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14वीं सदी से 18वीं सदी के बीच केदारनाथ मंदिर दबा था बर्फ के पहाड़ों में, फिर भी रहा सुरक्षित

जब मुगल इस देश पर शासन करते थे, तब केदारनाथ मंदिर बर्फ के पहाड़ों के तले दबा हुआ था. 400 साल ऐसा रहा, मगर मंदिर की एक ईंट भी नहीं खिसकी. अगर इससे भी पीछे लौटें तो विक्रमादित्य के राज में यहां आसपास धान की खेती होती थी. केदारनाथ मंदिर के बारे में यह जानकारी वैज्ञानिक शोध से सामने आई है. केदारनाथ घाटी में रिसर्च कर चुके जियोलॉजिस्ट रवींद्र कुमार चौजर के लेख से यह जानकारी सामने आई है. पढ़ें पूरा लेख और जानें केदारनाथ मंदिर के अनजाने रहस्य.

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केदारनाथ मंदिर
केदारनाथ मंदिर

जब मुगल इस देश पर शासन करते थे, तब केदारनाथ मंदिर बर्फ के पहाड़ों के तले दबा हुआ था. 400 साल ऐसा रहा, मगर मंदिर की एक ईंट भी नहीं खिसकी. अगर इससे भी पीछे लौटें तो विक्रमादित्य के राज में यहां आसपास धान की खेती होती थी. केदारनाथ मंदिर के बारे में यह जानकारी वैज्ञानिक शोध से सामने आई है. केदारनाथ घाटी में रिसर्च कर चुके जियोलॉजिस्ट रवींद्र कुमार चौजर के लेख से यह जानकारी सामने आई है. पढ़ें पूरा लेख और जानें केदारनाथ मंदिर के अनजाने रहस्य.

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‘समुद्र तल से 11,742 फुट की ऊंचाई पर खड़े होकर समय की सुई को थोड़ा-सा अतीत की ओर घुमाकर देखें तो एक अद्भुत नजारा दिखाई देगा: हरियाली में नहाए जंगल, चट्टानी ढलानों की भूरी कतारें, पहाड़ों की रुपहली चोटियां और शांत, मंथर गति से बहती मंदाकिनी की लहरों के किनारे दूर-दूर तक फैली सुनहरी हरी घास के जंगल. नक्शे पर नदी से लगभग 100 मीटर दक्षिण में एक छोटी-सी बिंदीनुमा आकृति दिखती है: यह है केदारनाथ मंदिर, जो हिमालय में आए प्रलय का साक्षी बन गया. गढ़वाल के हिमालय क्षेत्र पर अपने 20 साल के रिसर्च और क्षेत्रीय कार्य के दौरान केदारनाथ की निर्मल शांत छवि मेरे मन में बसी रही है. पर घाटी हमेशा से ऐसी नहीं थी.

यह हकीकत 1991 में उस वक्त सामने आई जब देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी से वैज्ञानिकों का एक दल मंदाकिनी के उद्गम स्थल चोराबारी ग्लेशियर पर रिसर्च करने पहुंचा. ग्लोबल वार्मिंग की मंडराती काली छाया को देखते हुए भारत सरकार जलवायु परिवर्तन और हिमालय के ग्लेशियरों पर इसके प्रभाव को जानने के लिए उत्सुक थी. कुदरती जलाशय माने जाने वाले ग्लेशियर उत्तर भारत की ज्यादातर नदियों के पानी का मुख्य स्रोत हैं.

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केदारनाथ मंदिर के अहाते में लिखे दो श्लोकों के अंशों में कुदरत रूपी अबूझ पहेली के संकेत छिपे हैं. दो दीवारों पर संस्कृत में उकेरे गए 20 श्लोक इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा रहे हैं. सन् 650 और सन 850 में उकेरे गए दो श्लोकों में यहां के नयनाभिराम दृश्यों का गुणगान किया गया है. लेकिन उनमें बर्फ या ग्लेशियरों के बारे में कहीं कोई जिक्र नहीं. अलबत्ता एक श्लोक में इलाके के सुनहरे धान की खेती का उल्लेख जरूर है. इस घाटी ने गंभीर जलवायु परिवर्तनों की चुनौतियों का सामना करते हुए अपना वजूद कायम रखा है. इस इलाके के ग्लेशियरों के इतिहास की कडिय़ों को नए सिरे से जोडऩा ही हमारा काम था.

कहते हैं कि केदारनाथ के इस शिव मंदिर को महाभारत काल में पांच पांडवों ने बनाया था. मंदिर निर्माण की सही तारीख का किसी पौराणिक साहित्य में उल्लेख नहीं मिलता. लेकिन वैज्ञानिक साक्ष्यों की कसौटी पर रखकर देखें तो इसकी उम्र 3,000 साल से कम नहीं बैठती. सन् 850 तक इस क्षेत्र में अगर बर्फ या ग्लेशियरों का नामोनिशान नहीं था, तो अब मंदिर के चारों ओर फैलने वाली बर्फ आखिर क्या कहती है?

जवाब लाइकेन में छिपा है: कवक (फंजाई) और शैवाल (एल्गी) के मेल से सैकड़ों वर्षों में धीरे-धीरे पनपा यह पौधा बेहद ठंडे मौसम में जीवित रह सकता है. घाटी में ग्लेशियर के खिसकने के बाद बचे चट्टानी अवशेषों पर उपजे लाइकेन के अध्ययन से हमें बीते समय में ग्लेशियरों की गतिविधियों के बारे में जानकारी मिली. ऐसे कई सबूत मिले जिसे देखकर हम हैरान रह गए कि मंदिर 14वीं सदी के मध्य से सन् 1748 तक की करीब 400 साल की अवधि के दौरान एक विशालकाय बर्फ के पहाड़ तले दबा था. मंदिर की भीतरी दीवारों पर हिमनदों के खिसकने से, उनके पथरीले और चट्टानी सतहों के घर्षण से जन्मे निशान साफ नजर आते हैं.

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मंदिर ने इतने लंबे अरसे तक प्रकृति के प्रकोप का सामना आखिर कैसे किया? मैं कहूंगा कि उसी तरह जिस तरह आज इसने हिमालय की बाढ़ का सामना किया है. मंदिर बहुत मजबूत है. यह चौड़े, विशाल ग्रेनाइट और उच्च ग्रेड की ''रूपांतरित शिलाओं” से तराशे गए खंभों और पत्थर खंडों से बना है. सीधे-सादे शब्दों में कहें तो ये ऐसी चट्टानें हैं जो जमीन के अंदर दबे रहने के दौरान गर्मी और दबाव से अपना रूप बदल लेती हैं. ये परतदार दिखती हैं और खनिज कणों से बनी होती हैं, अमूमन क्वाटर्ज या स्फटिक से. उनमें तेज आभा होती है और वे छूने पर खुरदरी और बहुत कठोर लगती हैं. दीवारों और खंभों की मोटाई करीब एक मीटर है. छत अत्यधिक मजबूत है जो एक ही पत्थर से बनी है. इसमें कहीं भी कंक्रीट, सीमेंट या लोहे की शहतीरों का इस्तेमाल नहीं हुआ है.

पिछले 18,000 वर्षों के दौरान पृथ्वी के वातावरण में जाने कितने बदलाव आए: ऊष्ण-नम परिस्थितियों से लेकर हिम युग तक. हमने हिमालय में जो देखा वह इन्हीं बदलावों का नतीजा है. लेकिन मंदिर समय की कसौटी पर खरा उतरता रहा. यह आज जो झेल रहा है वह बर्फ के पहाड़ के अंदर बिताए गए उन 400 सालों के सामने कुछ भी नहीं है. हां, एक चेतावनी जरूर है: हमारा सबसे बड़ा हित इसी में हैं कि हम केदारनाथ मंदिर की शांति भंग न करें.’
(रवींद्र कुमार चौजर देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में वैज्ञानिक थे. यह लेख दमयंती दत्ता के साथ उनकी बातचीत पर आधारित)

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