पीडीपी के संरक्षक मुफ्ती मोहम्मद सईद का गुरुवार को 79 साल की उम्र में निधन हो गया. बीजेपी के साथ गठबंधन कर पिछले साल 1 मार्च को उन्होंने जम्मू-कश्मीर के 12वें मुख्यमंत्री के रूप में जिम्मा संभाला था. जम्मू-कश्मीर प्रदेश की सियासत के साथ ही सईद ने केंद्र की राजनीति में भी अहम जिम्मेदारी निभाई.
मुफ्ती मोहम्मद सईद को मृदुभाषी और सौम्य राजनेता के रूप में देखा जाता था, लेकिन देश के पहले मुस्लिम गृह मंत्री की छवि को उस समय धक्का लगा, जब वीपी सिंह की अगुवाई वाली सरकार ने उनकी तीन बेटियों में से एक रूबिया की रिहाई के बदले में पांच आतंकवादियों को छोड़ने की आतंकी संगठनों की मांग के आगे घुटने टेक दिए थे.
रूबिया की रिहाई के बदले में आतंकवादियों की रिहाई के संवेदनशील मामले का जम्मू-कश्मीर की राजनीति में दूरगामी प्रभाव पड़ा. दो दिसंबर 1989 को राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के गठन के पांच दिन के बाद ही रूबिया का अपहरण कर लिया गया था. अक्सर अपनी राजनीतिक निष्ठाओं को बदलते रहने वाले सईद उस समय केंद्र में गृह मंत्री थे, जब घाटी में आतंकवाद ने सिर उठाना शुरू किया था. उसी समय 1990 में वादियों से कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की कहानी शुरू हुई. अपनी बेटी महबूबा मुफ्ती के साथ 1999 में खुद की राजनीतिक पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीपी) का गठन करने से पहले सईद ने अपने राजनीतिक करियर का लंबा समय कांग्रेस में बिताया.
साल 1950 के दशक में वह जीएम सादिक की कमान में डेमोक्रेटिक नेशनल कॉन्फ्रेंस के सदस्य भी रहे. नेशनल कांफ्रेंस के अपने प्रतिद्वंद्वी फारूक अब्दुल्ला की तरह गोल्फ प्रेमी सईद ने अपनी पार्टी के गठन के तीन साल के भीतर ही कांग्रेस के समर्थन से प्रदेश में अपनी सरकार बनाई थी. हालांकि, 2008 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई और उमर अब्दुल्ला ने राज्य में अपनी पार्टी को जीत दिलाई. सईद की चुनावी सफलता का श्रेय महबूबा मुफ्ती को दिया जाता है, जिन्होंने पार्टी के लिए कैडर को सक्रिय और संगठित किया. उन्हें तगड़ा मोलभाव करने वाला माना जाता है.
पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आई. माना जाता है कि महबूबा मुफ्ती ने ही अपने पिता को छह साल का पूरा कार्यकाल दिलाने के लिए बीजेपी को मनाने में कड़ी मेहनत की. कि यह पद बारी-बारी वाले आधार पर नहीं होगा. 12 जनवरी 1936 को अनंतनाग जिले के बिजबिहाड़ा में पैदा हुए सईद श्रीनगर के एस पी कॉलेज और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र रहे हैं जहां से उन्होंने कानून और अरब इतिहास में डिग्री हासिल की थी.
सईद ने 1962 में अपने जन्मस्थान से डीएनसी की कमान में चुनाव जीत कर चुनावी सफर की शुरुआत की थी. उन्होंने 1967 में भी इसी सीट से जीत हासिल की, जिसके बाद सादिक द्वारा उन्हें उप मंत्री बनाया गया. 1972 में वह कैबिनेट मंत्री बने और विधान परिषद में कांग्रेस पार्टी के नेता भी. 1975 में उन्हें कांग्रेस विधायक दल का नेता और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन वह अगले दो चुनाव हार गए. 1986 में केंद्र में राजीव गांधी की सरकार में बतौर कैबिनेट मंत्री (पर्यटन) के रूप में शामिल होने वाले सईद ने एक साल बाद मेरठ दंगों से निपटने में कांग्रेस के तौर-तरीकों और इनमें पार्टी की कथित संलिप्तता का आरोप लगाते हुए त्यागपत्र दे दिया.
साल 2002 में जब मुफ्ती कांग्रेस के गठबंधन के साथ मात्र 16 सीटें लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उस समय जम्मू कश्मीर कई मोर्चों पर समस्याओं का सामना कर रहा था. संसद पर हमले के बाद सेना और पाकिस्तान एक दूसरे की आंखों में आंखें डाले खड़े थे और राज्य में निजी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लग गए. एक दूरदर्शी नेता, चुस्त राजनीतिक रणनीतिकार और समझदार राजनेता के रूप में देखे जाने वाले मुफ्ती के परिदृश्य में आने के बाद और बड़े सधे तरीके से राजनीतिक समीकरणों को संतुलित करने की उनकी कला के चलते हालात में तेजी से बदलाव आया. यह बदलाव दोनों स्तर पर था राज्य के भीतर भी और क्षेत्रीय संबंध में भी.
करीब दो दशकों में पहली बार मुफ्ती ने पीडीपी के मंच से तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रीनगर में एक रैली को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया और इसे शांति के नए प्रयासों के रूप में देखा गया. इसकी परिणति अग्रिम इलाकों से सेना की वापसी, सीमाओं पर संघर्षविराम, विशेष कार्य बल और पुलिस के विशेष अभियान समूह को खत्म करने, पोटा को समाप्त करने और राजनीतिक कैदियों की रिहाई के रूप में हुई. इससे भारत और पाकिस्तान के बीच व कश्मीर में अलगाववादियों और केंद्र के बीच सीधा संपर्क कायम हुआ.
विभाजित कश्मीर के दोनों हिस्सों में श्रीनगर और मुजफ्फराबाद के बीच बस सेवा शुरू होने के समय भी मुफ्ती राज्य के मुख्यमंत्री थे. 2002 में राज्य के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद मुफ्ती ने लोगों की शांति और गरिमा की पुकार को सुना और लोगों के टूटे दिलों को जोड़ने, उनकी गरिमा को बहाल करने, उनके दिलों में एक नई उम्मीद जगाने और राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी के जरिए उन्हें अपनी नियती तय करने के लिए प्रोत्साहित करने की दिशा में कदम उठाया और मरहम लगाने का प्रयास किया.
अब सईद नहीं रहे लेकिन राज्य के तमाम नेता मानते हैं कि सईद का अनुभव और सबकों साथ लेकर चलने का कौशल जम्मू-कश्मीर राज्य के हित में रहा.