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जितना आप जानते हैं, उससे कहीं ज्यादा है यूनिफॉर्म सिविल कोड

वैसे तो 2014 लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के घोषणा पत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा भी शामिल था लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने जिस तरह से इस पर जमी धूल को साफ करने की कोशिश की है, उससे सवाल भी खड़े होते हैं और विवाद भी.

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सभी धर्मों के लोगों को एक कानून के तहत लाने की कोशिश है यूनिफॉर्म सिविल कोड
सभी धर्मों के लोगों को एक कानून के तहत लाने की कोशिश है यूनिफॉर्म सिविल कोड

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देश में एक बार फिर समान नागरिक संहिता को लेकर बहस शुरू हो गई है. यह चर्चा ऐसे समय में हो रही है जब आगे यूपी और चार अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. कानून मंत्रालय ने बकायदा लॉ कमिशन को चिट्ठी लिखकर देश में समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने को लेकर राय मांगी है.

उत्तर प्रदेश की सियासत में ला सकता है तूफान
वैसे तो 2014 लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के घोषणा पत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा भी शामिल था, लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने जिस तरह से इस पर जमी धूल को साफ करने की कोशिश की है, उससे सवाल भी खड़े होते हैं और विवाद भी. इस मुद्दे पर मुस्लिम समुदाय की तरफ से विरोध तय माना जा रहा है. कुछ संगठनों ने इसे वोट बैंक की राजनीति के लिए बीजेपी का नया पैंतरा भी बताया है. इसे यूपी में हिंदुओं के ध्रुवीकरण के मकसद से उछाला गया मुद्दा भी माना जा रहा है.

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उठती रही हैं विरोध की आवाजें
ऐसा पहली बार नहीं है जब देश में हर समुदाय के लिए एक जैसा कानून और नियम लाने की बात और उस पर विरोध हुआ हो. जब-जब इस नियम की चर्चा किसी भी सरकार या पार्टी ने छेड़ी है, अलग-अलग तबकों से विरोध की तलवारें चली हैं. 1951 में भी जब बीआर अंबेडकर और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू समाज के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश की तो न सिर्फ इसके खिलाफ आवाजें उठीं, बल्कि सिर्फ एक धर्म विशेष के लिए ऐसा कानून लाने पर सवाल उठाए. इसके अलावा कॉमन सिविल कोड को लेकर विवाद पहले भी गरमा चुके हैं.

यूनिफॉर्म सिविल कोड आखिर है क्या?
यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है देश में हर नागरिक के लिए एक समान कानून का होना. फिर भले ही वो किसी भी धर्म या जाति से ताल्लुक क्यों न रखता हो. फिलहाल देश में अलग-अलग मजहबों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से हर मजहब के लिए एक जैसा कानून आ जाएगा. यानी मुस्लमानों को भी तीन शादियां करने और पत्नी को महज तीन बार तलाक बोले देने से रिश्ता खत्म कर देने वाली परंपरा खत्म हो जाएगी.

इतना ही नहीं महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे. जब-जब सिविल कोड को लेकर बहस छिड़ी है, विरोधियों ने यही कहा है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है. समान नागरिक संहिता का मतलब हर धर्म के पर्सनल लॉ में एकरूपता लाना है. इसके तहत हर धर्म के कानूनों में सुधार और एकरूपता लाने पर काम होगा. यूनियन सिविल कोड का अर्थ एक निष्पक्ष कानून है, जिसका किसी धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है.

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क्यों है जरूरी?
- विभिन्न धर्मों के विभिन्न कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है. कॉमन सिविल कोड आ जाने से इस मुश्किल से निजात मिलेगी और न्यायालयों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के निपटारे जल्द होंगे.
- सभी के लिए कानून में एकसमानता से एकता को बढ़ावा मिलेगा और इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जहां हर नागरिक समान हो, उस देश विकास तेजी से होता है.
- मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी.
- भारत की छवि एक धर्मनिरपेक्ष देश की है. ऐसे में कानून और धर्म का एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए. सभी लोगों के साथ धर्म से परे जाकर समान व्यवहार होना जरूरी है.
- हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से राजनीति में भी बदलाव आएगा या यू कहें कि वोट बैंक और ध्रुवीकरण की राजनीति पर लगाम लगेगी.

क्या छिन जाएगा लोगों का धार्मिक अधिकार?
ऐसा नहीं है कि समान नागरिक संहिता लागू होने से लोगों को अपनी धार्मिक मान्यताओं को मानने का अधिकार छिन जाएगा. संविधान के अनुच्छेद 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड का पक्ष लिया गया है, लेकिन ये डायरेक्टिव प्रिंसपल हैं. यानी इसे लागू करना या न करना पूरी तरह से सरकार पर निर्भर करता है. गोवा में कॉमन सिविल कोड लागू है. दूसरी तरफ संविधान के अनुच्छेद 25 और 29 कहती हैं कि किसी भी वर्ग को अपनी धार्मिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों को मानने की पूरी आजादी है. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो जाने से हर धर्म के लोगों को सिर्फ समान कानून के दायरे में लाया जाएगा, जिसके तहत शादी, तलाक, प्रॉपर्टी और गोद लेने जैसे मामले शामिल होंगे. ये लोगों को कानूनी आधार पर मजबूत बनाएगा.

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हिंदू पर्सनल लॉ
हिंदुओं के लिए भारत में हिंदू कोड बिल लाया गया. देश में जबरदस्त विरोध के बाद इस बिल को चार हिस्सों में बांट दिया गया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे हिंदू मैरिज एक्ट (Hindu Marriage Act), हिंदू सक्सेशन एक्ट (Hindu Succession Act), हिंदू एडोप्शन एंड मैंटेनेंस एक्ट (Hindu Adoption and Maintenance Act) और हिंदू माइनोरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट (Hindu Minority and Guardianship Act) में बांट दिया था. इस कानून ने महिलाओं को सीधे तौर पर सशक्त बनाया. इनके तहत महिलाओं को पैतृक और पति की संपत्ति में अधिकार मिलता है. इसके अलावा अलग-अलग जातियों के लोगों को एक-दूसरे से शादी करने का अधिकार है लेकिन कोई व्यक्ति एक शादी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकता.

मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या कहता है
मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत एक पति अपनी पत्नी को महज तीन बार तलाक कहकर तलाक दे सकता है. अगर ये दोनों फिर से शादी करना चाहते हैं तो महिला को पहले किसी और पुरुष के साथ शादी रचानी होगी, उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने होंगे और उससे तलाक लेने के बाद ही वो पहले पति से फिर शादी कर सकती है. इस लॉ में महिलाओं को तलाक के बाद पति से किसी तरह के गुजारे भत्ते या संपत्ति पर अधिकार नहीं दिया गया है बल्कि मेहर अदायगी का नियम है. तलाक लेने के बाद मुस्लिम पुरुष तुरंत शादी कर सकता है लेकिन महिला को 4 महीने 10 दिन का इंतजार करना पड़ता है.

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ईसाईयों का पर्सनल लॉ महिलाओं के खिलाफ
ईसाइयों के पर्सनल कानून में दो बातें अहम हैं. एक शादीशुदा जोड़े को तलाक के लिए दो साल तक अलग रहना जरूरी होता है. इसके अलावा लड़की का मां की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता.

देश में कुछ ऐसे कानूनी मामले भी हुए हैं, जो न सिर्फ सीधे तौर पर सिविल कोड से ताल्लुक रखते हैं बल्कि इसकी जरूरत का अहसास भी कराते हैंः

शाह बानो केस अहम
ये एक ऐसा मामला था, जिसने देश की राजनीति में बड़ा भूचाल ला दिया था. इस केस में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए राजीव गांधी सरकार मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 लेकर आई. 1978 में इंदौर की रहने वाली 62 साल की मुस्लिम महिला शाह बानो को उसके पति ने तलाक दे दिया था. 5 बच्चों की बुजुर्ग मां ने गुजारा भत्ता पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने उसके हक में फैसला सुनाया. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले का विरोध किया तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार नया अधिनियम लेकर आई, जिससे केस जीतने के बावजूद शाह बानो को उसका हक नहीं मिल सका. इस केस ने देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर सवाल खड़े कर दिए थे.

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90 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम महिलाएं ट्रिपल तलाक के विरोध में
पिछले कुछ समय में खत, ई-मेल, मैसेज, वॉट्सऐप और स्काइप के जरिए मुस्लिम महिलाओं को तलाक देने के कई मामले सामने आए हैं. जाहिर है, विकसित हो रहे समाज में महिलाओं की स्थिति आज भी घर की दहलीज के अंदर इससे अनछुई है. पिछले साल हुए एक सर्वे में भारत की 92 फीसदी मुस्लिम महिलाओं ने ट्रिपल तलाक की परंपरा को खत्म करने का समर्थन किया था. मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के लिए काम कर रहे एनजीओ भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की तरफ से ये सर्वे उन महिलाओं पर किया गया था, जो आर्थिक रूप से कमजोर थी, 18 की कम उम्र से पहले शादी कर चुकी थी और घरेलू हिंसा का शिकार थी. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से ऐसी महिलाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर फायदा मिलेगा.

शाह बानो के बाद शायरा बानो को भी 'तलाक-तलाक-तलाक'
उत्तराखंड की रहने वाली शायरा बानो की शादी 2002 में हुई थी और 2015 में पति ने उसे तलाक दे दिया. शायरा ने भी शाह बानो की तरह न्याय की उम्मीद में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और मुस्लिम पर्सनल लॉ में एकतरफा तलाक और पुरुषों के शादीशुदा होने के बावजूद दूसरी शादी करने के अधिकार को चुनौती दी. उसने पति से गुजारे भत्ते और बच्चों की कस्टडी की मांग की है. हालांकि इस केस में भी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फिर अडंगा डाला है और ये कहते हुए विरोधी पक्ष बना है कि वो इस प्रथा में किसी तरह का बदलाव नहीं होने देगा.

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राज्यसभा में बीजेपी के पास बहुमत नहीं
केंद्र सरकार ने इस मुद्दे को उठा तो दिया है लेकिन वो इसे लागू कैसे करा पाएगी, ये एक बड़ा सवाल है. दरअसल बीजेपी के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, ऐसे में अगर इसे लोकसभा में पास करा भी लिया जाता है तो वो इसे संसद के उच्च सदन में पारित कैसे करा पाएगी. या तो वो बाकी पार्टियों को विश्वास में लेकर इसके लिए मना ले वरना उसे भी 1951 में हिंदू कोड बिल को लेकर अड़े नेहरू की तरह इसे भी ठंडे बस्ते में डालना पड़ेगा. इसके अलावा मुस्लिम समुदाय के लोगों को विश्वास में लेना भी एक बड़ा मसला है.

इन देशों में लागू हो चुका है यूनिफॉर्म सिविल कोड
एक तरफ जहां भारत में सभी धर्मों को एक समान कानून के तहत लाने पर बहस जोरों पर है वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान और इजिप्ट जैसे कई देश इसे लागू कर चुके हैं.

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