भारी शोर के बीच ब्लैक पैंट और स्काई ब्लू फुल शर्ट में माइंड रॉक्स समिट-2013 की स्टेज पर पहुंचे हैंडसम चार्मिंग स्टार टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस जो हाल ही में यूएस ओपन का डबल्स जीतकर मुल्क लौटे हैं. सुनिए क्या कह रहे हैं पेस, उन्हीं की जुबानी.
दिल्ली आना पसंद
इसीलिए मुझे दिल्ली आना पसंद है, यू गाइज रॉक. अरुण और रेखा पुरी को शुक्रिया, जो काम आप कर रहे हैं, नए इंडिया को प्लेटफॉर्म देने के लिए. जो पुल आप बना रहे हैं पीढ़ियों के बीच. मैं एक्सीलेंस के बारे में बात करूंगा, जूनून के बारे में बात करूंगा, हम क्या बनना चाहते हैं, इंडिया कैसा बनना चाहता है.
माइंड रॉक्स के आगाज में 'अंतरिक्ष' ने जमाया रंग
पापा का एक ड्रीम था
मेरे पिता का एक ड्रीम था. मैं आपसे शेयर करना चाहता हूं. मेरे पेरेंट्स एथलीट थे. 1972 में पापा ने ओलंपिक खेला. बचपन में ही पापा ने तय सा कर लिया था कि इसे एथलीट बनाना है. जब मैं रंग-बिरंगे बुलबुलों को पकड़ने के लिए उछलता था तो नहीं समझ पाता था कि ये एब्स की एक्सरसाइज है. जब मैंने 96 ओलंपिक में मेडल जीता, तो पापा को लगा कि ये मेडल सबसे ज्यादा कीमती है. आज जब जीतकर आता हूं, तो पापा सबसे बाद में मिलते हैं, लेकिन जब हारता हूं तो सबसे पहला फोन उनका होता है.
फुटबॉल से चला आया टेनिस की ओर
8-9 साल का था तो फुटबॉल खेलना चाहता था. 12 का था तो यूरोप के जूनियर सॉकर प्रोग्राम के लिए सेलेक्ट हो गया था. तब कहा गया कि यूरोप जाओ और किसी क्लब के लिए खेलो. झंडे और देश फेर में मत पड़ो. मैंने छोड़ दिया. वापस आ गया. मुश्किल था ये फैसला. उस वक्त आप फन करना चाहते हैं, एक्सप्लोर करना चाहते हैं. फिर पापा ने कहा कि टेनिस खेलो.
तो ये तय हुआ कि दुनिया की बेस्ट एकेडमी में जाऊंगा. एक साल कोशिश करूंगा. फिर तय करूंगा.
जिस दिन एकेडमी के लिए गया मेरे पेरेंट्स अलग हो गए. भावनात्मक रूप से मुश्किल था मेरे लिए. एकेडमी में पहला साल बेहद मुश्किल था. एकेडमी के उस बैच में कुल आठ लोग थे और मैं उम्र में सबसे छोटा था. मैं रात में सो नहीं पाता. उस वक्त टेनिस ज्यादा पॉपुलर नहीं था. स्ट्रक्चर नहीं था. लेकिन पांच साल बाद जूनियर सर्किट में टॉप पर पहुंच गया.
जर्मनी की वो सर्द शाम
जब मैं 18 साल का था तब की बात है. अक्टूबर 1991 में वूजबर्ग में था, जर्मनी में. अगले दिन से टूर्नामेंट था. मैं रात में कोर्ट में रुककर प्रैक्टिस करना चाहता था. स्टोर कीपर ने इजाजत तो दे दी लेकिन सारे दरवाजे लॉक कर दिए. सिर्फ एक खिड़की खुली छोड़ दी कि अगर कुछ इमरजेंसी हो तो मैं वहां से कूदकर भाग सकूं.
मगर ऐसा हुआ नहीं. उस बेहद सर्द रात में मैं अकेला जुटा रहा. वही जो जज्बा था मैं आपको बताना चाहता हूं. ये सोच थी कि हमें ये चाहिए और हम हासिल करके रहेंगे. उस रात के बाद मैं लगातार जीता और टूर्नामेंट में जीत हासिल की.
उसके बाद ये सिलसिला चल निकल पड़ा. मगर इन सबके बाद आज भी जो इकलौती चीज जिसका मुझे सबसे ज्यादा गर्व है. जो मैं आप तक पहुंचाना चाहता हूं कि अगर कोलकाता का एक यंग लड़का ये सब कर सकता है, तो आप भी कर सकते हैं.
सब कुछ झोंककर खेलिए जिंदगी का खेल
अगर आप वाकई गहराई से कुछ चाहते हैं. और ये चाहत बेहद मजबूत है, तो आपको सही लोगों, सही माहौल और सही सवालों का चुनाव करना होगा. सही मंच का चुनाव करना होगा.
आज मैं जो कुछ हूं, अपने परिवार, अपने साथियों और कोच की वजह से हूं. सही टीम के साथ, सही लोगों की सोहबत में होना बेहद जरूरी है. वही हैं जो आपको एक्सिलेंस की तरफ पुश करते हैं, कैटेलिस्ट का काम करते हैं.
अपने लोगों के लिए, अपने झंडे के लिए खेलना से बड़ा कोई जोश कोई जज्बा नहीं हो सकता.
पर हमेशा अच्छे दिन नहीं होते, कभी आप बहुत लो होते हैं एक्सिलेंस की इस जर्नी में .तब आपको अपनी ट्रिक बनानी होंगी, कुछ ऐसी तरकीबें जो उस धुंधलके में भी चेहरे पर मुस्कान की चमक और नए सिरे से सजाया यकीन ला सकें.
अगर आप जीत और हार, दोनों को हैंडल कर सकते हैं, तो आइए और जिंदगी का खेल खेलिए, पूरे जज्बे के साथ, सब कुछ झोंककर
पेस से सवाल जवाब
क्या बदलता दिख रहा है भारत में पिछले कुछ दशकों में?
मॉर्डन इंडिया में सबसे बड़ी चीज है उत्साह. पिछले 24 साल में टेनिस सेंटर बड़े पैमाने पर खुले हैं. फूड और फिटनेस को लेकर जागरूकता कई गुना बढ़ी है. मैं देश के सभी युवाओँ को इस नई लहर के लिए बधाई देता हूं. अगला लिएंडर, अगला सचिन बनने की ये ललक हमें आगे ले जाएगी. स्पोर्ट्स की हालत पहले से बिलाशक बेहतर हुई है.
क्या है जो लगातार चलने देता है. रिटायर नहीं होने देता. रुकने नहीं देता?
जिंदगी के लिए जुनून. भूख अभी नहीं मिटी है टेनिस के लिए. 5 फीट 10 इंच का हूं. टेनिस के लिए लिहाज से ये बहुत मजबूत पैर नहीं हैं. अब हमारी टीम काम कर रही है कि कैसे इसको बदला जाए. तो हर वक्त कुछ नया होता रहता है
मैं यहां आ रहा था ड्राइव के दौरान, एक बड़ी फिल्म का ऑफर आया है. नामी बैनर है. मसला एक्टिंग का नहीं है. मसला वक्त के भरपूर इस्तेमाल का है. वैसे मैं ज्यादातर वक्त अपनी बेटी अयाना के साथ गुजारना चाहता हूं
एक ग्राफिक नॉवेल है, लगभग पूरा हो चुका है. मैं भी बहुत उत्सुकता के साथ इन सबका इंतजार कर रहा हूं.
महेश भूपति का साथ क्यों छूटा. हमारे लिए ये हमेशा पेस-भूपति था. क्या गलत हो गया? लंदन ओलंपिक के पहले खबर मिली कि आपस में इतनी भी नहीं बन रही कि देश के लिए खेल सकें?
महेश और मैं 9 साल साथ रहे. जब वो कॉलेज में आया तो टेनिस को लेकर श्योर नहीं था. हम 95 में जकार्ता गए खेलने साथ में. सिंगल्स में वह हार गया था. मस्कट जाने वाला था. मैंने कहा कि जा क्यों रहे हो. डबल्स खेलते हैं. वो बोला पैसे नहीं है. पापा बुला रहे हैं. तब तक मैं सिंगल्स में भी खेल रहा था.
तो बात हुई कि चलो ट्राई करते हैं. मैं किसी भी इवेंट में सिर्फ पार्टिसिपेट करने के लिए नहीं जाता. तो होम वर्क करके गया था. वापस आए और हमने महेश को साइन किया और फिर जीतना शुरू किया. स्किल्स थीं हमारे भीतर. जीतने की भूख थी.
पिछले साल का ओलंपिक वाकया, मेरे जीवन का दुखद दिन था. राजनीति घर नहीं करनी चाहिए खेल में . जब वर्ल्ड रैंकिंग है. सेलेक्शन प्रोसेस है. बेंचमार्क है कि कौन देश को रिप्रजेंट कर सकता है. महेश को पता था कि अगर देश के लिए विनिंग पेयर है, तो वह, मैं और रोहन बोपन्ना हैं. मगर ऐसा हुआ नहीं.मैंने देश के लिए सेकंड ओलंपिक मेडल का मौका गंवा दिया. देश ने गंवा दिया.
मैं एथलीट के साथ एंटरटेनर भी हूं. अगर कोई पैसे खर्च करके पॉपकॉर्न लेकर हॉल में पहुंचता है, तो वहां भी मुझे बेस्ट देना है. मैं वहां सबको खुश करने के लिए नहीं हूं. लेकिन ईमानदार वहां भी रहूंगा. वही चीजें करूंगा जिनका कोई मतलब हो.
कितने ट्रेड मिल्स तोड़े हैं आपने अब तक अपनी लाइफ में?
अरे ये तो बहुत मजेदार सवाल है. हम्म्म कुल आठ मशीनें टूट चुकी हैं अब तक. अरे वाह, मुझे याद भी है ये.