केंद्रीय विश्वविद्यालय शिक्षक संघों की फेडरेशन (FEDCUTA) ने आरोप लगाया है कि मोदी सरकार सवर्ण वोटों के डर से कोटा रोस्टर फैसले को ठंडे बस्ते में रखे हुए है. उच्च शिक्षा संस्थानों (HEIs) में नियुक्तियों पर फैसला जुलाई से इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद लटका हुआ है. FEDCUTA के अध्यक्ष प्रोफेसर राजीब रे ने इंडिया टुडे को बताया कि मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पहले के रिजर्वेशन रोस्टर को बहाल करने के लिए अध्यादेश लाने का भरोसा दिया था, क्योंकि संसद का सत्र चल रहा है इसलिए अब सरकार को बिल लाना चाहिए.
बता दें कि हाईकोर्ट ने इस साल मार्च में 200 प्वाइंट्स वाले रोस्टर, जिसमें कॉलेज/यूनिवर्सिटी को एक यूनिट माना जाता था, रद्द कर दिया था. इसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने घोषणा की थी कि एक विभाग को अपने आप में ही बेस यूनिट माना जाएगा जिससे कि अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए सुरक्षित शिक्षकों के पदों की गणना की जा सके. SC-ST वर्ग से आने वाले शिक्षकों के लिए ये नुकसान की स्थिति है. गतिरोध इतना बढ़ा कि कालेज/विश्वविद्यालयों को कक्षाएं तदर्थ (ad hoc) शिक्षकों की मदद ले कर चलानी पड़ीं.
प्रोफेसर रे ने बताया, ‘बीते साल 5 मार्च को हाईकोर्ट के फैसले के तत्काल बाद FEDCUTA, DUTA के साथ कुछ और विश्वविद्यालय शिक्षक संघों ने विरोध किया और अपना प्रतिनिधित्व मानव संसाधन विकास मंत्री के पास भेजा. हमसे वादा किया गया कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल करेगी. हम सरकार से लगातार कहते रहे हैं कि पुराने रोस्टर को बहाल करने के लिए अध्यादेश लाए. लेकिन उसने अभी तक कुछ नहीं किया है सिवाए एक अपील दाखिल करने के, इस वजह से सभी नियुक्तियां रूक सी गई हैं.’
प्रोफेसर रे ने दावा किया कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, सीपीएम और सीपीआई समेत सभी राजनीतिक दलों ने शिक्षक संघ को इस मुद्दे पर समर्थन दिया है. ऐसे में सरकार को 200 प्वाइंट वाले रोस्टर को बहाल करने के लिए बिल लाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. उन्हें अप्रैल में ही ये कर देना चाहिए था.
प्रोफेसर रे ने कहा, ‘ये देखना हैरान करने वाला था कि हाईकोर्ट के आदेश के तत्काल बाद 7 से 10 विश्वविद्यालयों ने नए आरक्षण विरोधी रोस्टर के मुताबिक नियुक्तियों के लिए विज्ञापन जारी किए. ये साफ संकेत था कि शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण विरोधी रुख अहम रुख है. सरकार के निर्णय ना लेने से अकेले दिल्ली विश्वविद्यालय में ही रिक्तियां 50% तक पहुंच गई हैं. इससे आरक्षित और सामान्य वर्ग, दोनों के ही उम्मीदवारों को भुगतना पड़ रहा है जो नियुक्तियों के लिए प्रतीक्षारत हैं. इन रिक्तियों को भरने के लिए कोई जल्दी नज़र नहीं आती.’