भई मान गए. कौन कहता है कि देश में ईमानदारी नहीं बची है . दाद देनी होगी बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के हिम्मत की. डंके की चोट पर वे कहते हैं, ''हम भी लेते थे ठेकेदारों से कमीशन, पर अब न लेंगे, न लेने देंगे.''
थोड़ा गौर से सुनिये. मांझी आगे बोलते हैं, “पुल बनाने से ज्यादा पैसा पिलर बनाने में लगा. ये इंजीनियर और टेक्नोक्रेट ने इस प्रोजेक्ट पर करोड़ों रुपये लगाए और कुछ पैसे मुझे और कॉन्ट्रेक्टरों को भी दिए. मुझे भी कमीशन मिली.”
फिर वे लोगों से वादा भी करते हैं, “अब मैं कमीशन का पैसा नहीं लूंगा और उस पैसे का इस्तेमाल राज्य के अध्यापकों की भलाई में करूंगा.”
चलिए इससे एक बात तो साफ हो गई. बिहार में सुशासन के चिराग तले भ्रष्टाचार का अंधेरा कायम है. जितनी साफगोई से मांझी ने इस बात को स्वीकार किया है और जिस मजबूती से आगे से ऐसा ‘न करने और न करने देने’ का इरादा जताया है - उससे कुछ हो न हो, उम्मीद जरूर जगनी चाहिए. यहां, लगे हाथ मांझी एक डिस्क्लेमर भी ठोक देते हैं, “हम गरीब हो सकते हैं बेईमान नहीं.”
निशाने पर नीतीश कुमार
कुर्सी संभालने के बाद से ही मांझी अपने बयानों को लेकर चर्चा में रहे हैं. मांझी के इन बयानों पर गौर करें तो पता चलता है कि नीतीश कुमार सीधे तौर पर उनके निशाने पर हैं. 13 अगस्त, 2014 को पटना में एक समारोह में मांझी कहते हैं, “मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि सरकारी मशीनरी में शीर्ष से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है.” इतना ही नहीं अपनी बात को सच साबित करने के लिए मांझी एक घटना का भी जिक्र करते हैं. मांझी बताते हैं कि किस तरह बिजली का बिल सुधारने के लिए उनके परिवार के सदस्यों को 5000 रुपये की रिश्वत देनी पड़ी थी. मांझी यहीं नहीं रुकते, वो कहते हैं, “एक नागरिक के रूप में मैं अनुभव से कह सकता हूं कि रिश्वत की पेशकश किए बगैर सरकारी कार्यालयों में प्रखंड स्तर तक कोई काम नहीं होता.”
मांझी के बयान तो यही संकेत देते हैं कि ‘बिहार में भ्रष्टाचार कायम है’. तो क्या नीतीश कुमार के सुशासन की हकीकत यही है? क्या मांझी लोगों को यह समझाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि एक तरफ तो नीतीश सुशासन और भ्रष्टाचार को लेकर ‘जीरो टॉलरेंस’ की बात करते हैं – और दूसरी तरफ कमीशनखोरी नीचे से लेकर ऊपर तक फल फूल रही है. फिर भ्रष्ट अफसरों के घरों को सरकारी स्कूल में तब्दील करना क्या महज दिखावा था? मांझी शायद यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं. अपने होम टाउन गया में तो मांझी ने बड़ी मासूमियत से कह डाला कि नीतीश के शासन में विकास भले हुआ हो, पर भ्रष्टाचार तब भी कम नहीं हुआ था.
बयान बचकाने या सियासी समझदारी?
पिछले साल मांझी के बयानों पर विवाद हुआ तो जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने उन्हें संयम बरतने की सलाह दी थी. लेकिन मांझी अपने मिशन में लगे रहे. बिहार में लालू प्रसाद जहां सवर्णों को भला बुरा कहते रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में मायावती उसी तबके को ‘मनुवादी’ कह कर टारगेट करती रही हैं. पिछले साल नवंबर में एक कार्यक्रम में मांझी ने लोगों को बताया कि उन्हें हर कोई ठोकर मारता है, लेकिन ये ठोकर उन्हें फायदा भी पहुंचाते हैं, शायद आगे भी फायदा मिले. मांझी कहते हैं, “महादलित परिवार से होने के कारण बचपन से ही मैं ठोकर खाता रहा हूं. ठोकर खाते-खाते मुख्यमंत्री बन गया, कहीं यही ठोकर मुझे प्रधानमंत्री न बना दे.” चाहे लालू प्रसाद हों या मायावती या अब मांझी. सभी का मकसद अपने वोटर से कनेक्ट होना है. इससे उन्हें लोगों की सहानुभूति तो मिलती ही है, ऊपर से वोट भी मिलते हैं. आखिर राजनीति होती किसलिए है?
मांझी के समर्थक मानते रहे हैं कि उनके बयान से दलित खुश होते हैं और यही वजह है कि वो दलितों की आवाज बनकर उभरे हैं. मौका हाथ लगते ही मांझी दलितों को मोटिवेट भी करते हैं, “दलित छात्रों को जात-पात से उठकर अंतर्जातीय विवाह करना चाहिए. अगर हमें एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनना है, तब हमें अपनी जनसंख्या को 16 से बढ़ाकर 22 प्रतिशत करना होगा.”
मांझी के बयानों की मंजिल
मांझी के बयानों को जेडीयू नेता भले ही बचकाने बताते रहे हों, लेकिन दूसरे नहीं.
मांझी को भले ही इससे पहले बोलने की इतनी छूट नहीं मिली हो पर उनका राजनीतिक अनुभव लंबा रहा है. मांझी जानते हैं कि उनकी बात कहां पहुंच रही है और किन पर उनका असर हो रहा है. मांझी समर्थकों का मानना है कि वह तो बस आपबीती सुनाते हैं – और उनकी बातों को तोड़ मरोड़कर पेश कर दिया जाता है. मांझी जानते हैं कि उन्हें वोट देने वाला रिश्वत पर उनके इकबालनामे के बाद उन्हें बेहतर तरीके से समझ सकेगा. अब तो उनका वोटर तर्क भी दे सकता है, “रिश्वत आखिर कौन नहीं लेता है? कम से कम एक आदमी तो है जिसमें आगे आकर स्वीकार करने की हिम्मत है. और आगे से वो ऐसा होने भी नहीं देगा.” यानी भ्रष्टाचार पर असली नकेल तो अब लगने जा रही है. बात में दम तो है.
मांझी के ताजा बयान के बाद डीजीपी को पत्र लिखकर उन पर समुचित कार्रवाई की मांग की गई है. सुबह का भूला अगर शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते. इस जुमले को नीतीश समर्थक भले नजरअंदाज करें, मगर मांझी समर्थकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.
जिस सोच के साथ नीतीश ने मांझी को कुर्सी सौंपी थी, वह उसी पर अमल कर रहे हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि मांझी का कंट्रीब्यूशन अब नीतीश के बजाए खुद उन्हीं के खाते में जमा हो रहा है.