ग्लेशियरों के पिघल जाने पर आने वाले कुछ दशकों में पृथ्वी के अस्तित्व के समक्ष खतरा पैदा होने जैसी बातों को महज ‘अटकलबाजी’ करार देते हुए भारत के शीर्ष हिम वैज्ञानिक ने कहा है कि हिमालय के जिन ग्लेशियरों के पिघलने की बात उठ रही है, उनमें से महज दो से तीन हजार को ही भूमंडलीय तापमान में वृद्धि के चलते खतरा हो सकता है.
आईपीसीसी की चौथी आकलन रिपोर्ट में हिमालयी ग्लेशियरों के 2035 तक पूरी तरह पिघलने के अनुमान को गलत साबित करती पर्यावरण और वन मंत्रालय की रिपोर्ट को पिछले वर्ष तैयार चुके भारतीय भूविज्ञान सर्वेक्षण के पूर्व उप निदेशक रैना ने कहा कि यह कहना सरासर गलत है कि आने वाले दशकों में सारे ग्लेशियरों के पिघल जाने के बाद पृथ्वी ही खत्म हो जायेगी.
उन्होंने कहा कि पृथ्वी 4.5 सौ करोड़ वर्ष पुरानी है और चंद दशकों में उसके अस्तित्व को खतरा नहीं हो सकता. हालांकि, तापमान को ग्लेशियर ही प्रभावित करते हैं और कार्बन उत्सर्जन की बेहद गंभीर समस्या के चलते उन्हें नुकसान भी पहुंच रहा है.
रैना ने कहा कि पृथ्वी के अस्तित्व को ग्लेशियरों से जोड़कर देखा जा रहा है, जो पूरी तरह सही नहीं है. हिमालय के भारतीय क्षेत्र में करीब 9,575 ग्लेशियर हैं. इनमें अगर खतरा होगा तो सिर्फ दो से तीन हजार ग्लेशियरों को होगा. गौरतलब है कि आईपीसीसी की रिपोर्ट के दावे के प्रत्युत्तर के रूप में आयी पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया था कि हिमालयी ग्लेशियर पिघल रहे हैं लेकिन उनके पिघलने की रफ्तार ऐसी नहीं है कि 2035 तक वे पूरी तरह विलुप्त होकर पृथ्वी के अस्तित्व के समक्ष खतरा पैदा कर देंगे.
रैना ने कहा कि ग्लेशियर तीन तरह के होते हैं. पहले वे ग्लेशियर होते हैं जो पूरी वादी जितने आकार के होते हैं और तीन से चार किलोमीटर के क्षेत्र में फैले होते हैं. दूसरे ग्लेशियर अधिकतम एक किलोमीटर के दायरे में फैले होते हैं, वहीं तीसरी तरह के ग्लेशियर काफी उंचे होते हैं. भारत के हिमालयी क्षेत्र में ऐसे ग्लेशियरों की संख्या दो से तीन हजार के बीच है.
उन्होंने कहा कि अगर इन ग्लेशियरों की हिम रेखा पांच से छह मीटर की रफ्तार से उंची उठती है और कुछ दशकों में अगर ये कुल मिलाकर दो सौ से तीन सौ फुट तक उपर उठ जाते हैं तो इनके उपरी तापमान के संपर्क में और अत्यधिक गर्मी की सीधी चपेट में आने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे में ये दो से तीन हजार ग्लेशियर पिघल सकते हैं लेकिन यह कहना गलत है कि इससे पृथ्वी ही नष्ट हो जायेगी.
पृथ्वी के पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से 1970 में तत्कालीन अमेरिकी सीनेटर गेलॉर्ड नेल्सन ने अमेरिका में हर वर्ष 22 अप्रैल को ‘अर्थ डे’ मनाने की शुरुआत की. इसके बाद से हर वर्ष यह दिन विश्व के 175 देशों में मनाया जाता है. पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले गैर.सरकारी संगठन ‘टॉक्सिक लिंक्स’ के रवि अग्रवाल कहते हैं कि अगर हमें पृथ्वी को बचाना है तो हमें कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर ध्यान केंद्रित करना होगा. उन्होंने कहा कि विश्व के देशों ने कोपेनहेगन में इसकी पहल की लेकिन भारत और चीन जैसे चंद देशों की ओर से ही स्वैच्छिक कटौती की बात कही. अगर औद्योगिक रूप से विकसित देशों को व्यापक कार्बन कटौती के लिये राजी नहीं किया गया तो पृथ्वी का अस्तित्व खतरे में होगा.
अग्रवाल ने कहा कि पृथ्वी को बचाना है तो सरकारों को उद्योग जगत को साथ लेकर चलना होगा क्योंकि उन्हीं के चलते कार्बन उत्सर्जन और अन्य तरह के प्रदूषण में इजाफा हुआ है.
उन्होंने कहा कि खासतौर पर भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिये कार्य योजना जरूर तैयार की है लेकिन इस योजना को सही मायनों में लागू करना चुनौतीपूर्ण होगा.