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क्या है राफेल सौदा और क्या है इससे जुड़ा विवाद, यहां जानें सब कुछ

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस डील में पीएम मोदी पर घपले तक का आरोप लगाया है. आइए जानते हैं कैसे हुआ यह पूरा सौदा और क्या है इसमें विवाद...

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फ्रांस से राफेल विमान सौदे पर विवाद
फ्रांस से राफेल विमान सौदे पर विवाद

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राफेल विमान सौदे को लेकर कांग्रेस ने मोदी सरकार के खिलाफ हल्ला बोल दिया है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस डील में पीएम मोदी पर घपले तक का आरोप लगाया है. आइए जानते हैं कैसे हुआ यह पूरा सौदा और क्या है इसमें विवाद...

वायुसेना के लिए विमान थे जरूरी

वायु सेना को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए कम से कम 42 लडा़कू स्क्वाड्रंस की जरूरत थी, लेकिन उसकी वास्तविक क्षमता घटकर महज 34 स्क्वाड्रंस रह गई. इसलिए वायुसेना की मांग आने के बाद 126 लड़ाकू विमान खरीदने का सबसे पहले प्रस्ताव अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने रखा था. लेकिन इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया कांग्रेस सरकार ने. रक्षा खरीद परिषद, जिसके मुखिया तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटोनी थे, ने 126 एयरक्राफ्ट की खरीद को अगस्‍त 2007 में मंजूरी दी थी. यहां से ही बोली लगने की प्रक्रिया शुरू हुई. इसके बाद आखिरकार 126 विमानों की खरीद का आरएफपी जारी किया गया. राफेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये 3 हजार 800 किलोमीटर तक उड़ान भर सकता है.

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छह फाइटर में से चुना गया राफेल!

यह डील उस मीडियम मल्‍टी-रोल कॉम्‍बेट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसे रक्षा मंत्रालय की ओर से इंडियन एयरफोर्स (आईएएफ) लाइट कॉम्‍बेट एयरक्राफ्ट और सुखोई के बीच मौजूद अंतर को खत्‍म करने के मकसद से शुरू किया गया था. मीडिया खबरों के अकनुसार एमएमआरसीए के कॉम्पिटीशन में अमेरिका के बोइंग एफ/ए-18ई/एफ सुपर हॉरनेट, फ्रांस का डसॉल्‍ट राफेल, ब्रिटेन का यूरोफाइटर, अमेरिका का लॉकहीड मार्टिन एफ-16 फाल्‍कन, रूस का मिखोयान मिग-35 और स्वीडन के साब जैस 39 ग्रिपेन जैसे एयरक्राफ्ट शामिल थे. छह फाइटर जेट्स के बीच राफेल को इसलिए चुना गया क्योंकि राफेल की कीमत बाकी जेट्स की तुलना में काफी कम थी. इसके अलावा इसका रख-रखाव भी काफी सस्‍ता था.

कई साल तक लटका रहा डील

भारतीय वायुसेना ने कई विमानों के तकनीकी परीक्षण और मूल्यांकन किए और साल 2011 में यह घोषणा की कि राफेल और यूरोफाइटर टाइफून उसके मानदंड पर खरे उतरे हैं.

साल 2012 में राफेल को एल-1 बिडर घोषित किया गया और इसके मैन्युफैक्चरर दसाल्ट ए‍विएशन के साथ कॉन्ट्रैक्ट पर बातचीत शुरू हुई. लेकिन आरएफपी अनुपालन और लागत संबंधी कई मसलों की वजह से साल 2014 तक यह बातचीत अधूरी ही रही.

यूपीए सरकार में नहीं हो पाया समझौता

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यूपीए सरकार के दौरान इस पर समझौता नहीं हो पाया, क्योंकि खासकर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के मामले में दोनों पक्षों में गतिरोध बन गया था. दसाल्ट एविएशन भारत में बनने वाले 108 विमानों की गुणवत्ता की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी. दसाल्ट का कहना था कि भारत में विमानों के उत्पादन के लिए 3 करोड़ मानव घंटों की जरूरत होगी, लेकिन एचएएल ने इसके तीन गुना ज्यादा मानव घंटों की जरूरत बताई, जिसके कारण लागत कई गुना बढ़ जानी थी.

मोदी सरकार ने किया समझौता

साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार बनी तो उसने इस दिशा में फिर से प्रयास शुरू किया. पीएम की फ्रांस यात्रा के दौरान साल 2015 में भारत और फ्रांस के बीच इस विमान की खरीद को लेकर समझौता किया. इस समझौते में भारत ने जल्द से जल्द 36 राफेल विमान फ्लाइ-अवे यानी उड़ान के लिए तैयार विमान हासिल करने की बात कही. समझौते के अनुसार दोनों देश विमानों की आपूर्ति की शर्तों के लिए एक अंतर-सरकारी समझौता करने को सहमत हुए.

समझौते के अनुसार विमानों की आपूर्ति भारतीय वायु सेना की जरूरतों के मुताबिक उसके द्वारा तय समय सीमा के भीतर होनी थी और विमान के साथ जुड़े तमाम सिस्टम और हथियारों की आपूर्ति भी वायुसेना द्वारा तय मानकों के अनुरूप होनी है. इसमें कहा गया कि लंबे समय तक विमानों के रखरखाव की जिम्मेदारी फ्रांस की होगी. सुरक्षा मामलों की कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद दोनों देशों के बीच 2016 में आईजीए हुआ. समझौते पर दस्तखत होने के करीब 18 महीने के भीतर विमानों की आपूर्ति शुरू करने की बात है यानी 18 महीने के बाद भारत में फ्रांस की तरफ से पहला राफेल लड़ाकू विमान दिया जाएगा.

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कीमत को लेकर दावे-प्रतिदावे

एनडीए सरकार ने दावा किया कि यह सौदा उसने यूपीए से ज्यादा बेहतर कीमत में किया है और करीब 12,600 करोड़ रुपये बचाए हैं. लेकिन 36 विमानों के लिए हुए सौदे की लागत का पूरा विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया. सरकार का दावा है कि पहले भी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की कोई बात नहीं थी, सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी की लाइसेंस देने की बात थी. लेकिन मौजूदा समझौते में 'मेक इन इंडिया' पहल किया गया है. फ्रांसीसी कंपनी भारत में मेक इन इंडिया को बढ़ावा देगी.

लेकिन मीडिया में आई तमाम खबरों में यह दावा किया गया कि यह पूरा सौदा 7.8 अरब रुपये यानी 58,000 करोड़ रुपये का हुआ है और इसकी 15 फीसदी लागत एडवांस में दी जा रही है. भारत को इसके साथ स्पेयर पार्ट और मेटोर मिसाइल जैसे हथियार भी मिलेंगे जिन्हें कि काफी उन्नत माना जाता है. बताया जाता है कि यह मिसाइल 100 किमी दूर स्थित दुश्मन के विमान को भी मार गिरा सकती है. अभी चीन या पाकिस्तान किसी के पास भी इतना उन्नत विमान सिस्टम नहीं है.  

विपक्ष सवाल उठा रहा है कि अगर सरकार ने हजारों करोड़ रुपए बचा लिए हैं तो उसे आंकड़े सार्वजनिक करने में क्या दिक्कत है. कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि यूपीए 126 विमानों के लिए 54,000 करोड़ रुपये दे रही थी, जबकि मोदी सरकार सिर्फ 36 विमानों के लिए 58,000 करोड़ दे रही है. कांग्रेस का आरोप है कि एक प्लेन की कीमत 1555 करोड़ रुपये हैं, जबकि कांग्रेस 428 करोड़ में रुपये में खरीद रही थी. कांग्रेस का कहना है कि बीजेपी सरकार के सौदे में 'मेक इन इंडिया' का कोई प्रावधान नहीं है.

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सौदे में हड़बड़ी क्यों

विरोधि‍यों का कहना है कि यूपीए सरकार 18 बिल्कुल तैयार विमान खरीदने वाली थी और बाकी 108 विमानों का भारत में एसेंबलिंग की जानी थी. इसके अलावा इस सौदे में ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी की बात कही गई थी, ताकि खुद बाद में भारत में इन विमानों को बनाया जा सके. कांग्रेस का कहना है कि जब यूपीए सरकार सस्ते, बेहतर और व्यापक सौदे पर बात कर रही थी, तो इस सौदे को करने की एनडीए सरकार को इतनी हड़बड़ी क्यों थी.

एचएएल का मामला

सौदे के आलोचकों का कहना है कि यूपीए के सौदे में विमानों के भारत में एसेंबलिंग में सार्वजनिक कंपनी हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड को शामिल करने की बात थी. भारत में यही एक कंपनी है जो सैन्य विमान बनाती है. लेकिन एनडीए के सौदे में एचएएल को बाहर कर इस काम को एक निजी कंपनी को सौंपने की बात कही गई है. किसी भरोसेमंद सरकारी कंपनी की जगह अनाड़ी नई निजी कंपनी को शामिल करना कैसे उचित हो सकता है. यानी विरोधि‍यों के मुताबिक एनडीए सरकार एक निजी कंपनी को फायदा पहुंचा रही है. कांग्रेस का आरोप है कि सौदे से HAL को 25000 करोड़ रुपये का घाटा होगा. 

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