सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि उम्र कैद की सजा पाने वाले कैदी को जेल में 14 साल बिताने के बाद रिहाई का दावा करने का अधिकार नहीं है.
न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति जे. एस. खेहड़ की खंडपीठ ने कहा कि उम्र कैद का मतलब आजीवन कैद है और सिर्फ राष्ट्रपति तथा राज्यपाल ही सजा माफ करके कैदी को रिहा करने तेका आदेश दे सकते हैं.
कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में कैदी की सजा माफ करते समय सरकार को अपराध की गंभीरता को ध्यान में रखना चाहिए.
न्यायाधीशों ने कहा कि इस न्यायालय ने अनेक फैसलों में व्यवस्था दी है कि उम्र कैद का मतलब आजीवन कैद है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 72 तथा 161 के तहत सजा में माफी दी जा सकती है.
न्यायालय ने सन 2000 में 22 वर्षीय महिला से बलात्कार और हत्या के जुर्म में उम्र कैद की सजा काट रहे मुजरिम की अपील पर यह व्यवस्था दी. इस मुजरिम को निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी, लेकिन गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इसे उम्र कैद में बदल दिया था.
इस कैदी का कहना था कि चूंकि वह 14 साल जेल में बिता चुका है, इसलिए उसे रिहा करने का निर्देश दिया जाये. इस मुजरिम की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता परमानंद कटारा का तर्क था कि उम्र कैद की सजा पाने वाले कैदी के लिये 14 साल की जेल पर्याप्त होनी चाहिए और इसके बाद वह रिहाई का हकदार होना चाहिए.
न्यायालय ने कटारा की इस दलील को अस्वीकार करते हुये मुजरिम की अपील खारिज कर दी. न्यायालय ने कहा कि सजा माफ करने के बारे में सरकार ही कोई निर्णय ले सकती है.
न्यायालय ने कहा कि जब अपीली अदालत किसी मुजरिम की मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील करती है तो संबंधित सरकार को अपराध की संगीनता को ध्यान में रखते हुये सजा माफ करने के अधिकार का सावधानी से इस्तेमाल करने की इजाजत होती है.