जून का महीना आडवाणी के लिए कुछ खास ही रहा है. फिलहाल उन्होंने पार्टी के तीनों पदों से इस्तीफा क्या दिया, बीजेपी को लू लग गई. मगर साल 2005 में जून के पहले हफ्ते में उन्होंने इस्तीफा दिया नहीं था, बल्कि उन्हें घेरकर इस्तीफा लिया गया था.
दरअसल उस समय बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी पाकिस्तान के दौरे पर गए थे. वहां उन्होंने 4 जून को जिन्ना की मजार पर एक भाषण दिया था. इसमें जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया गया था. जैसे ही इस भाषण की कॉपी बीजेपी मुख्यालय पहुंची. प्रमोद महाजन को खबर मिली. महाजन ने फौरन पार्टी के सभी नेताओं को इस बारे में सूचित किया और संघ मुख्यालय दस्तक दी. उसी समय पार्टी का अटल खेमा आडवाणी के इस्तीफे को लेकर रणनीति बनाने लगा.
आडवाणी 6 जून को दिल्ली आए तो उन्हें एयरपोर्ट पर ‘जिन्ना समर्थक वापस जाओ’ के नारे सुनने पड़े. 7 जून को आडवाणी ने अपने विश्वस्त और पार्टी में उस समय उपाध्यक्ष वैंकेया नायडू को संबोधित करते हुए इस्तीफा दे दिया. उसी शाम पार्टी के दूसरी पांत के नेता मिले और रस्मी तौर पर आडवाणी से इस्तीफा वापस लेने की मांग की. आडवाणी ने कह दिया कि वह सोचकर बताएंगे. मगर उसके बाद उनकी क्राइसिस मैनेजमेंट टीम डैमेज कंट्रोल नहीं कर पाई. संघ ने अपनी चलाई और राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बना दिया गया.
आज वही राजनाथ सिंह एक बार फिर से अध्यक्ष हैं. और उनके राजनीतिक प्रबंधन का ये सबसे मुश्किल इम्तिहान हो सकता है. सुबह तक टीवी कैमरों के सामने निश्चिंत नजर आ रहे आडवाणी ने 2005 में इस्तीफे के दो साल के भीतर ही वापसी कर ली थी और संघ को उन्हें बीजेपी का पीएम कैंडिडेट बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा था. इस बार भी यही कहा जा रहा था कि आडवाणी की पीएम पोस्ट की महात्वाकांक्षा अभी खत्म नहीं हुई है. मगर बीजेपी का एक धड़ा और संघ उन्हें जबरन रिटायर करने पर लगा है. उसी की काट निकालने के लिए आडवाणी ने आखिरी दांव खेला है. इस्तीफे का दांव. दबाव में नहीं. दबाव में लाने के लिए.