18 जुलाई को मॉनसून सत्र के दूसरे दिन जब सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो मायावती दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हाल ही में हुई घटनाओं का मुद्दा उठाना चाहती थीं. लेकिन उपसभापति की ओर से उन्हें महज तीन मिनट का समय दिया गया. मायावती अपने अधूरे भाषण के बार-बार रोके जाने से भड़क गईं और इस्तीफे की धमकी देकर सदन से उठकर चली गईं.
मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया, लेकिन उनका इस्तीफा स्वीकार हो, इसकी संभावना बहुत कम ही है. दरअसल, संसद का नियम है कि कोई भी सदस्य किसी विस्तृत ब्यौरे के साथ इस्तीफा नहीं दे सकता. इस्तीफा महज एक लाइन का हो सकता है जिसमें कहा गया हो कि उक्त सदस्य अपने पद से इस्तीफा देना चाहता है जिसे स्वीकार कर लिया जाए. किसी प्रकार का विवरण, तर्क या स्पष्टीकरण से रचा-बसा इस्तीफा सदन में स्वीकार नहीं किया जा सकता. वर्ष 2006 में सिद्धू के इस्तीफे का खारिज किया जाना और फिर नवंबर 2016 में कैप्टन अमरिंदर सिंह के इस्तीफे को इसी आधार पर निरस्त कर दिया गया था. दोनों सदस्यों को दोबारा से एक पंक्ति का इस्तीफा देना पड़ा था.
तो फिर मायावती के इस इस्तीफे का निहितार्थ क्या है. इसका जवाब भी मायावती के भाषण और उनकी ओर से पेश किए गए इस्तीफे में ही निहित है. मायावती ने एक तीर से कई निशान करने की कोशिश की है. उन्होंने संदेश देने की कोशिश की कि सदन का सदस्य होते हुए भी उन्हेंने दलितों के अत्याचार और हिंसा पर बोलने नहीं दिया गया. मायावती का यह गुस्सा कहीं न कहीं उन्हें फिर दलित एजेंडे से जोड़ेगा. वह बड़ी चतुराई से सहारनपुर में हुई हिंसा और विरोध का क्रेडिट लेना चाहती हैं.
वह भीम आर्मी से क्रेडिट लेते हुए, राज्यसभा से इस्तीफा देकर यह दर्शाने की कोशिश में हैं कि वह दलितों के लिए इतना बड़ा त्याग भी कर सकती हैं. यह बीएसपी के हार्डकोर वोटरों के लिए बड़ा संदेश कहा जा सकता है. पिछले दो विधानसभा और एक संसदीय चुनाव में हार का सामना कर चुकी मायवाती को इस बात का अंदाजा है कि कैसे दलित वोटर बीएसपी के हाथ से फिसल रहा है. वहीं बीजेपी ने राष्ट्रपति पद के लिए उत्तर प्रदेश के ही एक दलित चेहरे रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी बनाकर मायावती को और असमंजस में डाल दिया था. कोविंद का राष्ट्रपति बनना तय है और इस जीत के ज़रिए बीजेपी दलित वोट बैंक पर और मजबूती से हक जमाने की कोशिश करेगी.
ग़ौर करनेवाली बात यह है कि मायावती ने इस्तीफा देकर बीजेपी को उस वक्त झटका दिया है जब पार्टी दलित चेहरे राष्ट्रपति बनाने के ज़रिए अपने को दलितों का हितैषी दिखाना चाह रही है. मायावती ने राष्ट्रपति चुनाव के दिन दो टूक कहा, कोई भी जीते, पर यह साफ है कि एक दलित इस देश का प्रेसिडेंट बनने जा रहा है. यह अंबेडकर के सपने और उनकी राजनीति की बदौलत ही हो पा रहा है. दूसरे ही दिन उन्होंने दलितों के प्रति हिंसा का सवाल औऱ सहारनपुर की घटना पर बोलने की कोशिश की और ऐसा न करने देने पर सदन से इस्तीफा दे दिया. उनका मकसद साफतौर पर यह संदेश भेजना था कि रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी चुन कर बीजेपी वोट बैंक पर कब्जा करना चाहती है, पर वास्तव में बीजेपी एंटी-दलित है.
मायावती के लिए यह इस्तीफा कहीं से भी हार का सौदा नहीं है. वह 2012 में राज्यसभा सदस्य बनी थीं. उनका कार्यकाल सिर्फ 9 महीने का बचा है. मौजूदा स्थिति को देखते हुए उनका राज्यसभा में लौटना कठिन है. पर वह दलित के मुद्दे पर बीजेपी को निशाना बनाकर हाउस में अन्य पार्टियों का सपोर्ट जरूर पाएंगी. मायावती का किला ढह रहा है, ऐसे में अपना वजूद बनाए रखने के लिए उनके पास कम वक्त ही बचा है. मायावती करो या मरो की स्थिति में है. उनकी पार्टी के कई नेता, उनके कई करीबी पिछले कई सालों में पार्टी को छोड़कर जा चुके हैं.
दलितों की रानी कही जाने वाली मायावती को अपना किला बचाने के लिए इस्तीफा देना उनके पहले कदम के तौर पर देखा जा सकता है. वह इससे एक बार फिर न सिर्फ चर्चा में आएंगी बल्कि उनकी पूछ भी बढ़ेगी. लेकिन यह पहला कदम ही है. अगर इससे आगे बढ़ने और लोगों के बीच पहुंचने से वो चूकती हैं तो हालत में सुधार की गुंजाइन न के बराबर है. बिहार में लालू यादव की वापसी उनके लिए एक उदाहरण है. देखना यह है कि मायावती उनसे क्या सीखती हैं.