पटना में आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की रैली में उमड़ी भीड़ को देखकर इसे सफल रैली करार दिया जा रहा है. जेडीयू के बगावती सुर वाले नेता शरद यादव समेत तमाम बड़े छोटे 17 दलों के नेता और नुमाइंदों की मौजूदगी को लालू और विपक्ष बड़ी सफलता मान रहा है, लेकिन 2019 के मद्देनज़र महागठबंधन की विपक्षी उम्मीद के सामने कई सवालों के जवाब अभी भी मिलने बाकी हैं.
सोनिया-राहुल की गैरमौजूदगी
महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी के दोनों बड़े नेताओं ने लालू की रैली में हिस्सा नहीं लिया. सोनिया- राहुल की जगह राज्यसभा में विपक्ष के नेता ग़ुलाम नबी आजाद और बिहार कांग्रेस के प्रभारी महासचिव सीपी जोशी ने कांग्रेस की तरफ से हिस्सा लिया. हालांकि, ये सफाई दी गयी कि सोनिया बीमारी के चलते नहीं आ पायीं, इसीलिए उनका रिकॉर्डेड भाषण रैली में चलाया गया. वहीं, राहुल को पहले से ही नार्वे सरकार के बुलावे पर जाना था, इसलिए वो नहीं आ पाए. हालांकि पहले ही राहुल अपना लिखित समर्थन का पत्र भेज चुके थे. वैसे ये भी छिपा नहीं है कि राहुल के ऑर्डिनेंस फाड़ने के चलते ही लालू आजतक चुनाव नहीं लड़ सकते. बिहार चुनावों के दौरान भी राहुल ने लालू के साथ मंच साझा नहीं किया था. कुल मिलाकर वजहें जो भी हों, पर लालू की रैली में कांग्रेस से किसी एक गांधी की मौजूदगी विपक्षी एकता को और मज़बूती दे सकती थी, लेकिन ऐसा हो ना सका.
मायावती और उनकी पार्टी ने बनाई दूरी
भले ही राज्यसभा से नाराज़ होकर इस्तीफा देने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती को लालू ने अपने कोटे से राज्यसभा भेजने का प्रस्ताव दिया, लेकिन मायावती ने लाख बुलावे के बावजूद खुद तो रैली से दूर रखा ही, साथ ही अपनी पार्टी का कोई नुमाइंदा तक नहीं भेजा. हालांकि मायावती पहले ही साफ कर चुकी हैं कि, वो बीजेपी के खिलाफ हैं, लेकिन बीजेपी विरोधी किसी मोर्चे में खुलकर तभी शामिल होंगी जब सीटों का बंटवारा कर दिया जाए. ऐसे में मायावती के साथ सीटों का पेंच सुलझाना विपक्ष के लिए बड़ी चुनौती है.
ममता आयीं तो येचुरी नदारद
बंगाल में सीपीएम और ममता की अदावत किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में दोनों को रैली के एक मंच पर लाना आसान नहीं है. हुआ भी कुछ ऐसा ही. टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी रैली में पहुंची, तो सीपीएम नेता सीताराम येचुरी रैली से दूरी बनाने को मजबूर हो गए. हालांकि, लेफ्ट की तरफ से सीपीआई नेता डी. राजा ने रैली में शिरकत कर विपक्ष को राहत की सांस दी, लेकिन बंगाल की राजनीति की मजबूरी ने भविष्य में महागठबंधन की राह का रोड़ा जरूर सामने आ गया. साफ हो गया कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति चुनाव की बात अलग है, लेकिन जब सीधे जनता के सामने एकजुट होने का मुद्दा आये तो बंगाल की सियासत आड़े आएगी ही.
अखिलेश आये मुलायम नहीं
जब बसपा सुप्रीमो ये कहकर रैली में नहीं आईं कि, पहले सीटों का बंटवारा किया जाए, तो समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने ऐलान कर दिया कि, अगर अखिलेश ने किसी से गठबंधन किया तो उनको नया रास्ता खोजना पड़ेगा. मुलायम के बयान के बावजूद महागठबंधन की सुगबुगाहट के बीच बुलाई रैली में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश ने हिस्सा लिया, लेकिन गठजोड़ पर उनकी चुप्पी ने बता दिया कि अभी महागठजोड की राह में कई रोड़े हैं.
एनसीपी से तारिक़ अनवर आये, शरद पवार और प्रफुल्ल रहे दूर
यह कहा जा सकता है कि एनसीपी में तारिक़ अनवर की हैसियत वैसी ही है, जो कभी शरद यादव की जेडीयू में थी. एनसीपी के चार बड़े चेहरे शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, सुप्रिया सुले और अजित पवार हैं, जो रैली से नदारद रहे. तारिक़ बिहार से ही सांसद हैं और वो मुस्लिम भी हैं. इसलिए भले ही वहां मौजूद रहे हों, लेकिन इसे भविष्य में एनसीपी के महागठबंधन में बने रहने की गारंटी नहीं माना जा सकता. हाल में गुजरात राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने आरोप लगाया कि, एनसीपी के दोनों विधायकों ने अहम मौके पर बीजेपी को वोट देकर कांग्रेस उम्मीदवार अहमद पटेल को हराने की साज़िश रची, जबकि, एनसीपी यह कहकर कांग्रेस पर भड़की कि उसके एक विधायक ने अहमद को वोट दिया, फिर भी कांग्रेस उसका एहसान नहीं मान रही. इसी के बाद हाल में विपक्षी बैठक से एनसीपी ने दूरी बना ली. हाल में गुजरात कांग्रेस ने एनसीपी को बीजेपी की बी टीम बताकर गुजरात में उससे गठबंधन नहीं करने का ऐलान तक कर दिया.
कुल मिलाकर पटना में लालू की महारैली में विपक्षी एकता की जो तस्वीर उभरकर सामने आई है, उसका तफसील से विश्लेषण बताता है कि, 2019 के विपक्षी महागठजोड़ की राह में कई अनसुलझे सवाल हैं, जिसके जवाब महागठबंधन बनाने की आस लगाए नेताओं को जल्द से जल्द सुलझाने होंगे.