पूर्व आईपीएस अधिकारी और दिल्ली चुनाव में बीजेपी की सीएम उम्मीदवार रहीं किरण बेदी का मानना है कि वे फतवे की वजह से हार गईं. इसकी शिकायत उन्होंने चुनाव आयोग से की है. इसे आप क्या कहेंगे- खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे, या अहमद बुखारी का मान बढ़ाना.
यह तो माना जा सकता है कि हार की कसक में कोई कुछ भी बोल सकता है, लिहाजा यह मान लिया जाए कि उन्होंने दिल्ली की सबसे बड़ी मस्जिद के विवादास्पद इमाम बुखारी का मान बढ़ाया है. बुखारी ने आम आदमी पार्टी को वोट देने की अपील की थी. पार्टी ने साफ तौर पर उनका समर्थन लेने से इनकार कर दिया था और विवादास्पद इमाम की अपील पर खुद मुसलमान भी दंग रह गए थे.
इमामों का काम है मस्जिद में नमाज पढ़ाना और खाली वक्त में वहीं के मकतब में बच्चों को उर्दू और धार्मिक शिक्षा देना. मस्जिद की स्थानीय कमेटियों ने इमामों-मुअज्जिनों की सैलरी तय कर रखी है, जिससे किसी तरह उनका घर चल जाता है. ज्यादातर इस्लामी देशों में भी उन्हें सिर्फ नमाज पढ़ाने तक सीमित रखा गया है. सऊदी अरब की दो बड़ी मस्जिदों के इमाम भी कोई अपवाद नहीं हैं. इमाम मस्जिद में क्या बोलेंगे और नहीं बोलेंगे इसके लिए भी कभी-कभी सरकारें दिशा निर्देश देती हैं, जैसा कि मिस्र में हो चुका है. लिहाजा, इमाम का काम सीमित है. समुदाय के ज्यादातर लोगों को इसमें तनिक संदेह नहीं है.
फिर इमाम बुखारी की इतनी अहमियत कैसे? बेदी जैसी नेताओं ने हमेशा से बुखारी का मान बढ़ाया है. मीडिया में कट्टर हिंदू नेताओं के बयान को बराबर करने के लिए बुखारी को नेता बनाया, ताकि यह कहा जा सके कि एक तरफ प्रवीण तोगडिय़ा, साक्षी महाराज या योगी आदित्यनाथ हैं तो दूसरी ओर बुखारी हैं, बात बराबर हो गई. दरअसल, बात बराबर नहीं हुई क्योंकि तोगडिय़ा, साक्षी या आदित्यनाथ का जनाधार हो सकता है, पर बुखारी का कतई नहीं है. वैसे, बुखारी खुद को 'इमाम-ए-हिंद’ (हिंदुस्तान का लीडर) साबित करने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन अल्लामा इकबाल ने यह दर्जा बहुत पहले भगवान राम को दे दिया था, और उनकी जगह इस मुल्क में कोई नहीं ले सकता. बुखारी का इतना भी जनाधार नहीं है कि वे अपने इलाके में किसी विधायक को जिता सकें. जामा मस्जिद इलाके में रहने वाली शीबा असलम फलाही या समाजवादी पार्टी नेता आजम खान समेत कई लोग इसकी तस्दीक कर सकते हैं. यह स्थिति पिछले दो दशक से ज्यादा से है. वे बीजेपी समेत लगभग हर पार्टी के पह्न और विरोध में अपील कर चुके हैं.
हकीकत तो यह है कि समुदाय के लोगों पर बुखारी की सियासी अपील का उलटा असर होता है. उन्हें लगने लगता है कि बुखारी फिर किसी से मिल गए हैं और समुदाय का सौदा कर लेंगे. ऐसे में यह भी तो हो सकता है कि बुखारी के बयान से किरण बेदी के वोट बढ़ गए हों. लेकिन बेदी ने अपने बयान से बुखारी का मान बढ़ा दिया. वैसे, उन्होंने एक सही मुद्दा उठाया है- इमामों की सियासी अपील पर रोक लगनी चाहिए. साथ ही, बाबाओं, संतों, धर्म गुरुओं आदि को भी ऐसा करने से रोकना चाहिए. यह बाबा राम रहीम और बाबा रामदेव पर भी लागू होता है.