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बहुत जलते थे हम तुमसे खुशवंत!

तुम इकलौते ऐसे बुड्ढे हो, जिससे मुझे जलन हुई. रोज शाम को सिंगल मॉल्ट स्कॉच पीकर सोते. जो अप्वाइंटमेंट लेकर आता, बस उसी से मिलते. पीएम के डिनर पर भी नहीं जाते क्योंकि वो तुम्हारे टाइम टेबल में फिट नहीं होता. हर वक्त खूबसूरत औरतों की वाहवाही से घिरे रहते. तुम्हारे पास सुनाने के लिए पूरी दुनिया के रसीले किस्से होते. गजलें, शेर, रुबाइयां तुम्हारी जीभ से लार की तरह बेतरह बहतीं. लोग तुमसे नफरत करते, प्यार करते, मगर कोई ये नहीं कहता, खुशवंत सिंह वो कौन है. यूं गुमनाम हो मर जाना ही तो हम सबका सबसे बड़ा डर होता है. और तुम उससे पार थे.

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लेखक खुशवंत सिंह का निधन
लेखक खुशवंत सिंह का निधन

तुम इकलौते ऐसे बुड्ढे हो, जिससे मुझे जलन हुई. रोज शाम को सिंगल मॉल्ट स्कॉच पीकर सोते. जो अप्वाइंटमेंट लेकर आता, बस उसी से मिलते. पीएम के डिनर पर भी नहीं जाते क्योंकि वो तुम्हारे टाइम टेबल में फिट नहीं होता. हर वक्त खूबसूरत औरतों की वाहवाही से घिरे रहते. तुम्हारे पास सुनाने के लिए पूरी दुनिया के रसीले किस्से होते. गजलें, शेर, रुबाइयां तुम्हारी जीभ से लार की तरह बेतरह बहतीं. लोग तुमसे नफरत करते, प्यार करते, मगर कोई ये नहीं कहता, खुशवंत सिंह वो कौन है. यूं गुमनाम हो मर जाना ही तो हम सबका सबसे बड़ा डर होता है. और तुम उससे पार थे.

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मुझे पता है कि इस वक्त तुम अपने रात के पैग की तैयारी में लगे होगे. क्रिस्टल कट ग्लास में हल्की खुशबू छोड़ती स्मूद स्कॉच. जिसके दम पर अगली रोज तुम हाजत के फेर से फारिग होगे. लोग मातम मना रहे हैं. मगर मैं ये नहीं करूंगा. तुम चुटकुलेबाज हो. तुम्हें किस्से पसंद हैं. तो आज मैं तुम्हें किस्से सुनाऊंगा. खुशवंत सिंह के किस्से. कैसे तुम एक बेगैरत, बेबाक, बदचलन मगर बेसाख्ता मुंह से लगी मेहबूबा की तरह मेरी जिंदगी में आए और इसे हमेशा के लिए बदल गए. सुनो और सुकून से सो जाओ. सुबह उठकर तुम्हें फिर कुछ लिखना है. यहां नहीं तो किसी और दुनिया में सही. क्योंकि उसके बिना न तो यहां सुजान सिंह पार्क में सुबह होगी और न वहां.

संघ के स्कूल में पढ़ता था और दैनिक जागरण पढ़ता था. यानी सब कुछ संस्कारी दिखता था. सिवाय उस रोज के, जिस रोज तुम्हारा कॉलम हिंदी में छपता. तुम कभी किसी औरत का, तो कभी किसी किताब का जिक्र करते. फिर आखिर में बताते कि पंढरपुर से मिस पदमा ने ये पाद जोक भेजा है, जो तुम्हें पसंद आया. फिर चेप देते वह जोक भी. हम हैरानी से भर जाते. कितना बदमाश सरदार है ये. यूं सरेआम अखबार में कोई ये सब लिखता है. मगर तुम लिखते. तुम लिखते और हमें लगता कि जैसे कोई अय्याश सीली रात में अपने किस्से बता हमें जवान कर रहा है. पर तुम बस इतने ही नहीं हो खुशवंत.

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एक बार उरई से लखनऊ जा रहा था. सफर लंबा लगता था तब. ट्रेन दक्षिण भारत से आ रही थी. कुछ चूड़ी कारोबारी सवार थे. उनके हाथ में पत्ते थे और बगल में एक नॉवेल रखा था. मैंने नॉवेल मांग लिया. शीर्षक था औरतें. नीचे तुम्हारी चश्मे के पीछे से छिपी आंखें और लाल पगड़ी नजर आई. पढ़ने लगा. कान लाल होने लगे. लगा कि जैसे सरेआम मस्तराम पढ़ रहे हैं. ये एक आदमी की कहानी थी, जो अखबार में इश्तेहार दे औरतों को साथ रहने बुलाता था. जीवनसाथी की तरह नहीं, बस साथी की तरह. और मजे भी करता था. लगा कि यार क्या लाइफ है. किशोरवय में सोच इसके पार जा भी कहां पाती है खुशवंत. तो उस दिन लगा कि इस बुड्ढे की रंगीन कहानियां खोज खोजकर पढ़ी जानी चाहिए.

पढ़ीं, मगर जैसे-जैसे पढ़ीं, तुम्हारे बारे में राय बदलती गई. एक नॉवेल पढ़ा दिल्ली आने के बाद. दिल्ली के नाम से. एक हिजड़ा है, तुम हो और ये शहर है. हजारों खंडहरों पर बसा, फिर खंडहर हो जाने को. फिर बस जाने को. तुमने क्या कमाल किस्सागोई के साथ इसका इतिहास सुनाया. बाद में जब कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान पढ़ा, तो यही शैली वहां नजर आई. अकसर यारों से कहता, इतिहास गर ऐसे लिखा जाए तो क्यों दूर भागे कोई.

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और हां, यहां भी तुम्हारा सेक्स का तड़का मौजूद था. थोड़ी घिन भी आई. जिस तरीके से तुम उस हिजड़े के खून, सूखे होठों और भरी नकली छातियों का जिक्र करते. पर फिर सोचा, कोई मिल्स एंड बून्स थोड़े ही पढ़ रहे हैं. जिसमें नायक और नायिका हमेशा चमकीली फैशन मैगजीन से किस्से में उतरते हों.

उसके बाद पढ़े तुम्हारे पत्रकारिता के दिनों के किस्से. शुरुआती दिनों के किस्से. जब तुम्हारे पिता सर शोभा सिंह दिल्ली बना रहे थे. और तुम सबसे बड़े ठेकेदार के बेटे, मॉर्डन स्कूल में पढ़ रहे थे श्रीराम समूह जैसे कई रईस घरानों के बालकों के साथ. तुम मुंबई गए. लंदन का जहाज पकड़ने. मगर उसके पहले एक वेश्या के यहां गए. कैसा भौंडा वर्णन किया तुमने. मगर ये भौंडा नहीं सच्चा था.

हम मध्यवर्गीय मर्यादा में घिरे रहे. तुम हर बीतते दिन के साथ बेबाक सच्चे होते रहे. तुमने हमें नेहरू, मेनन, प्रोतिमा बेदी, अमृता शेरगिल, नरगिस दत्त समेत कितनों के कितने कितने जिंदा किस्से सुनाए. मुंबई और दिल्ली की पत्रकारिता बताई. सब तुम्हें इंदिरा गांधी का पिट्ठू कहते. हो सकता है तुम रहे हो. पर उस वक्त पर तुम्हारा लिखा तस्वीर का एक हिस्सा तो काफी साफ ढंग से दिखाता ही है. पंजाब की समस्या पर मार्क टली की किताब के साथ-साथ मैं तुम्हारी किताब भी जरूर रिकमंड करता हूं.

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और वो जो जनरल जिया उल हक का इंटरव्यू. क्या मजा दिया सरदार तुमने. उसे पता भी नहीं था कि तुम्हें अरबी भाषा आती है. कि तुमने कुरान पढ़ा है. आयत पढ़ ली और फिर उसका मतलब पूछ जिया को फंसा दिया. मूंछें ऐंठने वाले उस बदमाश पाकिस्तानी को तुमने चकित किया और हम ब्याज में चकित हो गए.

आखिर आखिर तक तुम साहित्य, राजनीति, समाज, सब पर लिखते रहे. अपनी श्रद्धांजलि भी लिखी और उसके बाद बरसों जिए भी. उस लिखे को ठेंगा दिखाते हुए. हरकतों से फिर भी बाज नहीं आए. आखिरी उपन्यास सनसेट क्लब में भी सेक्स घुसेड़ ही दिया. मुस्लिम बुजुर्ग को नौकरानी से मजे करवा ही दिए.

मजा, हां ये एक सही शब्द हो सकता है तुम्हें समझने का. पर नहीं. मैं फिर गलत हूं. मजे के पैमाने पर तो तुम्हें ज्यादातर हिंदुस्तान ने मापा है. एक सरदार, जो कुंठित है. जो सेक्स, औरतें और शराब के बारे में लिखता है और फिर भी मशहूर हुआ जाता है. एक बददिमाग बुड्ढा, जो हमेशा सत्ता के गलियारों में पूछा जाता रहा. ये खुशवंत सिंह नहीं है.

तो फिर क्या है. मुझे इस वक्त सुजान सिंह पार्क में सुबह के वक्त लैंप जलाकर जपुजी साहब का अंग्रेजी अनुवाद करता खुशवंत नजर आ रहा है. जब तमाम कथित सुखी, शराबी, शबाबी लोग खर्राटे मार रहे थे. तुम सुबह किताबें पढ़ रहे थे. लिख रहे थे. जब तमाम लोग नींद का दूसरा राउंड लगा रहे थे. तुम अपने कुत्ते के साथ अलमस्त लोदी गार्डन में टहल रहे थे. जब हम अखबार पढ़ रहे थे, तुम जरूरी चिट्ठी पत्री और मेल पढ़ सुन रहे थे. जब तमाम धुरंधर अपने घरों में दुबके थे, तुम भिंडरावाले को खुलेआम कोस रहे थे. और जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हर सरदार अपनी देशभक्ति का इश्तेहार माथे पर टांगने को मजबूर था, तुम तब भी बदगुमान स्टेट की ऐसी तैसी करने में लगे थे.

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तुम एक ऐसे बहरूपिए हो, जिसने बाहर वालों को बहलाने के लिए एक इमेज बन जाने दी. और फिर भीतर एकांत की ज्ञान साधना में लग गए. सिखों का क्या शानदार इतिहास लिखा तुमने. धर्म ग्रंथों की कितनी मौजूं टीका लिखी. साठ, सत्तर और अस्सी के दशक के समय पर कितने लाजवाब किस्से मुहैया कराए. पर हम तो भटके हुए थे बाहर के खुशवंत में. हमें तो बस उन औरतों के नाम पढ़ने में मजा आता था, जो तुम्हें घेरे रहती थीं. जो तुम्हारी मुरीद थीं. और हम सोचते थे कि तुम उनके साथ खूब मजे मारते होगे.

हम गलत थे खुशवंत. शायद अब बीतते वक्त के साथ तुम्हारी रसभरी कहानियों के अलावा वह गंभीर चीजें भी पढ़ी जाएं. जिन्हें तुमने बहुत बहुत मेहनत से लिखा है. हम पढ़ें और ढकोसलों को लात मार खूब ईमानदार बनें. कुंठा रहित बनें तुम्हारी तरह. तब हमें खुशवंत सिंह सेक्स वाला राइटर नहीं लगेगा.

अभी आखिर में एक किस्सा याद आ रहा है. वैसे तो बहुत हैं. सुलभ इंटरनेशनल का कार्यक्रम था. तुम्हें ईमानदार आदमी का इनाम मिला था. साथ में 25 लाख रुपये भी. मंच पर तुम बोले. इनाम इतना ज्यादा न होता, तो शायद न आता यहां.

हमें यही चाहिए. बेखौफ बेलौस सच. तुम चले गए हो, पर पीछे जो किस्सों का तिलिस्म छोड़ गए हो. उसमें फंस तमाम लोग रोशनी खोज ही लेंगे.

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खुश रहो खुशवंत. लिखो. पढ़ो. पिओ, जिओ. और हां, चुटकुले सुनाकर भगवान की बोरियत भी दूर करो.

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