फिल्म सिलसिला में कुलभूषण खरबंदा जब अमिताभ बच्चन से कहते हैं कि उनकी बहन उन्हें देवता समझती है, तो अमिताभ समझाते हैं कि वो एक इंसान हैं और उन्हें देवता समझना भूल होगी .
ऐसी ही अपेक्षाएं अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी से भी हैं. पूछने पर शायद केजरीवाल भी वैसी ही बात कहें. आखिर केजरीवाल भी नेता हैं - और राजनीति में क्या नहीं चलता . वैसे जिसे 'आदर्श' स्थिति कहते हैं, इस दुनिया में है भी क्या?
स्टिंग से मिला क्या, मिलेगा भी क्या ?
ज्यादा दिन नहीं हुए. एक साहब पूरी प्रेस कांफ्रेंस में एक पेन ड्राइव लहराते रहे - और दावा करते रहे कि उनके पास 'स्टिंग' है. बाद में किसी ने एक टेप पेश किया. इसमें केजरीवाल
के मुंह से 'कमीने' और 'कमीनापंथी' जैसी बातें सुनने को मिलीं. टेप सही है या झूठा, ये जांच-पड़ताल का विषय है. इस टेप में ये भी कहते हुए सुना गया कि 'ये' लोग दूसरी जगह
होते तो 'लात मार के' निकाल दिया गया होता.
जो शख्स खुद लोगों के स्टिंग करने के लिए प्रोत्साहित करता हो, उसके स्टिंग में किसी को आखिर किसी को मिलेगा भी तो क्या?
'संसद हत्यारों, बलात्कारियों और डकैतों से भरी पड़ी है.' ये कोई फिल्मी डायलॉग नहीं है. अरविंद केजरीवाल ने एक रैली में ये बात कही थी जिस पर संसद में काफी हो-हल्ला मचा. तमाम सांसद जी भर के बोले और आखिर में एक चेतावनी के साथ इतिश्री कर ली.
जो व्यक्ति खुलेआम ये बात कह रहा हो उसके स्टिंग में क्या प्रवचन सुनने को मिलेगा? अगर दूसरे नेताओं के ऐसे टेप सुनाने पड़ें तो 'शब्द' के मुकाबले 'बीप' ही ज्यादा सुनने को मिलेंगे.
आखिर केजरीवाल का क्या कसूर?
महत्वाकांक्षा रखना कोई बुरी बात तो है नहीं. केजरीवाल की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा रही होगी. उसे पूरा करने के लिए उन्होंने एक नई राह चुनी. अच्छी अच्छी बातें की. जो लोग
सुनना चाहते थे. जब देखा कि इमेज खराब हो गई तो माफी भी मांग ली. जितनी बार माफी नहीं मांगी होगी उससे ज्यादा दिल्लीवालों ने तोहफे में सीटें बख्श दीं.
अगर राजनीतिक महत्वाकांक्षा हो तो किसी भी पार्टी में लंबे संघर्ष के बाद भी मंजिल मिलेगी या नहीं निश्चित नहीं है. बीजेपी में तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद पाकर मिसाल भी बने, कांग्रेस में तो मुश्किल ही नामुमकिन भी है [अगर नरसिम्हाराव के कार्यकाल को छोड़ दें तो. वैसे भी कांग्रेस उसका जिक्र करने से भी बचती है]. केजरीवाल के पास एक धांसू आइडिया था. जब उन्हें लगा कि 'मौका भी है और दस्तूर भी' तो उन्होंने उसे बाजार में उतारा और वो क्लिक कर गया.
अब कामयाबी के लिए अपनाए गए हथकंडे किसी को समझ में नहीं आ रहे तो इसमें केजरीवाल का क्या कसूर है भला?
बातें हैं, बातों का क्या ?
नया माल बेचने के लिए रास्ता भी तो नया ही चुनना पड़ता है. जिन बातों को लेकर केजरीवाल को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, ऐसे दावे इससे पहले नहीं हुए हैं क्या? कभी
किसी ने नारा दिया - 'गरीबी हटाओ'. लोगों को लगा बात में दम है - उसी बात पर वोट डाले, सरकार बनी, चली भी. गरीबी हट गई क्या? किसी ने उम्मीद दिलाई - 'अच्छे दिन
आएंगे'. दिन, महीने और अब साल भी बीतने को है. अच्छे दिन वाकई आ गये क्या?
ठीक उसी तरह केजरीवाल ने भी कहा - 'लोकपाल लाएंगे, भ्रष्टाचार मिटाएंगे'. लोगों को बातें अच्छी लगती हैं, इसलिए ये बातें भी लगीं. लोगों ने उन्हें सर-आंखों पर बिठाया. अब दिल्ली में लोकपाल लाना सिर्फ केजरीवाल के बस की बात है क्या? ये बात तो समझ में आनी चाहिए. अब इसमें केजरीवाल का दोष क्या है? और आम आदमी पार्टी के आंतरिक लोकपाल को कुछ सवाल पूछने के लिए हटा दिया जाना तो अलग मसला है. दोनों मसलों को जोड़ने कोई मतलब तो बनता नहीं?
जो 'यूज' हुआ उसे 'थ्रो' तो होना ही था
अगर कोई 'यूज एंड थ्रो' का आरोप लगाता है तो ये उसकी समस्या है केजरीवाल की तो कतई नहीं. जो खुद को 'यूज' करने का मौका देगा, उसे एक दिन 'थ्रो' तो होना ही है. आखिर
लोग किसी को 'यूज' करने का मौका देते ही क्यों हैं?
लोग कहते हैं कि केजरीवाल किसी की बात नहीं सुनते, सिर्फ मन की करते हैं. दिक्कत क्या है? अरे, केजरीवाल तो कामयाबी के रास्ते पर बढ़ते चले जा रहे हैं, अब उनके साथी उनसे अलग होकर या जैसे भी पीछे छूट जाते हैं तो वो कर भी क्या सकते हैं?
'ये तो होना ही था.' आप के शुरुआती उठापटक पर किरण बेदी का यही कमेंट था. ट्विटर पर इसके साथ ही उन्होंने लिखा, ‘बस समय और मुद्दे का सवाल था’ भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन में किरण बेदी तब तक केजरीवाल के साथ रहीं, जब तक उन्होंने राजनीतिक फोरम की बात नहीं की थी.
अब तुलना करें तो आम आदमी पार्टी में मचा घमासान फिल्मी तो नहीं, लेकिन किसी टीवी सोप से कम भी नहीं है. क्या अरविंद केजरीवाल कोई देवता हैं? क्या केजरीवाल इंसान नहीं हैं? आखिर केजरीवाल से ऐसी अपेक्षा क्यों है? केजरीवाल भी तो उसी सियासी हम्माम में कूदे हैं.