हरियाणा के एक गांव में एक बन्दर आ गया. लोग बन्दर को भगाने लगे, तो बन्दर पेड़ पर चढ़ बैठा. फिर क्या था, सारे गांव के लोग नीचे जमा हो गए और लगे पत्थर फेंकने. ताऊ वहां से गुज़र रहे थे. उन्होंने पूछा कि रै बावली बूच, इब की होन लग्गा रै? सबने कहा ताऊ हम बन्दर भगा रहे हैं. ताऊ ने पूछा: बन्दर की साइड कौन है? भीड़ में से एक ने कहा: कती कोई नहीं. ताऊ बोल्या: तो चल. मैं हूं बन्दर की साइड. पहले म्हारे से निपट.
ये कहानी सब हिन्दुस्तानी ताउओं की कहानी है. समाज को नेतृत्व देने वाले बुजुर्गों का सच. निरीह, अकेले और कमज़ोर के साथ खड़ा होना हमारी संस्कृति का अंग था. अंडरडॉग को टॉपडॉग देखने का सपना. मजबूत खलनायक के सामने कमज़ोर नायक के लिए ताली बजाना. गड्ढे में फंसे जानवर को भी निकालना, गिरते को संभालना. संवेदना का यह अंश अब अंश भर रह गया है.
हारे को हरिनाम नहीं है. सब को कुटे को कूटने की पड़ी है. दबे को दबाने की. इतना कुछ गलत हुआ कि माफ़ करने की आदत नहीं रही. कोई सड़क पर पिट रहा हो, तो कई बिला वजह हाथ साफ़ कर बिला जाते हैं. घर और दफ्तर का गुस्सा निकाल आते हैं. किसी ने गलती की, तो सब हाथ धोकर पीछे पड़ जाते हैं, मौका मिले तो चढ़ जाते हैं.
जात-पात हो या सांप्रदायिक दंगे, कमज़ोर पर बेदिल पिल पड़ते हैं. किसी की गाड़ी से टक्कर लग गई, तो गाड़ी वाले को अधमरा कर देते हैं. सही-गलत के पीछे माथा कौन लगाए जब तक माथा किसी और का हो और पत्थर हमारा.
नरेन्द्र मोदी ने विक्रमशिला को तक्षशिला क्या बोल दिया, किसी ने नहीं माना कि जुबान फिसली होगी. आम राय में मोदी को इतिहास नहीं आता. या फिर फेंकने वाला है. कुछ भी बोल जाता है. इंसान खता का पुतला है और इस पुतले पर कालिख पुतने का पूरा इंतजाम है. आसाराम जब तक बाहर थे, तब तक संत थे. अन्दर गए हैं तो लक्ख लानत भेड़ा जड़िया हल. हर आदमी का अपना दिमाग है, पर भीड़ का नहीं होता. मॉब की मेंटालिटी होती है. हर जुर्म पर फांसी की मांग पर ज्यादा लोग सर हां में हिलाते हैं. कुछ लोग तो यह भी कहते पाए जाते हैं कि चोरों के हाथ काट देने चाहिए. जो बच गया वो सयाना है, हाथ नहीं आना है. जो पकड़ा गया, उसका उदाहरण बनाना है. उदाहरण नहीं बन सकता, तो छवि तो बना ही सकते हैं.
जैसे मोदी को इतिहास का ज्ञान नहीं है. हर शब्द लपकते हैं, विश्लेषकों के लार टपकते हैं, जब कोई आंकड़ा ऊपर-नीचे मिल जाए, या कोई तथ्य इधर-उधर हो जाए. जिनको इतिहास की इति नहीं आती, वह भी हास कर रहे हैं. अगर वही लेंस लेकर लालकृष्ण आडवानी के लब पढ़े जाएं, तो वहां भी ऐसे हीरे-मोती मिल जाएं. पर उनकी छवि अज्ञानी या फेंकू की नहीं है. उनकी गलती को गलती जान लेंगे, मोदी वही गलती करें, तो अज्ञानी मान लेंगे. राहुल गांधी कुंवारे रह जाएंगे, पर किसी विदेशी लड़की से शादी नहीं कर पाएंगे. जिनकी छवि ऐसी नहीं है, वह स्वतंत्र हैं. पर राहुल में विदेशी वाला स्टीकर चिपक जाएगा. मुलायम सिंह की छवि जातिवादी है. उन्होंने और उनके बच्चों ने अन्य जातियों में शादी रचाई पर उदारवादी छवि चस्पां नहीं कर पाए. यूपी का आदमी हिंदी गलत बोले, तो वह गलती है, तमिलनाडु वाला हिंदी गलत बोले, तो अज्ञानी. फ़्रांस का आदमी फ्रेंच लहजे में अंग्रेजी बोले, तो तो बहुत क्यूट, पर कोई बिहारी लहजे में अंग्रेजी बोल दे, तो उसको उच्चारण आता ही नहीं है. गोरे को सब माफ़, हमरा पत्ता साफ़.
प्रधानमंत्री कमज़ोर है. बीजेपी साम्प्रदायिक है. तेजपाल बलात्कारी है. लालू भ्रष्ट हैं. नीतीश दूध के धुले हैं. यूपीए चोरों की सरकार है. केजरीवाल ईमानदार है. मोदी निर्णायक हैं. अनु मलिक गायक हैं. हो सकता है ये सब इसी लायक हैं, पर कभी सोचा कि ऐसा नहीं भी हो. ये सब चित्र हमें बने-बनाए मिले, हमने बिठा लिए. सूचना क्रांति के इस युग में सूचनाएं इतनी हैं कि हमारा मस्तिष्क उसे प्रोसेस नहीं कर पाता. अपनी राय कायम करने के लिए प्रसंस्करण ज़रूरी है. वक़्त नहीं है तथ्यों को पकाने का, उसमें से राय बनाने का. पके पकाए राय हमें भी मिले, आप को भी. उसे आम राय कहते हैं. आम राय कहती है पत्थर फेंको, सो फेंकने लगते हैं. क्या फर्क पड़ता है?
फर्क पड़ता है अगर सच को साधें, दूसरों की राय अपनाने से पहले. ताऊ के इतना कहने भर से कि वह बन्दर के साथ हैं, लोगों के हाथों से पत्थर छूट गए. ताऊ पर पत्थर कौन मार पाता? लोग अपने-अपने घर गए, इस एहसास के साथ कि बन्दर बेगुनाह था. हम क्यों उसे मारने पर आतुर थे? और ये भी कि ये सवाल भीड़ का हिस्सा बनने से पहले क्यूं नहीं आया. हमसे भीड़ है, भीड़ से हम नहीं.