सेशनः कैसे लिखी अपनी पहली किताब
स्पीकरः अमीश त्रिपाठी
पत्रकारों के साथ इंटरव्यू चल रहा था. एक लड़की ने कहा कि आप बहुत प्रेरक हैं. मैं सुनकर कुछ घबरा सा गया. मैंने कहा कि अरे मैंने ऐसा क्या किया है कि मैं किसी को प्रेरणा दे सकूं. उसने कहा कि मैं अपने जॉब, अपने बॉस से नफरत करती थी. सैलरी कम लगती थी. फिर उसके हाथ शिवा ट्रायोलजी लगी और उसे लगा कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. फिर उसने तय किया कि वह भी नौकरी छोड़ेगी और किताब लिखेगी.
Mind rocks: दलालों को विधानसभा नहीं जाने दूंगा: केजरीवाल
मुझे लगा कि अगर लिखे का इतना असर है, तो अगर मैं अभी इस लड़की से कह दूं कि जाओ, इस्तीफा दे दो, जो चाहो वो करो, तो ये कर देगी. मगर जिम्मेदारी भी थी. तो फिर मैंने उसे ये बताना तय किया कि मैंने लेखक बनने का फैसला किसी आवेग में नहीं लिया था.
क्लीशे है, मगर रातों-रात मुझे भी कामयाबी भी नहीं मिली. आठ साल लगे इस वक्त के लिए सबसे पहली मुश्किल थी कि कैसे लिखें. आज से पहले कभी कुछ भी फिक्शन नहीं लिखा था. कॉलेज में महा घटिया पोएट्री लिखता था, जिसे तब मेरी गर्लफ्रेंड और अब वाइफ सुनती थी.
Mind rocks: आज तक औरतों को दंगा करते नहीं देखाः किरण बेदी
फिर जब तय हुआ कि मैं किताब लिखूंगा तो मेरे दोस्तों ने मजाक बनाया. उन्हें लगता था कि मैं क्रिएटिविली चैलेंज्ड हूं, तब मैं बैंक की नौकरी कर रहा था. मगर मेरे परिवार ने सपोर्ट किया. ध्यान रहे कि पहली दो किताबों के लिखे जाने तक मैं नौकरी कर रहा था. तो ये बेहद जरूरी था.
तो पहली समझदारी ये है कि आपमें बिलाशक टैलेंट होना जरूरी है, मगर उसके साथ चाहिए कड़ी मेहनत और अभ्यास. मेहनत का कोई विकल्प नहीं है. और इसका इस्तेमाल होता है लगातार अभ्यास में. दूसरा प्वाइंट है खुद पर यकीन होने का. सेल्फ बिलीफ. लोग मुझसे पूछें कि क्या आपके अंदर सेल्फ बिलीफ है. अगर किताबों के बारे में पूछा जाएगा तो हां, इसका जवाब हां में है. मगर क्या जिंदगी के हर मोर्चे पर मेरे पास सेल्फ फिलॉस्फी है. तो शायद जवाब खोजना पड़े.
जब मेरी पहली किताब कई पब्लिशर के पास जा रही थी. तो सब रिजेक्ट कर रहे थे. कह रहे थे कि इसमें बहुत ज्ञान है. एकआध थोड़ा बहुत रुचि दिखा रहे थे. मगर मैं किसी भी बदलाव के लिए तैयार नहीं था. मेरे लिए किताब उसमें लिखा हुआ, बहुत निजी था. सब कुछ पर्सनल था. इसलिए मैंने इस बात की परवाह नहीं कि लोग किताब के बारे में इम्मॉरटल्स ऑफ मेलूहा के बारे में क्या कह रहे हैं. इससे मुझे ये यकीन आ गया कि फेल होने या नाकामयाब होने का डर नहीं ठहरना चाहिए. जरूरत अपना अंदरूनी विश्वास पाने की, उसके संकेत समझने की है.
आखिरी बात जो मैं कहना चाहता हूं वह है आशावाद. कुछ ही लोग हैं, जो चांदी की चमची के साथ पैदा हुए हैं. उनके लिए चीजें सुलभ हैं. मगर हम ज्यादातर हिंदुस्तानियों के लिए चीजें आसान नहीं है. कि बस एक रोज उठे और सब छोड़ सपना पूरा करना शुरू कर दिया. तो जिम्मेदारियों से, रोजमर्रा की चीजों से बचने की फिराक छोड़िए. आप अपनी नौकरी और बाकी चीजों के साथ भी अपने सपने का पीछा करना शुरू कर सकते हैं.
अपने राइटिंग के शुरुआती 6 सालों में मैंने तीन काम किए. नौकरी की. किताब लिखी और फैमिली के साथ वक्त बिताया तो अपने साथ कठोर बनिए.उम्मीद रखिए. सामान्य रहकर भी असामान्य कामों की नींव रखी जा सकती है.
अमीश के साथ सवाल जवाब
सवालः आध्यात्मिकता का सवाल, कैसे अपने आस्था केंद्र बनाएं. जब इतने कर्मकांड हैं?
जवाबः अमीश का जवाब. ये सही सवाल है कि अगर कर्मकांड समझ ही नहीं आते तो उन्हें क्यों किया जाए. सवाल पूछना गलत नहीं है. गैरभारतीय नहीं है. आप भगवद गीता पढ़िए. कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि मेरा काम तुम्हें ज्ञान देना है. मगर तुम्हारे पास मस्तिष्क है, उसका इस्तेमाल करो, ज्ञान की विवेचना करो और जो तुम्हें सही लगे, वह करो.
हम क्रिकेट खेलते हैं. अगर आउटफील्ड में प्रैक्टिस कर रहे होते हैं, तो कोच बार बार चीखता है. सर मत हिलाओ. सर फिक्स्ड रखो. क्यों कहता है वह. रिचुअल सा क्यों बनता है. अगर वह बैठकर समझाने लगे कि बॉल जब हवा में होती है, तो कितना स्विंग करती है, कैसे आपकी तरफ प्रोजेक्ट होती है. तो बहुत वक्त लग जाए, और उस वक्त ये कैलकुलेशन नहीं हो सकती. अगर सिर फिक्स्ड रहेगा तो नजर फिक्स रहेगी औऱ बॉल की ट्रैजक्टरी को ठीक से फॉलो कर सकेगी. प्रिडिक्ट कर सकेगी. मगर ये नियम हर जगह लागू नहीं हो सकता. अगर बैडमिंटन में सिर फिक्स रखेंगे तो हार जाएंगे. क्योंकि वहां बार बार लगातार नए नए ढंग और रास्तों से शटल आ रही है. तो आपको अपने कर्मकांडों को देखना होगा. अगर समझ आएं और आपको ताकत दें तो चुनना होगा.
दूसरा सवालः देश में धर्म का सवाल आपसी नफरत का सवाल बन गया है. और राजनीति में तो इसका इस्तेमाल गलत नीयत के साथ ही किया जाता है.
अमीश का जवाबः मैं राजनीतिक सवालों पर जवाब नहीं देता. पहली वजह, मेरी राजनीति की समझ बहुत अच्छी नहीं है.
खैर, अगर धर्म की बात करें तो ये सच है कि हर धर्म में कुछ कट्टरपंथी हैं. मगर ज्यादातर लोगों के लिए धर्म का मतलब शांति और आस्था है. जरूरत उन लोगों को अपने यकीन को संचालित करने वालों पर ध्यान देने की है.
सवाल- मूर्ति पूजा पर आपका क्या रुख है?
अमीश का जवाबः जब मुझे बुलाया गया तो कहा गया कि हल्का फुल्का फन सेशन है. अच्छा सवाल है.अगर आप वेदों में जवाब खोजें, तो मिलेगा ईश्वर का कंसेप्ट चार स्तरों पर है. सबसे ऊपर है निर्गुण निराकार ईश्वर.उसका कोई जेंडर नहीं, पहचान नहीं है. पुराने वक्त में इसे ब्रह्मन कहते थे. इसे कास्ट के साथ कन्फ्यूज न करें. इसे एकम भी कहते थे. इसे सबसे सुप्रीम माना जाता था.
मगर यह सबको समझ नहीं आ पाता था. तो जो लोग फॉर्मलेस गॉड को समझने को तैयार नहीं थे. उनके लिए फॉर्म आए. जैसे शिव, विष्णु... फिर आया अवतार का कंसेप्ट, जहां ह्यूमन फॉर्म में आए ईश्वर, जैसे राम और कृष्ण... फिर आए वे इंसान, जो ईश्वर के समकक्ष पहुंच गए. बुद्ध, महावीर...