मोदी सरकार का चार साल का कार्यकाल पूरा हो गया है. इस दौरान सरकार ने समाज के उन तबकों तक पहुंच बनाने और उनका भरोसा जीतने की कोशिश की जो बीजेपी के परंपरागत वोटर नहीं माने जाते. देश का दलित समुदाय भी ऐसा ही एक तबका है. दलितों को लुभाने की सरकार ने कई कोशिशें कीं मगर वह कितनी कामयाब हुईं? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए aajtak.in ने दलित मुद्दों के कई जानकारों से बात की.
केंद्र की मोदी सरकार ने 26 नवंबर 2015 को बड़े स्तर पर संविधान दिवस मनाया. अंबेडकर जयंती पर भी सरकार हर साल कई आयोजन करती है. खुद प्रधानमंत्री ऐसे आयोजनों में शामिल होते हैं. पीएम मोदी और बीजेपी समय-समय पर जनता को ये याद दिलाते हैं कि अंबेडकर को भारत रत्न कांग्रेस ने नहीं दिया बल्कि उनके समर्थन वाली वी पी सिंह सरकार ने 90 के शुरुआती दशक में ये सम्मान दिया.
मोदी सरकार अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 में संशोधन कर उसे और मजबूत बनाने का दावा करती है. बीजेपी ने दलितों के घर जाकर भोजन करने का अभियान चलाया हुआ है, लेकिन इन सब कवायदों के बावजूद दलितों का भरोसा जीतने में पार्टी और सरकार को सफल नहीं बताया जा रहा है. रोहित वेमुला की खुदकुशी का मामला, गुजरात का ऊना कांड, यूपी के सहारनपुर में हिंसा और भीम आर्मी पर एक्शन या एससी-एसटी एक्ट में बदलाव, मोदी सरकार को बार-बार दलितों के खिलाफ अत्याचार के आरोप में कटघरे में खड़ा किया गया.
मोदी सरकार के नाम पर खुद डॉ. भीमराव अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर तल्ख नजर आते हैं. वह दलितों को लेकर मोदी सरकार के कदमों को खारिज करते हैं और कहते हैं, ‘अंबडेकर के नाम पर कार्यक्रमों का आयोजन और दलितों के साथ सह-भोज एक छलावा है. मोदी सरकार दलितों के विकास में फेल रही है.’
आत्मा में कहां हैं अंबेडकर
दलितों के मसले पर निरंतर लिखने वाले अनिल चमड़िया कहते हैं, ‘दलितों के बीजेपी से न सटने की ठोस वजहें हैं. बीजेपी प्रतीकों के सहारे दलितों का दिल जीतना चाहती है, लेकिन वह उनका सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से विकास के एजेंडे को किनारे रख रही है.’
उदाहरण देते हुए अनिल चमड़िया बताते हैं, ‘बीजेपी के दोहरे रवैये को भीम एप से समझा जा सकता है. मोदी ने ऑनलाइन लेनदेन को बढ़ावा देने के लिए भीम एप लांच किया, लेकिन उसका पूरा नाम ‘भारत इंटरफेस फॉर मनी’है. इसमें डॉ. भीमराव अंबेडकर कहां हैं? मतलब आपकी आत्मा से अंबेडकर गायब हैं. अब यह मुमकिन नहीं है कि आप दिखाएं कुछ और करें कुछ और, दलित इस मंशा को समझने लगा है.’
अनिल चमड़िया यहीं नहीं रुकते. वह कहते हैं, आप (बीजेपी) दलितों के घर खाना खाएंगे, अंबेडकर जयंती मनाएंगे, लेकिन उसी के साथ यूजीसी का रोस्टर भी लागू कर रहे हैं जिसकी वजह से आरक्षण के प्रावधान बेअसर हो गए और उच्च शिक्षा के संस्थानों में दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्ग की सीटों पर कैंची चल गई. जेएनयू जैसे संस्थानों में सीटों की कटौती की गई जिसकी सबसे बड़ी मार दलित- आदिवासी, ओबीसी छात्रों के साथ लड़कियों को झेलनी पड़ रही है.
अंबेडकर को मानना और अंबेडकर की मानना में अंतर
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में प्रोफेसर विवेक कुमार अनिल चमड़िया की बातों से सहमत दिखते हैं और उनकी बातों को आगे बढ़ाते हुए बीजेपी के अंबेडकर प्रेम को छद्म करार देते हैं. वह कहते हैं, ‘अंबेडकर को मानना और अंबेडकर की मानना, इन दोनों बातों में फर्क है. बाबासाहब का सामाजिक संदेश समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित समाज का निर्माण था, लेकिन बीजेपी अंबेडकर के इन मूल्यों को ध्वस्त कर रही है. उसने संवैधानिक नैतिकता को तार-तार कर दिया है.’
विवेक कुमार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस दावे पर भी सवाल खड़े करते हैं जिसमें वह कहते हैं बीजेपी ने दलित को राष्ट्रपति बनाया. विवेक कुमार पूछते हैं कि राष्ट्रपति या राज्यपाल की राजनैतिक हैसियत क्या होती है?, इससे सब वाकिफ हैं. राष्ट्रपति में नाम मात्र की शक्तियां होती हैं और वह कोई कार्यकारी फैसले नहीं ले सकता.
वह कहते हैं, ‘इस तरह से देखा जाये तो कांग्रेस तो बीजेपी से कहीं ज्यादा संवैधानिक पदों पर दलित प्रतिनिधियों को नियुक्ति दी है. उसने राष्ट्रपति से लेकर तमाम संस्थानों के प्रमुख पदों पर दलितों को प्रतिनिधित्व दिया. पिछली यूपीए सरकार के दौरान यूजीसी का प्रमुख एक दलित सुखदेव थोराट को बनाया गया, जिन्होंने राजीव गांधी नेशनल फेलोशिप की शुरुआत की और इससे उच्च शिक्षा पाने में दलित और आदिवासी छात्रों को काफी मदद मिली, लेकिन अब उस फेलोशिप में कटौती को लेकर तमाम शिकायतें आ रही हैं.’
बकौल विवेक कुमार, ‘अंबेडकर के नाम पर बनी यूनिवर्सिटिज में वीसी के पदों पर दलितों की नियुक्ति कहां हो रही हैं, जो कुछ करने की हैसियत रखते हैं? कहने का मतलब है कि बीजेपी सरकार जो नियुक्तियां कर है उनमें कोई कार्यकारी शक्तियां निहित नहीं हैं या ऐसे दलित प्रतिनिधियों को चुन रही है जो कठपुतली मात्र बने रहें.’
दलित उत्पीड़न पर चुप्पी
रोहित वेमुला की खुदकुशी को दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ‘सांस्थानिक हत्या’ करार दिया और यहीं से शुरू हुए दलित उत्पीड़न के अंतहीन सिलसिले को मोदी सरकार रोकने में नाकाम रही और इसका खामियाजा उसे तमाम चुनावों में भुगतना पड़ रहा है.
रोहित वेमुला की खुदकुशी की वजह हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्याल के वीसी अप्पा राव के रवैया को बताया गया, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी उनके साथ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मंच साझा करते हुए नजर आए.
इसी तरह गुजरात के ऊना में मरी हुई गाय का खाल निकालने पर दलितों की हिन्दू कार्यकर्ताओं द्वारा निर्मम पिटाई हो, राजस्थान में दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल की हत्या का मामला हो, भीमा कोरेगांव में दलितों के खिलाफ हिंसा हो या सहारनपुर में हिंसा और दलित युवा चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ पर योगी सरकार द्वारा रासुका लगाने का मुद्दा या एससी/एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट के संशोधन के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने में केंद्र सरकार की लेटलतीफी की कहानी, इन सब मसलों पर दलितों में गलत संदेश गया और पीएम की चुप्पी पर सवाल उठे.