आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने अपने दो दिनों के असफल आंदोलन में काफी कुछ खो दिया. उनका उग्र और अड़ियल रवैया आम शांति पसंद नागरिकों को रास नहीं आया. तीन पुलिस कर्मियों के निलंबन को लेकर वह जिस बचकानी जिद की हद तक चले गए उसकी मिसाल नहीं मिलती. वह जिस तरह से अपने को अराजक और न जाने क्या-क्या घोषित कर रहे थे, उससे लग रहा था कि वह लोकतंत्र का सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए हैं. लाखों लोगों को बुलाकर राजपथ को भर देने का उनका दावा उनके अहंकार का एक नमूना भर था. उनकी पार्टी के इस आंदोलन से दो दिनों तक आम आदमी को कितनी परेशानी हुई, उसका शायद उन्हें अंदाजा नहीं है और इस पूरी प्रक्रिया में उनसे सहानुभूति रखने वालों का एक बड़ा तबका दूर हो गया क्योंकि वे उनसे अपनी परेशानियों का छुटाकारा चाहते थे लेकिन उन्होंने उनकी परेशानी बढ़ा दी.
बहरहाल यह आंदोलन एक छोटे से आश्वासन के बाद खत्म हो गया है और दिल्ली वालों की जिंदगी फिर से पटरी पर आ गई है. लेकिन यह कई सवाल खडे़ कर गई. सबसे बड़ा सवाल तो यह उठा कि आखिर वे अपने मंत्री को बचाने के लिए इस हद तक क्यों गए? उनके मंत्री ने जो पेशे से वकील हैं, एक महिला की आधी रात गिरफ्तारी के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया और वह भी महज संदेह के आधार पर.
पुलिसकर्मियों के खिलाफ मोर्चा खोलकर अरविंद केजरीवाल ने वह सहानुभूति भी खो दी जो उन्हें ड्यूटी पर मारे गए एक पुलिसकर्मी के परिवार को एक करोड़ रुपये की मुआवजा राशि देकर बटोरी थी. उनकी पार्टी के कार्यकर्ता सारे समय पुलिस वालों के खिलाफ नारे लगाते दिखे. क्या केजरीवाल यह भूल गए थे कि दिल्ली पुलिस राज्य सरकार के अधीन नहीं है और पूर्व सीएम शीला दीक्षित पार्टी में बेहद शक्तिशाली होते हुए भी निर्भया कांड के बाद तत्कालीन कमिश्नर नीरज कुमार को हटवा नहीं पाईं. अगर वह दिल्ली पुलिस को राज्य सरकार के अंदर लाना चाहते हैं तो उन्हें संसद से अनुमति लेनी होगी और यह बेहद कठिन है. हांलाकि यह भी हैरानी की बात है कि राज्य की पुलिस राज्य सरकार के हाथ में नहीं है ठीक वैसे ही यहां की ज़मीन स्थानीय सरकार के हाथ में नहीं है.
अब यह आंदोलन केजरीवाल को भारी पड़ेगा भले ही उनके समर्थक उनके साथ खड़े हों लेकिन जिस तरह से यह सारा कुछ हुआ, इतना हंगामा और शोर मचा कि तटस्थ नागरिक पार्टी के बारे में सोचने पर विवश हो गए. यह पार्टी अभी शैशव अवस्था में है और इसके लिए जरूरी है कि वह ऐसे कदम उठाएं, जिससे उसके बारे में जनता की राय वैसी ही रहे जैसी शुरू में थी. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अराजकता के लिए कोई जगह नहीं है. प्रशासन कैसे चलता है, केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं तो फिर वह एक अराजक नेता की तरह क्यों व्यवहार करने लगे? अगर उन्हें लंबी पारी खेलनी है तो सबसे पहले उन वादों की तरफ ध्यान देना होगा जो उन्होंने जनता से किए थे. उन्हें भूलकर इधर-उधर की बातें करना उनके विवेक पर सवाल खड़ा करेगा और पार्टी जय से क्षय की ओर चली जाएगी.
(मधुरेंद्र प्रसाद सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और हमारे संपादकीय सलाहकार हैं)