों से जिरह हुई. फिर बचाव पक्ष की बारी आई. वह टाल-मटोल चलता रहा और महज आठ गवाहों से ही जिरह कर पाया.
साल 2001 में बाजी पलट
साल 2001 की गर्मियों में बाजी पलट गई. जयललिता विधानसभा चुनावों में भारी विजय के साथ लौटीं. वे तांसी (टीएएनएसआइ) मामले में प्रारंभिक न्यायिक फैसले की वजह से तत्काल तो मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं, लेकिन 2002 में गद्दी संभाल ली.
कर्नाटक में सुनवाई
साल 2003 में डीएमके औपचारिक रूप से इस मामले से जुड़ी. पार्टी महासचिव के. अंबझगन ने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे को तमिलनाडु से बाहर ले जाने की याचिका डाली. नवंबर 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि मुकदमा कर्नाटक भेज दिया जाए.
पांच साल तक मामले पर रोक
कर्नाटक सरकार ने पूर्व महाधिवक्ता बीवी आचार्य को विशेष लोक अभियोजक नियुक्त किया. लेकिन जब आय से अधिक संपत्ति के मामले में लंदन होटल्स का मामला जोड़ दिया गया तो झटका लगा. अभियोजन पक्ष को झटका इसलिए लगा कि लंदन होटल्स का मामला इतना पुख्ता नहीं था और दोनों मामले में अलग-अलग लेन-देन हुआ था.
अगस्त 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मामलों को जोडऩे की प्रक्रिया पर रोक लगा दी. यह रोक पांच साल तक के लिए थी. 2006 के विधानसभा चुनावों में डीएमके सत्ता में लौट आई और उसने 2009 में होटल मामले को बंद करने का फैसला किया. आखिरकार 2010 में अभियोजन पक्ष को कुछ गवाहों को दोबारा बुलाने की इजाजत मिली जो पहले अपने बयान से मुकर गए थे.
अच्छा बहाना लगाया
इस बीच जयललिता ने अर्जी दायर कर दी कि वे अदालत में नहीं पहुंच सकतीं, क्योंकि कर्नाटक सरकार पर्याप्त सुरक्षा नहीं मुहैया करा रही है. 2011 में जयललिता सत्ता में लौट आईं.
सजा का सबब बने कुन्हा
मामले में निर्णायक मोड़ 17 साल बाद अक्तूबर 2013 में आया, जब कर्नाटक हाई कोर्ट ने जॉन माइकल डी. कुन्हा को विशेष न्यायाधीश नियुक्त किया. वे पूर्व जिला न्यायाधीश थे, जो कर्नाटक हाइकोर्ट में सतर्कता रजिस्ट्रार थे. उन्होंने यह पक्का किया कि मामला बिना किसी देरी के आगे बढ़े और उन्होंने दलीलों को एक साल से कम में ही निबटा दिया.