लक्ष्मीनगर इलाके के ललिता पार्क में एक इमारत गिरी, 70 निर्दोष लोग मारे गए और कोई 80 अस्पताल में जिंदगी-मौत से जूझ रहे हैं. हादसा हुआ, खबर बनी और 'जवाबदेह तथा जिम्मेदार' प्रशासन ने शुरू कर दी रस्म अदायगी. किसी भी घटना के बाद सरकारी अमला तुरंत हरकत में आता है. बैठकों का दौर शुरू होता है और फिर जांच समिति बना दी जाती है, जो साल-दर-साल जांच करती रहती है, पर रिपोर्ट तैयार नहीं हो पाती. तब तक कहीं और कोई हादसा हो जाता है और निर्दोष लोग मारे जाते हैं.
ऐसा नहीं है कि दिल्ली सरकार और दिल्ली नगर निगम को यह इल्म नहीं था कि स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है. सरकार की आंखें तभी खुल जानी चाहिए थी जब राष्ट्रमंडल खेल गांव की इमारतों के बेसमेंट में पानी भर चुका था, जो तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं निकल पा रहा था. इस वर्ष भारी बारिश के चलते यमुना का जलस्तर इतना ऊपर आ गया है कि नदी के तटवर्ती इलाके लगभग दलदल में बदल चुके हैं. दिल्ली में सत्ता के कई केंद्रों का बहाना बनाकर सरकारी एजेंसियां एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए आम लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रही हैं. अधिकारी अपनी जेब भर रहे हैं. अमृतपाल सिंह जैसे हजारों लोग इसी दिल्ली में मौजूद हैं जो नगर निगम, डीडीए और दिल्ली पुलिस के अधिकारियों की मुट्ठी गरम करके सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखते हैं और इस तरह की इमारतें बनाते हैं.
वर्ष 2003 में गैर-सरकारी संगठन कल्याण संस्था ने दिल्ली में हो रहे अवैध निर्माण के खिलाफ मुहिम शुरू की थी और अदालत का द्वार खटखटाया था, जिसके बाद हाइकोर्ट ने महरौली-गुड़गांव रोड पर अवैध निर्माण गिराने का आदेश दिया था. लेकिन कोई कार्रवाई किए बिना नगर निगम ने कोर्ट में गलत हलफनामा दाखिल कर दिया जिसका पता दिल्ली हाइकोर्ट को वर्ष 2006 में लगा. {mospagebreak}
पूरी घटना को गंभीरता से लेते हुए अदालत ने समूची दिल्ली में हुए अवैध निर्माण को गिराने का आदेश निगम को दिया. इस पर निगम ने अवैध रूप से बने करीब 8,000 मकानों को सील करके गिराने की कवायद शुरू कर दी.
मगर भाजपा ने इस मुद्दे को राजनैतिक रंग दे दिया. मामले को तूल पकड़ता देख केंद्र सरकार ने दिल्ली विशेष प्रावधान अधिनियम, 2006 नाम से कानून बनाकर अवैध निर्माणों को संरक्षण प्रदान कर दिया. हालांकि कानून बनाने से पहले केंद्र सरकार ने सुह्ढीम कोर्ट का रुख किया था, मगर तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाइ.के. सब्बरवाल ने केंद्र सरकार को ही फटकार लगाई थी कि कानून गलत चीज को सही कैसे करार दे सकता है. उक्त अधिनियम को 2006 में लागू कर दिया गया जिसके तहत एक साल के लिए दिसंबर, 2005 से पहले के अवैध निर्माण के खिलाफ कार्रवाई पर रोक लगा दी गई थी.
मालूम हो कि लक्ष्मीनगर उन 567 कॉलोनियों में से है जिन्हें दिल्ली सरकार ने अवैध होने के बाद भी नियमित कर दिया था. अभी 1,639 अवैध कॉलोनियां और हैं, जो नियमित होने का इंतजार कर रही हैं. दिल्ली में बाहर से आकर बसे हुए लोगों की खासी आबादी है, जो विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है इसलिए कोई भी राजनैतिक दल उससे पंगा नहीं लेना चाहता. वैसे, इस आबादी की जान की परवाह किसी को नहीं है. नगर निगम के मुताबिक, दिल्ली की 30 लाख संपत्तियों में से मात्र 5,589 ही अवैध हैं.
15 नवंबर को पूर्वी दिल्ली के ललिता पार्क इलाके में जिस इमारत ने कई बेगुनाहों की जिंदगी लील ली थी, निगम के मुताबिक वह अवैध नहीं थी. जमींदोज इमारत में वर्ष 1971 में मात्र एक कमरा था जिसने अब एक विशाल इमारत का रूप ले लिया था.
ललिता पार्क का हादसा हो या पालम में इमारत के झुक जाने का या फिर गत महीने पूर्वी दिल्ली के उस्मानपुर में इमारत गिरने का, इनमें से किसी भी इमारत को निगम के भवन विभाग ने अवैध निर्माण की सूची में नहीं डाला था. इन सभी इमारतों की कहानी खासी आश्चर्यजनक है. ललिता पार्क में ढही इमारत का मालिक अमृतपाल निगम को एक कमरे का ही संपत्ति कर अदा करता था. इस इमारत में कब-कब निर्माण कार्य हुआ, इसका कोई रिकॉर्ड निगम के पास नहीं है.{mospagebreak}
ऐसा ही हाल निगम के सभी 12 जोन का है. करोलबाग जोन में 437 अवैध संपत्तियां हैं. इसी तरह, सदर-पहाड़गंज जोन में 243, सिटी जोन में 44, रोहिणी में 393, शाहदरा-उत्तरी जोन में 387, साउथ जोन में 659, नरेला जोन में 490, सेंट्रल जोन में 311, शाहदरा-दक्षिण जोन में 1,016, नजफगढ़ में 401, पश्चिमी जोन में 1,024 और सिविल लाइंस जोन में 184 अवैध संपत्तियां हैं.
सरकार की सर्वे की रस्मअदायगी सिर्फ लक्ष्मीनगर इलाके में ही हुई क्योंकि हादसा यहीं हुआ है. मगर वह शायद ओखला इलाके को भूल गई है, जहां अवैध और बेतरतीब ढंग से बनी इमारतों की नींव भी दलदल में है.
जोगाबाई एक्सटेंशन, जाकिरनगर, बटला हाउस, सेलिंग क्लब, धोबी घाट, अबुल फजल इंक्लेव और शाहीन बाग की भी सैकड़ों इमारतों की स्थिति पूर्वी दिल्ली की इमारतों जैसी ही है. सरकारी एजेंसी चाहे डीडीए हो, एमसीडी या फिर दिल्ली पुलिस, इन सभी की निगाहें कितनी पैनी हैं,यदि किसी को आजमाना हो तो वह अपने घर के बाहर एक ट्रक ईंट और एक ठेली बदरपुर गिरवा के देख ले. चंद घंटों में इलाके की पुलिस, निगम के इंजीनियर वहां पहुंच जाएंगे अपना हिस्सा लेने के लिए.
हादसे होते हैं, निर्दोष लोग मरते हैं, सरकारी एजेंसियां एक-दूसरे पर दोषारोपण करती हैं, जांच और कार्र्रवाई की घोषणा होती है, और इस तरह कर दी जाती है रस्म अदायगी. अब तक तो कम से कम यही होता आया है. लगता नहीं कि ललिता पार्क इमारत हादसा दिल्ली के लिए सबक बन पाएगा. फिर हादसा होगा, दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की घोषणाएं होंगी, पर स्थिति बदलेगी, इसका भरोसा शायद खुद सरकार में बैठे शीर्ष नेताओं और नौकरशाहों को भी नहीं है.