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जमीन की जंग में फंसी मोदी सरकार

भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन अध्यादेश के जरिए आर्थिक सुधारों में तेजी का माहौल बनाने को बेसब्र सरकार दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार और चैतरफा विरोध से पसोपेश में.

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इलाहाबाद के पास करछना में पावर हाउस के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ धरने पर बैठे किसान
इलाहाबाद के पास करछना में पावर हाउस के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ धरने पर बैठे किसान

एक हार क्या आई, नौ महीने से बज रहा जयकारे का नक्कारा अचानक खतरे की घंटी में बदल गया. 31 दिसंबर, 2014 को भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश लाकर आर्थिक विकास के एजेंडे पर आक्रामक ढंग से आगे बढ़ रही नरेंद्र मोदी सरकार अब सोच में पड़ गई है. पहले से ही धनवानों के हितों को बढ़ावा देने के आरोपों से घिरी सरकार को यह बताना होगा कि वह किस दबाव में एक ऐसा अध्यादेश ले आई जो किसानों को उस हालत में लाकर खड़ा कर देता है, जहां सरकार जब चाहे किसानों के मुंह पर मुआवजे की रकम मारे और उसकी जमीन हथिया ले.

इसीलिए दिल्ली विधानसभा चुनाव में हाथ मलती रह गई कांग्रेस पहले ही देश भर में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ आंदोलन शुरू कर चुकी है. बिहार में जिस तरह तेजी से सियासी समीकरण गड्ड-मड्ड हुए हैं, उसमें नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की भी मजबूरी है कि वे इस अध्यादेश को विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी के खिलाफ सबसे बड़ा मुद्दा बना दें. अब तक हाशिए पर रहे आम आदमी पार्टी के चार सांसद भी संसद में इस मुद्दे पर मुखर हो जाएंगे, क्योंकि अध्यादेश का विरोध पार्टी के चुनाव घोषणापत्र का अभिन्न हिस्सा है. इसके अलावा वाम दल और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस तो पहले ही तलवार म्यान से बाहर निकाल चुकी हैं. सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे ने घोषणा कर दी है कि इस अध्यादेश का विरोध करने के लिए बजट सत्र के पहले दिन 23 फरवरी को वे दिल्ली में जमा होंगे, तो स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर बजट पेश होने के दिन 28 फरवरी को इसी मुद्दे पर हजारों किसानों के साथ पलवल से दिल्ली तक मोर्चा निकालेंगे. यानी तख्तनशीन होने के बाद मोदी पहली बार ऐसे चौतरफा विरोध का सामना करेंगे जो सीधे देश की 60 फीसदी किसान आबादी के वजूद से जुड़ा है.
भूमि अधिग्रहण कानून 2014

चूक गई मोदी सरकार
तो क्या मोदी सरकार के रणनीतिकारों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि यह अध्यादेश इतना बखेड़ा खड़ा करेगा. दरअसल सरकार की रणनीति थी कि पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव जीत लिया जाए, बिहार विधानसभा चुनाव उसके करीब नौ महीने बाद होने हैं. नौ महीने का यह शांतिकाल सख्त फैसले लेने का सबसे रणनीतिक समय होगा. ऐसे में बजट सत्र में भूमि अधिग्रहण पर नया कानून लाया जाए. कानून के मुख्य सूत्रधार अरुण जेटली और नितिन गडकरी की मंशा थी कि बड़े उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण करना पूरी तरह आसान बना दिया जाए.

लेकिन पुराने कानून को संसद से अनुमोदित कराने की मियाद 31 दिसंबर को खत्म हो रही थी, यहां आकर सरकार फंस गई. ग्रामीण विकास मंत्रालय के सूत्र बताते हैं, “ऐसे में दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले इसे अपेक्षाकृत कम किसान विरोधी बनाकर ऑर्डिनेंस की शक्ल में पेश किया गया.” किसान विरोधी चरित्र को लेकर खुद ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह बहुत सशंकित थे. इसको लेकर करीब एक माह तक जेटली और बीरेंद्र सिंह के बीच खींचतान चलती रही. अंत में कद्दावर जेटली के दबाव में चैधरी ऑर्डिनेंस पर न सिर्फ सहमत हो गए, बल्कि पार्टी ने उन्हें इस मुद्दे पर खामोश रहने की हिदायत भी दे दी. इंडिया टुडे के बार-बार संपर्क करने के बावजूद वे अध्यादेश पर बात करने को राजी नहीं हुए.

बदले हालात में सरकार की यह आक्रामक रणनीति भी बदलती नजर आ रही है. हार के बाद अपने पहले सार्वजनिक बयान में प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि उन्हें भगवान न बनाएं. बहरहाल सरकार अब इस बात पर विचार कर रही है कि ऑर्डिनेंस को किस तरह संसद में पेश किया जाए कि सड़क और सदन, दोनों जगहों पर इसका विरोध कुंद पड़ जाए. संवैधानिक बाध्यता के चलते सरकार को इस ऑर्डिनेंस को बजट सत्र में पेश करना ही होगा, नहीं तो इसकी वैधता अपने आप खत्म हो जाएगी. पार्टी सूत्रों की मानें तो ऐसे में सरकार ऑर्डिनेंस के साथ कुछ संशोधन भी पटल पर रख सकती है. कुल मिलाकर सरकार ऐसा रास्ता तलाश रही है जहां उसे जनता से कम विरोध का सामना करना पड़े और औद्योगिक जगत में उसकी साख को बट्टा भी न लगे.

उधर, विपक्ष बेबाक है. कांग्रेस की तरफ से अध्यादेश विरोधी आंदोलन की अगुआई कर रहे पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कहते हैं, “विकास के कथित एजेंडे पर आगे बढऩे की जल्दबाजी में सरकार ऐसा अध्यादेश ले आई है, जो पूरी तरह किसान विरोधी है.” इससे विकास कार्यों के नाम पर किसानों की जमीन हासिल कर लेना सरकार के लिए आसान हो गया है. 1894 में अंग्रेजी राज में आए पहले भूमि अधिग्रहण कानून के बाद यूपीए सरकार ने 2013 के नए कानून के जरिए किसानों को अपनी जमीन पर बेहतर अधिकार दिए थे. इसके तहत रजामंदी के बिना किसानों की जमीन नहीं ली जा सकती थी. लेकिन यह कानून मुश्किल से साल भर ही वजूद में रह पाया. 2013 का कानून कई मामलों में अव्यावहारिक रूप से किसानों के पक्ष में था तो 2014 का अध्यादेश बड़े उद्योगों के पक्ष में है. (कानून के पूरे ब्योरे के लिए देखें चार्ट—कानून बदलने से बदल जाएगी विकास की परिभाषा) हालांकि नए कानून में भी मैन्युफैक्चरिंग और छोटे उद्यमियों के लिए कोई राहत नहीं है.
भूमि अधिग्रहण पर पलट गए बीजेपी के दिग्गज

भावनात्मक सियासी मुद्दा  
कानून के गुण-दोष के तटस्थ विवेचन से बड़ा मुद्दा है कानून का राजनैतिक रूप से अतिसंवेदनशील होना. यूपीए के अधिग्रहण कानून को किसानों के पक्ष में पूरी तरह मोडऩे में बीजेपी नेताओं—राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और सुमित्रा महाजन का बहुत बड़ा हाथ था. (देखें बॉक्स- बीजेपी के लिए सियासी मुसीबत बना अध्यादेश) तो अब क्या बदल गया? जयराम रमेश का तर्क है, “घर वापसी और लव जेहाद जैसे मुद्दों से बदनाम हुई सरकार ओबामा की यात्रा से पहले कुछ कर दिखाना चाहती थी. ऐसे में उसने अध्यादेश के जरिए किसानों को बलि का बकरा बना दिया.”

यह बात जगजाहिर है कि पश्चिम बंगाल में तीन दशक से चले आ रहे वाम दलों के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए ममता बनर्जी ने अपना सबसे बड़ा हथियार सिंगूर और नंदीग्राम के भूमि अधिग्रहण को बनाया था. इसी तरह उत्तर प्रदेश में नोएडा के आस-पास के इलाकों में बड़े पैमाने पर हुए भूमि अधिग्रहण ने 2012 में मायावती के राजनैतिक अवसान की पटकथा लिखी. तब की यूपीए सरकार के राजकुमार राहुल गांधी ने नोएडा के भट्टा-पारसौल गावों में किसानों के समर्थन में धरना और गिरफ्तारी दी, तो तब की विपक्षी बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह और अरुण जेटली ने गाजियाबाद में किसानों के समर्थन में गिरफ्तारी दी. देश के कई इलाकों में किसान इस समय भी अपनी जमीन बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं.

17 जनवरी, 2015 को मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले के जैतहरी में पुलिस और किसानों के बीच तीखी झड़प हुई. मोजर बेयर कंपनी यहां रेल ट्रैक दोहरीकरण के लिए भूमि अधिग्रहीत कर रही थी. किसान विरोध में डटे थे. मामला इतना गरमाया कि पुलिस ने गोलियां दाग दीं. घटना में तीन किसान और 6 पुलिसकर्मी घायल हो गए. पुलिस ने 35 ग्रामीणों के खिलाफ हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज कर लिया है. 

उधर, उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के पास करछना में 10 जनवरी को किसानों के धरने का 1,603वां दिन था. महुए के पेड़ों के छोटे-से बाग से नारे सुनाई दे रहे हैं, “भूमिहीन हो जाएंगे, हमारे बच्चे क्या खाएंगे. रोजी-रोटी, दो अधिकार, नहीं सहेंगे अत्याचार. जमीन हमारी-आपकी, नहीं किसी के बाप की.” ग्रामीणों के हाथों में डंडे और हंसिया हैं. यहां 4,000 करोड़ रु. की लागत से 1,320 मेगावाट क्षमता का बिजलीघर बनना है. तभी तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हैं, “यह माननीय प्रधानमंत्री की तानाशाही प्रवृत्तियों का चेहरा है. सरकार किसान के हितों को पूंजीपतियों के हाथ बेच देना चाहती है.” बजट सत्र में सरकार को इन सवालों का जवाब देना होगा.
भूमि अधिग्रहण पर दलों की भूमिका

विकास की दलील
लेकिन सरकार की अपनी दलीलें हैं. जेटली के मुताबिक, 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को 31 दिसंबर, 2014 से पहले संसद की मंजूरी लेनी थी ताकि इसके कई प्रावधान पहले से मौजूद अन्य 16 कानूनों पर भी लागू हो सकें. अगर अध्यादेश न लाया जाता तो इन 16 कानूनों के तहत भूमि अधिग्रहण और मुआवजे में किसानों को 2013 के कानून का लाभ नहीं मिल पाता. जेटली ने जोर देकर कहा कि अध्यादेश ग्रामीण भारत का बेहतर ढंग से ख्याल रखता है. उन्होंने अपने बयान में कहा, “जब 1894 का कानूनी 21वीं सदी में बदला जा रहा है तो इसमें 21वीं सदी के हिसाब से मुआवजा मिलना चाहिए और इसे 21वीं सदी के विकास की जरूरतें पूरी करनी चाहिए. यह समाज की विकास की जरूरतों को पूरी तरह से अनदेखा नहीं कर सकता और न यह तय कर सकता है कि भारत का बिल्कुल विकास न हो.”

सरकार की इस मुहिम को उद्योग जगत का पूरा समर्थन हासिल है. औद्योगिक संगठन फिक्की की अध्यक्ष और ललित हॉस्पिटल समूह की सीएमडी ज्योत्सना सूरी की टिप्पणी है, “फिक्की लगातार इस मुद्दे को उठाता रहा है कि भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव किया जाए. इसे व्यावहारिक और सबके लिए बराबरी का बनाया जाए. कानून को कीमत, समय, भूमि अधिग्रहण और जमीन के उपयोग के मामले में सख्त और स्पष्ट होना चाहिए.”

लटकी हाइवे प्रोजेक्टलटकी हैं 17 हाइवे परियोजनाएं
21वीं सदी के भारत की जरूरतों संबंधी वित्त मंत्री की सोच की पुष्टि संसद के शीतकालीन सत्र में पेश भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट भी करती है. नेशनल हाइवे को लेकर आई इस रिपोर्ट में कहा गया है, “ऑडिट में 96 नेशनल हाइवे परियोजनाओं की जांच की गई. इनमें से लंबित पड़ी योजनाओं में से 17 सीधे तौर पर भूमि अधिग्रहण न हो पाने की वजह से लटकी हैं, जबकि 46 परियोजनाओं में एनएचएआइ भूमि अधिग्रहण की स्थिति स्पष्ट नहीं कर सका.” 13 राज्यों में नेशनल हाइवे भूमि अधिग्रहण विवाद में अटके हैं. (देखें टेबल)

उधर, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण की चार बड़ी परियोजनाओं मधुबन बापूधाम, स्वर्ण जयंती पुरम, कर्पूरीपुरम और कांशीराम आवास तक जाने वाली चार लेन सड़क पिछले कई साल से इसलिए अटकी है कि एक किसान को दो एकड़ जमीन जीडीए को देने पर एतराज है.  ऐसे ही बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण कई साल तक भूमि अधिग्रहण की वजह से अटका रहा. बिहार के रोहतास और कैमूर के लिए उपयोगी दुर्गावती जलाशय परियोजना भी भूमि अधिग्रहण और विस्थापन की समस्या की वजह से निर्धारित समय पर पूरी नहीं हो सकी. हालांकि बांध का काम पूरा कर लिया गया है, फिर भी नहरों पर गतिरोध बरकरार है.

कानून का दुरुपयोग
ऐसे भी ढेरों उदाहरण हैं जहां विकास परियोजनाओं के नाम पर किसानों से जमीन ले ली गई और बाद में उसे मोटे मुनाफे पर बेच दिया गया. स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसइजेड) पर संसद के इसी शीतकालीन सत्र में पेश सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिसा और पश्चिम बंगाल राज्यों में 39,245.46 हेक्टेयर जमीन एसईजेड के लिए अधिसूचित की गई. इसमें से 5,402 हेक्टेयर यानी 14 फीसदी जमीन छह महीने के अंदर ही दूसरे वाणिज्यिक कामों के लिए दे दी गई. 

आम आदमी पार्टी के नेता योगेंद्र यादव कहते हैं, “छोटे शहरों में तीन सितारा या इससे बड़े होटल बनाने के लिए भी किसान की जमीन बिना किसी पूछताछ के हासिल की जा सकेगी. इस तरह के प्रावधान से मोदी जी किसका भला करना चाहते हैं?” इस जगह आकर बीजेपी के नेता भी खुद को असहाय पाते हैं. उत्तर प्रदेश से बीजेपी के एक सांसद कहते हैं, “हम तो हमेशा ही किसान के पक्ष में खड़े हुए हैं. गांवों में भूमि अधिग्रहण को हमेशा किसान विरोधी माना गया है. ऐसे में न तो हम सरकार से कुछ कह पा रहे हैं और न किसानों से नजरें मिला पा रहे हैं.” लेकिन अब यह लुका-छिपी खत्म होने वाली है. सरकार को तय करना होगा कि उसे पहले किसे नाराज करना है—किसान को या उद्योग जगत को.
—साथ में आशीष मिश्र और अशोक कुमार प्रियदर्शी

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