लालकृष्ण आडवाणी दिल्ली में अपनी रिहाइश को कोप भवन बनाए बैठे हैं. पार्टी दिग्गज उन्हें मनाने में जुटे हैं. मगर जिस नरेंद्र मोदी के राजतिलक से ये रार मची, वे गुजरात में मस्त हैं, व्यस्त हैं. सोमवार को आडवाणी के इस्तीफे के बाद भी मोदी अपनी बैठकों में व्यस्त रहे और दिल्ली तक सिर्फ फोन से ही संदेश पहुंचाया. फिर शाम को एक ट्वीट कर बताया कि मैंने आडवाणी जी से इस्तीफा वापस लेने का आग्रह किया.
अटकलें थीं कि अगले रोज यानी मंगलवार को मोदी दिल्ली पहुंचेंगे मनाने वालों की जमात में शामिल होने के लिए. मगर मोदी ने तो आडवाणी को चिढ़ाने वाला रास्ता चुना. जिन सरदार पटेल को आडवाणी रात दिन अपना आदर्श पुरुष बताते थे. जिन सरदार पटेल से आडवाणी की उनके दरबारी तुलना करते थे. जिनकी तर्ज पर पार्टी में आडवाणी के लिए लौह पुरुष का तमगा गढ़ा गया, उन्हीं की मूर्ति बनवाने के काम में व्यस्त हैं मोदी.
मोदी मंगलवार को गुजरात दौरा कर रहे हैं, ताकि सरदार पटेल की स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से भी बड़ी मूर्ति सुमद्र तट पर लगाई जा सके. बकौल मोदी, इसका नाम स्टैच्यू ऑफ यूनिटी होगा. इसके लिए वे गुजरात के हर कोने में जाएंगे. मोदी ने कहा कि मैं सिर्फ पैसे मांगने नहीं आ रहा हूं, मैं चाहता हूं कि आप पटेल की विरासत और उनके मूल्यों को सहेंजे.आखिर क्या मायने हैं इस मुहिम के. इसे समझने के लिए समझनी होगी आडवाणी की वो कशमकश, जो नंबर दो पर लंबे समय तक रहने से पनपी. देखें क्या हैं इस इंतजार कथा के पेच...
सत्ता को सिर्फ संख्या नहीं बनाती. इसके लिए चाहिए नायकों सी दिव्यता. नायक जो कई कहानियों के केंद्र में होते हैं. लाल कृष्ण आडवाणी ये बात बखूबी समझते थे. उनके समर्थक भी. सामने अटल थे, जो शायरना अंदाज में कहें, तो अपनी कहन से महफिल लूट लेते थे. ऐसे में आडवाणी सिर्फ जुमलों के सहारे नहीं रह सकते थे. हालांकि पहली बार केंद्र में सूचना और प्रसारण मंत्री बनने पर उन्होंने जो बयान दिया, वह इमरजेंसी के दौर की पत्रकारिता के हर जिक्र में दोहराया जाता है. आडवाणी ने कहा था कि ‘आप लोगों से झुकने को कहा गया और आप तो बस रेंगने ही लग गए.’
आडवाणी ने 1990 में राम रथ यात्रा निकाली. भाषण दिए. मगर जनता को याद रहे तो सिर्फ बीजेपी के नारे. ‘बच्चा बच्चा राम का’. सत्ता की गोंद ने अटल और आडवाणी को साथ रखा. मगर जब आडवाणी ने देखा कि एनडीए बनने के बाद वाजपेयी का कद तो पार्टी से बड़ा और देशव्यापी हो गया, तो उन्हें अपनी दावेदारी की याद आई. दोनों के बीच संतुलित तनाव पहले से ही था. अब बारी 'जोर लगाकर हइशा' करने की थी. शुरुआत वैंकेया नायडू ने की. उन्होंने एक कार्यक्रम में गृह मंत्री आडवाणी की तुलना लौह पुरुष से कर दी. लौह पुरुष यानी सरदार वल्लभ भाई पटेल. गुजरात का शेर. कांग्रेस का दक्षिणपंथी चेहरा. रियासतों को कभी प्यार से, तो कभी दरेरा देकर साथ लाने वाले. कश्मीर पर नेहरू की नीति के आलोचक. सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के पक्षधर.
ये सारी खूबियां सरदार को संघ के लिए मुफीद बनाती हैं, जो आजादी के आंदोलन में खुद अपने नायकों की कमी से हमेशा जूझता रहा है. ऐसे में आडवाणी की पटेल से तुलना पार्टी में एक और कल्ट फिगर (युग प्रवर्तक) की मौजूदगी और उनके कद की ऊंचाई की तरफ इशारा था. मगर इशारा अटल को भी मिल चुका था. उन्हें संघ बार बार कह रहा था कि अब आप भी विश्राम करें रायसीना की पहाड़ियों पर बने भवन में और सरकार की कमान आडवाणी को सौंप दें. कहने वाले रज्जू भैया थे. अटल के करीबी, संघ के सरसंघचालक. उन्होंने कमान सुदर्शन को दे दी थी. रज्जू भैया का ही वीटो था, जो मुंबई अधिवेशन के पहले यह तय हुआ कि बीजेपी मैदान में बेदाग अटल के साथ उतरेगी, हवाला कांड के आरोपी आडवाणी के साथ नहीं.
अब पांच बरस बाद रज्जू भैया आडवाणी का मान रख रहे थे. मगर आडवाणी तो सीरियस ही हो गए. नायडू इस लौह पुरुष बयान के बाद उनके और भी लाडले बन चुके थे. कुछ ही दिनों में वह वाजपेयी से मिले, संघ के इस रिटायरमेंट प्लान का हवाला देकर. वाजपेयी चुप रहे. जब बोले, तो सब चुप हो गए. उन्होंने कहा कि ‘न टायर्ड, न रिटायर्ड, आडवाणी जी के नेतृत्व में चुनावी विजय के लिए प्रस्थान’. विरोधी खेमे को साफ स्वर में बता दिया गया कि कमान संभालने के पहले चुनाव जीतना होता है. नंबर एक की लड़ाई रुक गई, मगर आडवाणी को लौह पुरुष बताने की चुभुलाहट राग दरबारी अंदाज में जारी रही. कांग्रेस ने मखौल भी उड़ाया कि बीजेपी के लौह पुरुष के समय ही कंधार हाईजैक के बाद आतंकवादी छोड़े गए थे.
फिर 2004 में जब एनडीए हारी, तो अटल ने सक्रिय राजनीति का अंत किया. आडवाणी विपक्ष के नेता बने. मैदान साफ था, मगर 2009 के चुनाव में पीएम इन वेटिंग का वेट पांच साल के लिए और बढ़ गया. मगर बेंच पर बैठे और गुजरात में हैट्रिक लगा चुके मोदी वेट नहीं चुनावी वेटलिफ्टिंग के लिए आतुर हो चुके थे.
जो मोदी कभी आडवाणी की रथयात्रा के सारथी रहे थे. वही अब उन्हें रथ पर और ऊपर, झंडे के प्रतीक रूप में, आशीर्वाद रूप में बस जाने को कह रहे थे. सारथी राजनाथ बन गए थे और मोदी ने धनुष उठा लिया था. मगर आडवाणी के पास एक अस्त्र बाकी था, जो अस्तित्व पर संकट के चलते चला ही दिया गया. पार्टी के नीति भटकने का आरोप लगा कर त्यागपत्र के बाण का संधान हुआ. ये निशाने पर तो लगा, मगर मोदी अभी भी मस्त दिख रहे हैं.
आज मंगलवार के दिन, जब पार्टी के सभी नेता और मोदी के अलावा सभी सीएम आडवाणी के कोप भवन में हाजिरी लगा रहे हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री अपने सूबे में घूम रहे हैं. मकसद, सरदार पटेल की प्रतिमा के लिए लोगों का सहयोग मांगना. प्रतिमा, जिसे स्टैच्यू ऑफ यूनिटी कहा जाएगा, जिसका कद स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से भी ज्यादा होगा.
संकेत साफ है. कद बढ़ चुके हैं, छंट चुके हैं और बदल चुके हैं. अब यूनिटी रहे न रहे, ‘सरदार कौन’ का फैसला होकर रहेगा. एक तरफ संघ की सरपरस्ती में मोदी हैं, जो रूठे आडवाणी से उनके रोल मॉडल यानी पटेल पर उनका हक छीनने को तैयार हैं, तो दूसरी तरफ वे, जो पितामह का प्यार नहीं भूले और कृतज्ञता से झुके जा रहे हैं.
कुरुक्षेत्र है ये...लड़ाई जरूरी है, ताकि सत्ता की शांति हासिल की जा सके.