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घर... दिवाली पर तुम बहुत याद आते हो !

त्योहारों के जश्न से दूर दिल्ली में यायावरी की जिंदगी बिताने वालों की कहानी...

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Diwali
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दिवाली की धूम-धाम शुरू हो गई है. दुकानों को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है लेकिन इस साल भी ऑफिस से छुट्टी नहीं मिलने के कारण अपने घर नहीं जा रही हूं. पिछले साल भी घर से दूर ही थी.

मुझे याद है कि पिछले साल दिवाली के एक दिन पहले से ही मां लगातार फोन किए जा रही थी, 'बेटा लक्ष्मी और गणेश जी की मूर्ति खरीद लेना, लड्डू बढ़िया लाना, कोई नया कपड़ा खरीदा या नहीं, ऑफिस में छुट्टी तो देंगे न, दोस्तों को अपने घर बुला लेना....वगैरह. अगर पूरी लिस्ट के बारे में लिखना शुरू करूं तो शायद कभी खत्म नहीं होगी.'

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ठीक दिवाली के दिन मैंने घर में तो बता दिया कि ऑफिस में छुट्टी है, जबकि छुट्टी नहीं थी. नई नौकरी मिलने के कारण छुट्टी मांगने की हिम्मत भी मुझमें नहीं थी और सबसे बड़ी बात किराए के कमरे में घर से इतनी दूर रहकर भला कोई दिवाली के दिन क्या जश्न मनाएगा, इसलिए ऑफिस जाना मुझे बेहतर ऑप्शन लगा.

ऑफिस में भी उस दिन कुछ खास काम नहीं था, इसलिए बार-बार मन में यही ख्याल आता रहा है कि क्या मतलब है ऐसी जिंदगी और ऐसे पैसे का जिसमें आप परिवार के साथ खुशियां मनाने के लिए भी इकट्ठा न हो सकें.

ऑफिस से निकलकर बहुत देर तक मैं खोयी हुई सी बस स्टैंड पर खड़ी रही. जब एक घंटा बीत जाने के बावजूद बस नहीं आई तो मैंने ऑटो रुकवाया और बैठ गई. मैं आदतन हर ऑटो वाले से यह जरूर पूछ लेती हूं कि वह कहां का रहनेवाला है. यही काम मैंने यहां भी किया. बस मैंने इतना ही पूछा था 'भैया आप कहां के रहनेवाले हो, दीवाली में घर नहीं गए.'

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इसके बाद तो उस ऑटोवाले ने एक लंबा लेक्चर त्योहार, ट्रेन और बिहार पर दे डाला. लेकिन उसकी बातों में दम था. वह एक आम बिहारी की तरह था, जो दिल्ली बेहतर जिंदगी की तलाश में आता है मगर यहां की भीड़ में खोकर रह जाता है.

उसने कुछ ऐसे कहा, 'मैडम, दिवाली पर घर तो तब जाएंगे न, जब जेब में बच्चों और बीवी के लिए कपड़े, मिठाई और पटाखे के पैसे हों, यहां तो मेरे पास कुछ नहीं है, ऊपर से छठ भी आ रही है. इसलिए किसी से 2 हजार रुपये उधार लेकर घर भेज दिए. मैं नहीं गया. अब कमाने के लिए बाहर निकले हैं तो क्या दिवाली और क्या छठ. वहां की सरकार को कुछ फर्क ही नहीं पड़ता. मैं तो कहता हूं कि इन त्योहारों को भी खत्म हो जाना चाहिए क्योंकि इसे मनाने के लिए भी तो पैसे चाहिए होते हैं.'

उसकी बातें सुनकर ऐसा लगा जैसे गांव से दूर शहर आकर बसना और यहां की मुसीबतें झेलने की बात कोई यायावर ही समझ सकता है.

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