घर का खाना, इसकी अहमियत हमें तभी पता चलती है जब हम घर से दूर अपनी पढ़ाई और नौकरी के लिए जाते हैं. पहले मेरे लिए भी घर का खाना एक आम बात थी. पहले जब मुझे इस बारे में बताया जाता था तो यह सब मजाक लगता था. लेकिन आज घर से दूर होने पर मुझे समझ में आता है कि घर के सादे खाने का स्वाद क्या होता है.
मेरा नाम सौम्या है और यह बात है तीन साल पहले कि जब मैं नौकरी के लिए अपने शहर लखनऊ से दिल्ली आई. यहां का कल्चर काफी अलग था. लोगों की भाषा में भी बहुत बड़ा फर्क था. यहां बातें हम-आप से नहीं तू-मैं से शुरू होती थीं.
हालांकि इन बातों से मैंने कभी असहज महसूस नहीं किया. मगर जिस चीज की कीमत इस शहर आकर पता चली वो था घर का खाना. मुझे सिर्फ मैगी बनानी आती थी. लिहाजा दोनों वक्त के खाने के लिए मैं ढाबों या टिफिन सर्विस पर निर्भर थी.
कभी कैंटीन तो कभी स्ट्रीट फूड तो कभी रेस्टोरेंट में खाना खाकर काम चल जाता था. कभी कोई दोस्त घर का खाना लेकर आ जाए तो जैसे लॉटरी निकल जाती थी. आखिरकार बाहर का खाना खाकर तंग हो चुकी मेरी तबीयत ने जवाब दे दिया. मैंने गैस-चूल्हा खरीदा और गूगल पर अपनी पसंदीदा रेसिपी सर्च कर बनाना शुरू किया.
खाना बनाना इतना भी मुश्किल और बेकार काम नहीं था, जितना मैंने सोचा था. अब दो साल के अंदर मैं खाना बनाने में एक्सपर्ट हो गई हूं. यह मेरा मानना नहीं, मेरे दोस्तों और मेरी मां का कहना है, जो मेरे खाना बनाकर खाने से बेहद खुश हैं. यही नहीं जो दोस्त अभी खुद खाना बनाना नहीं जानते हैं, उनको भी अक्सर बनाकर खिलाती हूं.
ये कहानी थी सौम्या शर्मा की, जिन्होंने घर से बाहर रहकर अपने अनुभव को हमसे शेयर किया. आपके पास भी इससे जुड़ा कोई अनुभव है तो aajtak.education@gmail.com पर भेज सकते हैं, जिन्हें हम अपनी वेबसाइट www.aajtak.in/education पर साझा करेंगे.