मिश्रा की गिरफ्तारी का देश-विदेश में काफी विरोध हुआ. हेम मिश्रा अब जमानत पर बाहर हैं. हालांकि उन्हें हर हफ्ते हाजिरी देने अल्मोड़ा के पुलिस थाने में जाना पड़ता है. इसके अलावा कोर्ट की हर तारीख पर गढ़चिरौली भी हाजिर होना होता है. पढ़ाई और जीवन के तार बिखर चुके हैं मिश्रा उन्हें संवारने की कोशिशों में जुटे हैं. बकौल सुब्रम्णयम स्वामी नक्सलियों और देशद्रोहियों के गढ़ जेएनयू के छात्र की कहानी में बहुत कुछ ऐसा है जो कई सवाल खड़े करता है. आइए जानते हैं हेम मिश्रा की कहानी उन्हीं की जुबानी.
20 अगस्त 2013 को क्या हुआ था?
मैं मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त डॉक्टर और सामाजिक कार्यकर्ता प्रकाश आम्टे से मिलने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली गया था. वो भामरागढ़ में लोक बिरादरी अस्पताल चलाते हैं जो स्थानीय लोगों के बीच काम करती है. 20 अगस्त 2013 को सुबह साढ़े नौ बजे मैं भल्लारशाह उतरा. यहां से मुझे भामरागढ़ के लिए बस लेनी थी. (पढ़ते हुए भारत का मानचित्र भी देखें) इसी दौरान कुछ लोगों ने मुझे पीछे से पकड़ लिया. वो लोग सादे कपड़ों में थे. मैं चौंका, घबराया भी. चिल्लाने की भी कोशिश की लेकिन कुछ ही देर में वो मुझे खींचते हुए रेलवे स्टेशन के बाहर लाए.
लगभग 20 लोगों ने मुझे वहीं खड़ी एक टाटा सूमो में मुझे ढकेल दिया. गाड़ी के अंदर पिटाई शुरू. वो कहीं भी मार रहे थे, कैसे भी मार रहे थे. जब उन्होंने मेरा पर्स छीना तो लगा चोर हैं कुछ लूटना चाहते हैं. एक घंटे बाद उनमें से एक ने कहा, ‘तू जानना चाहता है ना हम कौन है फिर उसने अपना आईडी दिखाया. तब मुझे पता चला कि वो लोग गढ़चिरौली स्पेशल ब्रांच के लोग थे.'
यातना का अंतहीन दौर
इसके बाद उन्होंने मेरी आंखों पर पट्टी बांध दी. मैंने उनसे कहा कि मैं जेएनयू का छात्र हूं. मैंने अपनी आई डी दिखाई. लेकिन वो तो जैसे सुनने को ही तैयार न थे. वो मुझ पर दबाव बनाने लगे कि वो जो कहते हैं मैं चुपचाप स्वीकार कर लूं. उन्होंने मुझे कहा कि तुम स्वीकार करो कि तुम नक्सलवादी नेताओं से मिलने जा रहे हो. अगर तुमने स्वीकार नहीं किया तो अंजाम समझ लो. ढ़ाई तीन घंटे बाद गाड़ी रूकी. सैनिक छावनी जैसी जगह थी. वहां वो मुझे एक कमरे में ले गए. वहां मैंने एक बोर्ड देखा जिस पर नाम लिखा था शुएज हक. मुझे बाद में पता चला कि वो हक साहब गढ़चिरौली के एसपी थे. उसने भी मुझे धमकी दी कि जो हम बोले वो स्वीकार कर लो.
पुलिसिया बाजीराव यानी टॉर्चर
20 अगस्त से लगातार 80 घंटे यानी लगभग तीन दिन तक उन्होंने मुझे बिल्कुल सोने नहीं दिया. इस दौरान वो मुझे लात मारते, गंदी गालियां देते और इसके अलावा उनके पास उनका बाजीराव तो था ही. बाजीराव एक चमड़े की चौड़ी सी बेल्ट थी. जिसे उन्होंने काफी ग्लैमराइज किया था. उस पट्टी की खासियत यह होती है कि उससे चोट तो बहुत लगती है लेकिन जख्म नहीं होता. इसको लकड़ी एक हैंडल में फिक्स किया जाता था ताकि ताबड़तोड़ चलाने के दौरान कोई दिक्कत न हो.
वो 80 घंटे....
उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे यह बात स्वीकार करनी होगी कि मैं माओवादी कमांडर नर्मदा से मिलने जा रहा था. ये बात सरासर झूठ थी तो स्वीकार करने का सवाल ही नहीं था. वो मारते जा रहे थे लेकिन मैं ये कैसे स्वीकार करता. इस दौरान मुझे एनकाउंटर की धमकी दी, एनस में भी पेट्रोल डालने की धमकी दी. नक्सलियों का ड्रेस भी पहनाया गया और कहा गया कि ये पहनाकर एनकाउंटर कर देंगे किसी को पता नहीं चलेगा. इस दौरान न मेरे घर में न कॉलेज में किसी को भी पता नहीं था मैं कहां हूं. जब एक झपकी भी आती तो मारते या पानी डाल देते. सामने वाले कमरे में दो आदिवासी लड़के थे उनको भी लगातार मारा जा रहा था. मैं उनकी चीख सुन सकता था और मेरी आवाज वो सुन सकते थे. अस्सी घंटे तक यह सिलसिला बिना रुके जारी रहा.
तीन दिनों बाद दी घरवालों को खबर
80 घंटे बाद यानी 23 अगस्त को हमको गढ़चिरौली के तहसील अहरी के एक लॉकअप में डाल दिया. फिर हमारा मेडिकल चेकअप हुआ. मैंने डॉक्टर को अपने जख्म दिखाए लेकिन मेडिकल तो बस रस्म अदायगी थी. उसी दिन मुझे मजिस्ट्रेट के आगे पेश किया गया. वो मराठी में बात कर रहे थे. पुलिस ने मजिस्ट्रेट को कहा उन्होंने मुझे अहिरी के बस स्टैंड से पकड़ा जबकि उन्होंने मुझे वहां से दो सौ अस्सी किलोमिटर दूर भल्लारशाह से पकड़ा था. मैंने मजिस्ट्रेट से जोरदार गुहार लगाई. मैंने कहा पुलिस की कहानी झूठी है. वहां बस ये गनीमत हुई कि मजिस्ट्रेट ने अपने सामने मेरे घर पर कॉल लगवाया और घरवालों को सूचना दी. मुझे दस दिनों की रिमांड पर भेज दिया गया. मुझे बीस तारीख को बंद कर दिया गया था लेकिन पुलिस ने बाईस तारीख दर्ज किया.
रिमांड में जारी रहा भयानक यातना का सिलसिला...
पुलिस ने मेरे ऊपर यूएपीए (अनलॉअफुल एक्ट ऑफ प्रीवेंशन एक्ट) लगाई थी. रिमांड के उन दस दिनों में मेरे ऊपर ज्यादती जारी रही. न मुझे ब्रश दिया गया न साबून न कपड़े. वहां गंदगी बदबू के बीच मैं दस दिनों तक पड़ा रहा. यहां दो तीन घंटे सो जरूर जाता लेकिन मेरे ऊपर टॉर्चर चलता रहता. दो शिफ्टों में मेरी पिटाई चलती. मुझ पर इस दौरान दबाव बनाया जाता कि पुलिस की स्टोरी मान लूं. इस दौरान एनआईए, छत्तीसगढ, मुंबई, दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तराखंड की इंटेलिजेंस आती रही और मेरा उत्पीड़न होता रहा. 20 अगस्त से कुल 27 दिन तक मुझे पुलिस रिमांड में रखा गया.
शुरू हुई जेल की जिंदगी
पुलिसिया यातना के 27 दिनों बाद नागपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया. घरवाले मिलने आए तो मेरे लिए कुछ सामान लाए. तब मैं नहा पाया, ब्रश कर पाया. वहां मुझको बैरक नंबर आठ में रखा गया. यहां ज्यादात्तर उन लोगों को रखा गया था जो नक्सलियों से संबंध के आरोपी थे. यहां कुछ तो मेरी ही तरह छात्र कार्यकर्ता थे. चंद्रपुर महाराष्ट्र के छात्र थे. दलित थे. वहां सुधीर धवले भी थे. (सुधीर धवले एक कलाकार और एक्टिविस्ट हैं. वह विरोधी नाम से एक मराठी पत्रिका भी निकालते हैं)
जेल का सामाजिक चरित्र
जेल में समर्थ तबका नहीं दिखता. ऐसे बहुत कम लोग जेलों में बंद हैं जिनकी आर्थिक हालत अच्छी है फिर भी जेल में पड़े हुए हों. नागपुर जेल में ज्यादात्तर आदिवासी, दलित या मुस्लिम थे. सामाजिक विभाजन साफ दिखता है. इसके अलावा चालीस से पचास आदिवासी नौजवान थे. स्कूल कॉलेज जाने की उम्र में
दो साल से तीन साल से जेल में थे. कुछ पर तीन कुछ पर पांच यहां तक की एक
पर पचपन केस तक दर्ज था. लोगों को डेढ़ साल तक पुलिस कस्टडी में रखा गया.
मुझको तब लगा कि जिस दर्द से मैं गुजर रहा
हूं उसी का हिस्सा और भी हजारों हैं. इसी असंतोष ने एक आंदोलन को जन्म दिया.
जब जेल में शुरू हुआ आंदोलन...
इसी असंतोष के चलते एक फरवरी 2014 को नागपुर अनिश्चित कालीन अनशन शुरू हो गया. मेरे अलावा 169 और कैदी इस अनशन में शामिल थे. नौ दिनों तक चले इस अनशन के दौरान तमाम कैदियों ने खाना त्याग दिया था. हम सिर्फ पानी पीते और अनशन पर बैठे रहते. अनशन में महिला कैदी भी शामिल थीं. बैरक नंबर आठ से मुझको और अन्य 21 लोगों को अनशन के पहले ही दिन अंडा सेल में भेज दिया गया. नौंवें दिन बंबई हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस वीके पाटील की मध्यस्था के बाद आंदोलन खत्म हुआ. आंदोलन के कारण यह हुआ कि लोगों की कोर्ट में पेशियां होने लगी. बेल मिलने लगी.
अंडा सेल में एंट्री
उस दिन के बाद से अपनी रिहाई तक मैं अंडा सेल में ही रहा. अंडा सेल चालीस मीटर के एरिया में फैला हुआ होता है. इसमें अलग-अलग विंग होते हैं. यहां कुछ 15 से 20 लोग होते हैं. एक विंग के लोग दूसरे विंग के लोगों से नहीं मिल सकते. अपने जेल के दो साल 19 दिनों में मेरा अधिकांश हिस्सा जेल के इसी हिस्से में बीता. अंडा सेल ने मुझसे जेल के सामान्य जीवन का अनुभव लेने का अवसर भी छीन लिया.40 मीटर के इलाके में मैंने अपने दो साल गुजार दिए.
प्रोफेसर साईं बाबा
जेल में हम रेडियो सुन सकते थे. यहीं मैंने सुना कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जी एन साईं बाबा को नक्सलियों से संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया गया. मैंने उनका पब्लिक लेक्चर सुना था. वो नाइंटी पर्सेंट विक्लांग थे. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक नब्बे फीसदी विक्लांग आदमी को एक सेपरेट अंडा सेल में रख देना जो अपने नेचुरल कॉल के लिए भी खुद नहीं जा सकता. उनकी सेहत इतनी बिगड़ी कि उनको एक साल बाद बंबई हाई कोर्ट ने बेल दिया. अंडा सेल में गर्मी भी लगती है. हर तरफ से खुला है तो पानी भी आता है. ठंड भी खूब लगती है. यानी यह जगह हर मौसम में ही तकलीफदेह थी.
कानून वालों को कानून सिखाने का इनाम...
अंडा सेल में रहने के दौरान मुझे तेज पीठ दर्द होने लगा. जेल के डॉक्टर ने मुझ गवर्मेंट मेडिकल कॉलेज में रेफर किया. मुझे जैसे ही गेट से बाहर निकाला गया कुछ पुलिसवाले मुझे हथकड़ी लगाने लगे. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि आप किसी को भी जेल से बाहर ले जाते हुए हथकड़ी नहीं लगा सकते. मैंने उनसे ये बात कही लेकिन उन्होंने कहा तुम्हारे नाम से कोई जजमेंट है. मैंने कहा भईया ये कानून है आपको मानना होगा. मैंने जब विरोध किया तो उन्होंने मुझको लात घूसों से मारा. घसीटकर बाहर तक ले गए. एक घंटे तक मार पिटाई की. इसके बाद वो मुझे वो इलाज के लिए भी नहीं ले गए.
नागपुर जेल के जेलर थे आतराम साहब. मैं उनके कमरे में दाखिल हुआ. मैंने उनको अपनी चोटें दिखाई. उन्होंने कहा मैं दोनों पक्षों की बात सुनुंगा. उन्होंने कहा आप लिख दो एफआईआर के रूप में और अपना मेडिकल करवाओ. मैंने मेडिकल करवाया लेकिन वो FIR आज तक किहीं नहीं भेजा गया. इस दौरान मैंने एक चिठ्ठी एक जज को भी भेज दिया था. उस पर जांच का आदेश भी आया लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ.
जेल से तो निकले मुश्किलों से नहीं...
दो साल बड़ा समय होता है. पढ़ाई बाधित हो चुकी है. सितंबर आठ तारीख को जेल से बाहर आया हूं लेकिन अभी तक मुझे गढ़चिरौली जाना होता है हर तारीख पर, हर हफ्ते अल्मोड़ा थाने में हाजिरी देनी होती है. मेरी गिरफ्तारी पर बीस हजार से अधिक लेटर नागपुर जेल प्रशासन को प्राप्त हुए. अमेरिका से यूरोप से, जेएनयू के छात्र, स्टूडेंट यूनियन, टीचर्स ने देश भर में भी कई हिस्सों से मेरे समर्थन में लोग आए. एक अच्छी लीगल टीम भी मिली. इसी के कारण मैं दो साल उन्नीस दिन बाद मैं जेल से निकल सका.
जेएनयू में नक्सली और नशेड़ी बराबर देशद्रोही
कोई भी सरकार हो JNU के छात्र हमेशा किसी भी अन्याय के पक्ष में सबसे पहले आवाज उठाते हैं. हम सरकार की धुन पर न गाएं तो हम पर अलग-अलग किस्म के इल्जाम लगते हैं. मुझ पर पुलिस का आरोप है कि मैं नक्सलियों का कूरियर हूं. मुझसे पहले विनायक सेन पर भी यही आरोप लगा था. जीतन मरांडी एक कलाकार था जिसको फांसी की सजा दे दी गई थी बाद में उसको बरी किया गया. इस किस्म के कई लोगों को जेल में बंद किया गया है. तो इस किस्म के तमाम लोग जो सरकार या व्यवस्था विरोधी आंदोलनों में शामिल रहे हैं उन सबको इस किस्म के षड़यंत्रों में शामिल किया गया है
असहिष्णुता का आरोप
सत्ता का चरित्र एक जैसा ही है. कांग्रेस के राज में ही हम कौन सा खुशहाल थे. ये जरूर है कि बीजेपी के आने के बाद धार्मिक कट्टरता आई है. कमजोर लोगों की आवाज सत्ता में बैठने वाले लोगों ने सुनना बंद कर दिया है. हमने उनसे पूछा कि इन सब का हल क्या दिखाई देता है तो हेम मिश्रा गिर्दा के गीत लाने लगते हैं. गिर्दा उत्तराखंड के मशहूर जनकवि माने जाते हैं. मिश्रा जो गीत रहे थे वो हम आपको सुना तो नहीं सकते पढ़ा रहे हैं.
(तस्वीर हेम मिश्रा की फेसबुक वॉल से)