दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सबसे पहले 25 अक्टूबर 2011 को महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया था. इसके आयोजन में मुख्य तौर पर ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टुडेंट्स फोरम (एआईबीएसफ) से जुड़े छात्र थे. साथ ही इसे अन्य दलित-आदिवासी और ओबीसी छात्रों का समर्थन हासिल था.
इसके पीछे आयोजकों का तर्क यह है कि महिषासुर मिथक का संबंध बहुजनों यानी दलित-आदिवासी-ओबीसी समुदाय से रहा है. इसके आयोजक और समर्थक अपनी अस्मिता को महिषासुर से जोड़ते हैं. कुछ लोग महिषासुर को मिथकीय नहीं बल्कि ऐतिहासिक पात्र मानते हैं और उन्हें अपना पूर्वज (जननायक) मानते हैं.
महिषासुर का संबंध प्राचीन जनजाति असुर से भी जोड़ा जाता है, देश में जिनकी आबादी करीब 9,000 बची है. झारखंड के गुमला के एक सामाजिक कार्यकर्ता अनिल असुर कहते हैं, 'मैंने स्कूल की किताबों में पढ़ा है कि देवताओं ने असुरों का संहार किया था. लेकिन असल में वह हमारे प्रतापी पूर्वजों की सामूहिक हत्याएं थीं.'
जनसभा आयोजित कर मनाया था शोक
आयोजन से जुड़े लोग बताते हैं कि दुर्गा व उनके सहयोगी देवताओं द्वारा महिषासुर की हत्या कर दिए जाने के बाद आश्विन पूर्णिमा को महिषासुर के अनुयायियों ने बड़ी जनसभा आयोजित कर शोक मनाया था और खोए वैभव को वापस हासिल करने का संकल्प लिया था. इसी वजह से अधिकतर आयोजन आश्विन पूर्णिमा यानी दशहरा की दसवीं के ठीक पांच दिन बाद मनाते हैं. कहीं-कहीं इसे ‘महिषासुर शहादत दिवस’ कहा जाता है तो कहीं ‘महिषासुर स्मरण दिवस.’
पूर्वजों को करते हैं स्मरण
महिषासुर आयोजन से जुड़े और फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन बताते हैं, 'दरअसल, यह आयोजन कोई पूजा या कर्मकांड नहीं है बल्कि हम इस दिन महिषासुर और अपने पूर्वजों को स्मरण करते हैं और बहुजनों से संबंधित बौद्धिक विमर्श या बातचीत करते हैं. यही इसकी असली ताकत है और इसी वजह से यह बहुजनों में लोकप्रिय हो गया है देश के कई हिस्सों में मनाया जाता है.'
यूपी और बिहार में भी मनाते हैं यह दिवस
वर्ष 2014 में जेएनयू में इसके आयोजन का विरोध करते हुए एबीवीपी ने कार्यक्रम में बाधा पहुंचाई थी और मामला भी दर्ज कराया था. इन दबावों और एआईबीएसएफ की ओर से मुख्य आयोजनकर्ता के जेएनयू से रिसर्च पूरी कर निकल जाने की वजह से अक्टूबर 2015 में महिषासुर शहादत दिवस जेएनयू में तो नहीं हो सका, लेकिन आयोजकों का दावा है कि यूपी के देवरिया, बिहार के मुजफ्फरपुर, भागलपुर, पश्चिम बंगाल के कोलकाता और पुरुलिया समेत देशभर के करीब 300 से भी ज्यादा जगहों पर यह मनाया गया.