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मोदी को महंगा पड़ सकता है भूमि अधिग्रहण ऑर्डिनेंस

बात 11 मई 2011 की है. नोएडा से महज 30 किमी. दूर भट्टा पारसौल गांव में एक पेड़ के नीचे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव दिगिवजय सिंह बहुत से किसानों के साथ बैठे थे. अधबने यमुना एक्सप्रेस वे की धूल उड़ाती सडक़ों पर मीडिया की ओबी वैन भी वहां पहुंच गईं. दिनभर टीवी पर राहुल की यह किसान यात्रा दिखती रही.

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Symbolic Image
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बात 11 मई 2011 की है. नोएडा से महज 30 किमी. दूर भट्टा पारसौल गांव में एक पेड़ के नीचे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव दिगिवजय सिंह बहुत से किसानों के साथ बैठे थे. अधबने यमुना एक्सप्रेस वे की धूल उड़ाती सडक़ों पर मीडिया की ओबी वैन भी वहां पहुंच गईं. दिनभर टीवी पर राहुल की यह किसान यात्रा दिखती रही.

इस यात्रा का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है क्योंकि यहीं से यूपीए के राज में नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाने का बीज पड़ा था. 2012 फरवरी में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे और उससे पहले मायावती सरकार के खिलाफ इलाहाबाद हाइकोर्ट के धड़ाधड़ आदेश आ रहे थे जिनमें एक के बाद एक भूमि अधिग्रहण रद्द किए जा रहे थे. दूसरी तरफ किसान अपनी जमीन न देने पर अड़े हुए थे. मामला तूल पकड़ता ही गया और मायावती सरकार इसे संभाल नहीं सकी. अंत में चुनाव में मायावती की पार्टी को बुरी हार देखनी पड़ी. वे यमुना एक्सप्रेस वे बनाने और उससे भी बढक़र इसके दोनों तरफ की हजारों एकड़ जमीन एक पूंजीपति घराने को देने के आरोपों से घिर चुकी थीं. किसानों का सेंटीमेंट उनके खिलाफ चला गया और उनकी सरकार लोक विरोधी दिखने लगी. यहां तक कि उनका बेहतर लॉ एंड ऑर्डर और सुधरी हुई सड़कों का जाल उन्हें बचाने में काम नहीं आ सका.

इसी तरह पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का जो गढ़ तीन दशक में नहीं ढहा था, वह अंतत: सिंगूर और नंदीग्राम ने ढहा दिया. ममता बनर्जी ने तब तक सांस नहीं ली जब तक कि टाटा की नैनो बनाने वाली कंपनी को पश्चिम बंगाल से बाहर नहीं कर दिया और जमीन किसानों को वापस दिला दी. ये बात अलग है कि वापस मिलने के बाद भी जमीन खेती लायक नहीं बची. इससे न किसानों का भला हुआ और न टाटा कंपनी का. बंगाल की उद्योग विरोधी राज्य की छवि बनी सो अलग. लेकिन किसानों की भावनाओं पर यह मुद्दा खरा बैठा और ममता बनर्जी किसान और गरीब समर्थक बनकर उभरीं. ये बात अलग है कि बाद में उन्होंने फिक्की जैसी औद्योगिक संस्था के तत्कालीन महासचिव अमित मित्रा को अपना वित्त मंत्री बनाया. लेकिन ये बारीकियां समझने का वक्त भावना में बह रहे आम आदमी के पास नहीं होता.

इन्हीं बातों से सबक लेते हुए राहुल गांधी ने किसानों की जमीन को अधिग्रहीत करने के बारे में बेहद सख्त कानून बनवाया, हालांकि वे इसका सियासी फायदा नहीं उठा सके. अब मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर किसानों की जमीन पर कब्जा करने को एक बार फिर से आसान बना दिया है. खासकर ग्रामीण बुनियादी ढांचा और बाकी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में जिस तरह से स्थानीय निवासियों की मंजूरी की जरूरत को खत्म किया जा रहा है और इस अधिग्रहण के समाज पर पड़ने वाले असर का अध्ययन करने तक की मनाही कर दी गई है, वह खतरनाक है. यह सीधे-सीधे जनभावनाओं को अपने खिलाफ भड़कने देने का न्योता है.

सामाजिक मंजूरी के माध्यम से किसानों या गांव वालों को एक मंच, अपनी बात कहने के लिए मिल जाता है. इस बातचीत में समय तो लगता है, लेकिन यह समय गुस्से को ठंडा करने का भी काम करता है. सरकार ने ऑर्डिनेंस के जरिए यह सेफ्टी वॉल्व खत्म कर दिया है. ऐसे में अधिग्रहण करने वाली एजेंसियों में मनमानी की प्रकृति बढ़ना तय है. यमुना एक्सप्रेस वे के मामले में ही ज्यादातर जमीन इमरजेंसी प्रावधान के जरिए हासिल की गई थी, जबकि इमरजेंसी जैसी कोई बात कहीं थी ही नहीं. इसी आधार पर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने एक के बाद एक अधिग्रहण रद्द किए थे. दूसरी बात यह थी कि इन अधिग्रहण का यमुना एक्सप्रेस वे की मुख्य सड़क से कोई लेना-देना नहीं था.

बढ़ती आबादी के बीच जमीन और पानी को लेकर देश में जिस तरह की होड़ मची है, वैसे में सरकार को ज्यादा पारदर्शी होने की जरूरत है. जमीन अधिग्रहण ऑर्डिनेंस का पहला परीक्षण तभी होगा जब कोई नया और बड़ा जमीन अधिग्रहण सरकार करेगी. सरकार को कम से कम इतना तो मानकर चलना ही होगा कि यह उतना आसान नहीं होगा कि टाटा को बंगाल से उठाकर गुजरात ले आएं और कृषि विश्वविद्यालय की जमीन उसे दे दें. उस पर कहीं से विरोध की चूं भी न हो. मामला अब राष्ट्रीय है. हर राजनीतिक दल बीजेपी के खिलाफ अपनी जमीन बचाने में जुटा है. ऐसे में भूमिअधिग्रहण एक बार फिर भावनात्मक मुद्दा बनेगा. किसानों के नाम पर बुलंद होने वाले झंडे मोदी की लोकप्रियता के परचम से ऊंचा होने की कोशिश करेंगे. किसानों का हित करने से किसी राजनीतिक दल को फायदा हो य न हो, किसानों को छेड़ने से सत्ताधारी दल को नुकसान हमेशा हुआ. ऐसा न होने देना प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी चुनौती होगी.

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