नेता प्रतिपक्ष कोई रवायती पद नहीं है जो वकीलों की तरह अंतहीन बहस करने के लिए सृजित किया गया हो. संसदीय लोकतंत्र में यह चेक एंड बैलेंस के लिए जरूरी है. यह इसलिए भी जरूरी है ताकि संस्थाओं में पक्ष और विपक्ष के समन्वय से निष्पक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही बनी रहे.
भारतीय संसद की लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का न होना कोई असाधारण बात नहीं है. 1969 में पहली बार नेता प्रतिपक्ष पद पर किसी नेता को मान्यता दी गई. इसके बाद पांचवीं (1971-77), सातवीं (1980-84) और आठवीं (1984-89) लोकसभा के दौरान यह पद खाली ही रहा.
हालांकि, इस बारे में कानूनी परिचर्चा 2014 में शुरू हुई जब स्पीकर ने कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद देने से इनकार कर दिया. 2014 के चुनाव में कांग्रेस लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी, जिसके पास कुल 44 सदस्य थे. लोकसभा की कुल सीटों का दस फीसदी यानी 545 में कम से कम 55 सदस्य न होने के आधार पर कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष के लिए अधिकृत नहीं किया गया. इस बार सत्रहवीं लोकसभा में कांग्रेस ने घोषणा कर दी है कि उसके पास कुल 52 सदस्य हैं जो 10 फीसदी की शर्त पूरी नहीं करते, इसलिए वह नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मांगेगी. यह बेहद महत्वपूर्ण है कि अगली लोकसभा के गठन से पहले नेता प्रतिपक्ष के पक्ष या विपक्ष में कानूनी तर्क पेश किए जा रहे हैं.
नेता प्रतिपक्ष के 10 प्रतिशत की शर्त कैसे आई?
2014 में कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद देने के बारे में लोकसभा स्पीकर ने केंद्र सरकार के सर्वोच्च कानूनी अधिकारी अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी से सलाह ली थी. 23 जुलाई, 2014 को मुकुल रोहतगी ने जो सलाह दी, उसमें तीन मुख्य बिंदु थे. पहला, रोहतगी ने 1956 में लोकसभा स्पीकर के निर्देश 120 और 121(1)(c) का हवाला दिया. यह निर्देश कहता है कि अगर कोई पार्टी लोकसभा के कुल सदस्यों का 10 फीसदी सदस्य होने का कोरम पूरा नहीं करती है तो लोकसभा अध्यक्ष सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को नेता प्रतिपक्ष पद पर मान्यता देने के लिए बाध्य नहीं है.
हालांकि, निर्देश 120 कहता है कि लोकसभा अध्यक्ष सदन की प्रक्रिया को सुचारु रूप से चलाने के मकसद से सदस्यों के एक एसोसिएशन को संसदीय दल या समूह के रूप में मान्यता दे सकता है और लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होगा.
निर्देश 121(1)(c) कहता है कि संसदीय दल की मान्यता देने के लिए कम से कम निर्धारित कोरम पूरा होना चाहिए जो कि सदन के कुल सदस्यों का 10 फीसदी होता है. इन निर्देशों में नेता प्रतिपक्ष का कोई जिक्र नहीं है, जबकि यह संसदीय दल या समूह की मान्यता देने की बात करता है.
1956 के इन निर्देशों का उद्देश्य क्या था?
निर्देश 122 में 7 उद्देश्यों का उल्लेख है: (a) सदन में सीटें और ब्लॉक का अलॉटमेंट (b) संसद भवन में कमरे अलॉट करना (c) पार्टी मीटिंग के लिए कमेटी रूम अलॉट करना (d) आधिकारिक दस्तावेज की आपूर्ति करना (e) संसदीय समितियों के लिए नामांकन करना (f) बहस के लिए स्पीकर को नामों का पैनल सौंपना (g) सदन चलने के लिए सलाह लेना या सदन में सामने आए किसी भी अहम बिंदु पर चर्चा करना.
रोहतगी का दूसरा तर्क था कि नेता प्रतिपक्ष की मान्यता 'सेलरी एंड एलाउंसेज ऑफ लीडर ऑफ अपोजीशन इन पार्लियामेंट एक्ट, 1977' के दायरे में नहीं आती है, जबकि नेता प्रतिपक्ष के लिए जो भी नाम सामने आता है, 'सेलरी एंड एलाउंसेज आफ लीडर आफ अपोजीशन इन पार्लियामेंट एक्ट, 1977' उसे संवैधानिक मान्यता देता है और यह पहली बार था जब नेता प्रतिपक्ष पद को कानूनी तौर पर व्याख्यायित किया गया.
कानून का सेक्शन 2 कहता है कि निचले सदन यानी लोकसभा में विपक्ष में जो सबसे बड़ी पार्टी होगी, स्पीकर उसके नेता को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता देगा, लेकिन कम से कम 10 फीसदी सदस्यों के होने की शर्त का जिक्र कहीं नहीं है, जिसके आधार पर नेता प्रतिपक्ष चुना जाए. हालांकि, रोहतगी का तर्क है कि 1977 के विधेयक के पास होने के बाद भी सातवीं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद खाली ही रहा. नेता प्रतिपक्ष के लिए 1956 में दिया गया स्पीकर का निर्देश ही प्रभावी रहा.
2005 से 2010 तक लोकसभा के महासचिव रहे पीडीटी आचार्य का विचार अलग है. वे कहते हैं कि 'सेलरी एंड एलाउंसेज आफ लीडर आफ अपोजीशन इन पार्लियामेंट एक्ट, 1977' आने के बाद नेता प्रतिपक्ष के पद को संवैधानिक दर्जा मिला और यह स्थापित हुआ. इस विधेयक के पास होने के बाद 1956 का स्पीकर का निर्देश अप्रासंगिक हो गया. 1985 (Anti-Defection Law) में 10वीं अनुसूची के प्रभाव में आने के बाद सदस्य संख्या पर ध्यान न देकर हर विपक्षी पार्टी को महत्व दिया जाता है. 10वीं अनुसूची ने स्पीकर के निर्देश 120 को अप्रासंगिक बना दिया.
हालांकि, 1984-1990 के बीच लोकसभा के महासचिव रहे सुभाष कश्यप 1956 के स्पीकर के निर्देश को प्राथमिकता देते हैं. वे कहते हैं कि 1977 का एक्ट या कोई दूसरा कानून यह नहीं कहता है कि स्पीकर का निर्देश अवैधानिक है, लेकिन वे यह भी कहते हैं कि स्पीकर को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता देनी चाहिए, क्योंकि यह एक जिम्मेदारी का पद है और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि मजबूत सरकार के खिलाफ एक स्थायी विपक्ष भी हो.
रोहतगी का तीसरा तर्क सीवीसी एक्ट, आरटीआई एक्ट, लोकपाल और लोकायुक्त एक्ट और ह्यूमन राइट एक्ट के तहत बनने वाली चयन समितियों में नेता प्रतिपक्ष की मौजूदगी के बारे में था. उन्होंने कहा कि सीवीसी एक्ट और आरटीआई एक्ट में लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष के विकल्प के रूप में सबसे बड़ी पार्टी के नेता का प्रावधान किया गया है. इन चारों कानूनों में यह भी प्रावधान है कि अगर चयन समिति में कोई पद खाली है तो भी इसके द्वारा किया गया चयन अवैधानिक नहीं होगा, इसलिए रोहतगी ने नेता प्रतिपक्ष की वैधानिक जरूरत से इनकार कर दिया.
आगे क्या हो?
यह मायने नहीं रखता कि कानूनी बहस कौन जीत रहा है. संसद में प्रभावी विपक्ष के लिए नेता प्रतिपक्ष की अपनी महत्ता है. इसके अलावा सीवीसी, सीबीआई, सीआईसी, लोकपाल जैसी जवाबदेह संस्थाओं की नियुक्तियों में निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए भी नेता प्रतिपक्ष का होना बेहद जरूरी है. न ही इसे बढ़ा चढ़ाकर देखना चाहिए और न ही इसे कमतर देखना चाहिए. यह महत्व नहीं रखता कि कानून में कितना झोल या कितनी अस्पष्टता है, जैसा कि रोहतगी ने पेश की थी.पीडीटी आचार्य वेस्टमिंस्टर मॉडल का हवाला देते हैं जिसका भारत अनुसरण कर रहा है. इसमें विपक्ष अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है और नेता प्रतिपक्ष को 'प्रधानमंत्री की प्रतिछाया' कहा जाता है जो कि सरकार गिरने की हालत में चार्ज लेने के लिए तैयार रहता है. इसके अलावा सदन में नीतियां बनाने और विधायी कार्यों में नेता प्रतिपक्ष का काम विपक्ष को एकजुट करना और प्रभावी बनाए रखने का होता है. वे कहते हैं कि नेता प्रतिपक्ष को मान्यता देने के लिए अब संसद से पास किया गया कानून मौजूद है, इसे लागू किया जाना चाहिए.
आचार्य दिल्ली विधानसभा के उस अनुकरणीय उदाहरण का भी जिक्र करते हैं जब 2015 में बीजेपी को 70 में सिर्फ 3 सीटें मिलीं. फिर भी स्पीकर राम निवास गोयल ने बीजेपी नेता विजेंदर गुप्ता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया.