केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने चार साल पूरे कर लिए हैं. इस मौके पर सरकार से उसके द्वारा किए गए कामकाज का हिसाब मांगा जा रहा है तो सरकार भी अपने प्रचार तंत्र के जरिए उपलब्धियों का बखान करने में जुटी है.
सरकार की सफलताओं-विफलताओं पर बहस के बीच एक बात दावे के साथ कही जा सकती है कि पिछले चार सालों में देश के बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों में जिस तरह छात्र-छात्राओं का आंदोलन राष्ट्रीय राजनीति में इर्द-गिर्द घूमता नजर आया वैसा पिछले कुछ दशकों में कम ही देखने को मिला है. अलग-अलग कैंपसों में जिस तरह की घटनाएं हुईं उसे देखकर सवाल उठा कि छात्र अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं या वे विचारधारा की लड़ाई का मोहरा बन गए हैं?
मोदी सरकार के इन चार सालों में ऐसे कई मौके आए जब देश के बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान के छात्र-छात्राएं सड़कों पर दिखाई दिए. नारेबाजी हुई. हड़ताल हुई. रैलियां निकलीं और कई बार तो पुलिस से छात्र-छात्राओं की भिड़ंत भी हुई. छात्र राजनीति में वैसे तो ये आम है लेकिन इस बार चीजें इसलिए थोड़ा अलग थीं क्योंकि मोदी सरकार के कार्यकाल में आंदोलनकारी छात्रों के निशाने पर खुद पीएम मोदी, बीजेपी और यहां तक कि आरएसएस भी रहा. यही वजह है कि बीजेपी को ये कहने का मौका मिला कि देश में हाशिए पर आया विपक्ष अब कैंपस के जरिए सरकार से छदम युद्ध लड़ रहा है और छात्र इसका मोहरा बनाए जा रहे हैं.
इस बारे में पूर्व जेएनयू छात्र और अनुवादक सुयश सुप्रभ कहते हैं, 'असल में हुआ यह कि इस सरकार में कैंपसों की स्वायत्तता कम हुई और छात्रों को प्राप्त अधिकारों में जबरदस्त कमी हुई. ऐसा खुल्लमखुल्ला हुआ और इस वजह से छात्रों का वो तबका जो अबतक अराजनैतिक था, राजनीति से जुड़ा और छात्रों द्वारा किए जा रहे विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा बना.’
हालांकि जेएनयू छात्र संघ के पूर्व ज्वाइंट सेक्रेटरी और एबीवीपी के सदस्य सौरभ शर्मा सुयश सुप्रभ के जवाब से इत्तेफाक नहीं रखते. बकौल सौरभ 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद कैंपसों में होने वाली राजनीति में जबर्दस्त गिरावट आई है और हर लड़ाई में एजेंडेबाजी हुई है.
aajtak.in से बात करते हुए सौरभ कहते हैं, 'बिल्कुल ऐसा हुआ है. आप हैदराबाद यूनिवर्सिटी में जो हुआ उसे ले लीजिए. जेएनयू में जो हुआ उसकी बात कर लीजिए. बीएचयू और एएमयू को भी शामिल कर लीजिए. इनसभी मामलों का राजनीतिकरण हुआ है. छात्रों की बात कहीं नहीं हुई. जो असल मुद्दे थे वो पीछे छूट गए और बात आरएसएस या नरेंद्र मोदी की होने लगी. इस पूरे ट्रेंड में जो सबसे अहम बात है वो यह कि ऐसा अनजाने में नहीं हुआ.’
अगर तथ्यों पर नजर डालें और घटनाओं की पड़ताल करें तो दोनों तरह के मामले मिलते हैं. जहां एक तरफ सरकार से जुड़े लोगों ने कैंपसों में पढ़ने वाले छात्र-छात्रों को लेकर आपत्तिजनक बयान दिए, वहीं कैंपसों के बहाने मोदी सरकार पर निशाना साधने की कोशिशें भी हुईं.
आपत्तिजनक बयानों में सबसे चर्चित रहा था बीजेपी विधायक ज्ञानदेव आहूजा का JNU में कंडोम वाला बयान. आहूजा ने 22 फरवरी 2016 को अलवर में एक रैली में कहा था, 'जेएनयू में रोजाना शराब की 4000 बोतलें, सिगरेट के 10 हजार फिल्टर, बीड़ी के 4000 टुकड़े, हड्डियों के छोटे-बड़े 50 हजार टुकड़े, चिप्स के 2000 रैपर्स और 3000 इस्तेमाल किए गए कंडोम मिलते हैं.'
जेएनयू की तरह सितंबर 2017 में बनारस में स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) उबल पड़ा. एक छात्रा के साथ कैंपस में हुई छेड़छाड़ के बाद भड़के छात्रा-छात्राओं के गुस्से का ताप इतना तेज था कि गर्मी दिल्ली तक महसूस की गई. घटना के दो-तीन दिन बाद बीएचयू से छात्रों का एक दल दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुआ. थोड़ी सी नारेबाजी और मीडिया को बाइट देने के बाद वक्ताओं के बोलने का दौर शुरू हुआ. इनमें एक नाम कांग्रेस के तत्कालीन युवा नेता शहजाद पूनावाला का भी था. उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत से आखिर तक पूरे मामले के लिए केंद्र की मोदी सरकार को जिम्मेदार बताया और बीजेपी, नरेंद्र मोदी व आरएसएस पर हमले किए.
कुल मिलाकर अगर पूरे मामले को संपूर्णता में देखें तो दोनों तरह के मामले सामने आते हैं. ऐसी कोशिशें भी दिखती हैं जब कैंपस के बहाने विपक्षी पार्टियों ने केंद्र की मोदी सरकार पर निशाना साधने की कोशिशें की वहीं ऐसे मामले भी दिखते हैं जो बताते हैं कि मौजूदा सरकार में कैंपसों का खुलापन, वाद-विवाद करने की व्यवस्था और सरकार से सवाल-जवाब करने की ताकत पर चोट हुई.
कैंपसों से जुड़े कुछ बड़े मामले
-हैदराबाद यूनीवर्सिटी में एक छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या की लेकिन कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल इसे 'संस्थागत हत्या' कहकर मोदी सरकार पर हमला करते हैं. खुद मोदी को इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़नी पड़ी और वेमुला की मां का जिक्र करते हुए उन्हें सबके सामने भावुक होते देखा गया.
-अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ कार्यालय में पिछले करीब 8 दशक से टंगी मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को स्थानीय बीजेपी सांसद ने मुद्दा बना दिया और ये मामला राष्ट्रीय स्तर पर बहस का बन गया, जिसके जरिए ध्रुवीकरण की कोशिश भी हुई.
-जामिया मिलिया इस्लामिया का अल्पसंख्यक दर्जे खत्म करने और अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी को ये दर्जा न दिए जाने के लिए सरकार एक्टिव हुई तो उसके विरोध में छात्र और विपक्षी दल लामबंद हुए.
-गजेंद्र चौहान को भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) पुणे का अध्यक्ष बनाया गया तो छात्रों ने इसके विरोध में ऐसा आंदोलन छेड़ दिया कि मामला महीनों सुर्खियों में रहा और दिल्ली तक उसकी गरमी महसूस की गई.