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गोवा में BJP करेगी मंथन, मोदी को बड़ी जिम्मेदारी देने का हो सकता है ऐलान

जो कहानी 2002 में शुरू हुई उस कहानी की असल पटकथा क्या 2013 में लिखी जायेगी? 2002 में बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी सवाल नरेन्द्र मोदी ही थे और 11 बरस बाद 2013 में भी गोवा अधिवेशन में सवाल मोदी ही होगें.

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मोदी पर दरार
मोदी पर दरार

जो कहानी 2002 में शुरू हुई उस कहानी की असल पटकथा क्या 2013 में लिखी जायेगी? 2002 में बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी सवाल नरेन्द्र मोदी ही थे और 11 बरस बाद 2013 में भी गोवा अधिवेशन में सवाल मोदी ही होंगे.

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2002 में नरेन्द्र मोदी को गुजरात के सीएम के पद को छोड़ने का सवाल था. 2013 में मोदी को 2014 की कमान सौंपने का सवाल है. 2002 में मोदी के चहेतों ने बिसात ऐसी बिछायी कि मोदी की गद्दी बरकरार रह गयी. और माना यही गया कि 2002 में राजधर्म की हार हुई और मोदी की जीत हुई. वहीं 2013 में अब मोदी के लिये रेडकार्पेट दिल्ली में तो बिछ चुकी है लेकिन रेडकार्पेट पर मोदी चलेंगे कब, इस आस में गोवा अधिवेशवन शुक्रवार से शुरू हो रहा है. और सवाल एकबार फिर मोदी हैं.

2002 के वक्त गुजरात दंगो को बीजेपी पचा नहीं पा रही थी क्योंकि उस वक्त केन्द्र में बीजेपी की ही अगुवाई में एनडीए की सरकार थी. लेकिन 2013 में बीजेपी को मोदी की अगुवाई इसलिये चाहिये क्योंकि वह केन्द्र की सत्ता पर काबिज होना चाहती है. यानी जो मोदी 2002 में वाजपेयी सरकार के लिये दाग थे वही मोदी 2013 में बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने के लिये तुरुप का पत्ता बन चुके हैं.

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यानी मोदी ने 2014 के मिशन को थामा तो बीजेपी के सांसदों की संख्या बढ़ेगी लेकिन बीजेपी के भीतर का अंतर्द्वन्द्व यही है कि मोदी के आने से सीट तो बढ़ती है लेकिन सत्ता फिर भी दूर रहती है. यानी बीजेपी को उन सहयोगियों का भी साथ चाहिये जो अयोध्या, कॉमन सिविल कोड और धारा 370 को ठंडे बस्ते में डलवाकर बीजेपी के साथ खड़े हुये थे. इसलिए सवाल यह नहीं है कि मोदी के नाम का ऐलान गोवा में हो जाता है.

सवाल यह है कि 2002 में कमान वाजपेयी के पास थी जो मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ा रहे थे और 2013 में बीजेपी मोदी की सवारी करने जा रही है, जहां गुजरात से आगे के मोदी के राजधर्म की नयी पटकथा का इंतजार हर कोई कर रहा है.

चंद्राबाबू, अजित सिंह, चौटाला, नवीन पटनायक, जयललिता, ममता बनर्जी, रामविलास पासवान, फारुख अब्दुल्ला, शिबू सोरेन और करुणानिधि. यह दस चेहरे ऐसे हैं जो 2002 के वक्त बीजेपी के साथ थे तो एनडीए की सरकार बनी हुई थी और चल रही थी. लेकिन 2004 के बाद से 2013 तक बीजेपी में भरोसा नहीं जागा है कि एनडीए फिर खड़ी हो और सरकार बनाने की स्थिति आ जाये.

लेकिन 2014 को लेकर अब नरेन्द्र मोदी को जिस तरह प्रचार समिति के कमांडर के तौर पर बीजेपी गुजरात के बाहर निकालने पर सहमति बना चुकी है, ऐसे में बीजेपी को अपनी उम्मीद तो सीटें बढ़ाने को लेकर जरूर है लेकिन मौजूदा वक्त में बीजेपी के पास कुल जमा तीन बड़े साथी है.

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नीतिश कुमार, उद्धव ठाकरे और प्रकाश सिंह बादल. और इसमें भी नीतीश कुमार मोदी का नाम आते ही गठबंधन से बाहर का रास्ता नापने को तैयार हैं. शिवसेना के सामने मोदी का नाम आने पर अपने ही वोट बैंक में सेंध लगने का खतरा है. तो वह दबी जुबान में कभी सुषमा स्वराज तो कभी आडवाणी का नाम उछालने से नहीं कतराती है. लेकिन बीजेपी मोदी को लेकर जिस मूड में है उसे पढ़ें तो तीन बातें साफ उभरती हैं.
पहला- मोदी की लोकप्रियता भुनाने पर ही बीजेपी के वोट बढ़ेंगें.
दूसरा- सहयोगियों की मजबूरी के आधार पर बीजेपी अपने लाभ को गंवाना नहीं चाहेगी.
और तीसरा- मोदी की अगुवाई में अगर बीजेपी 180 के आंकड़े तक भी पहुंचती है तो नये सहयोगी साथ आ खड़े हो सकते हैं.

और मोदी को लेकर फिलहाल राजनाथ गोवा अधिवेशन में इसी बिसात को बिछाना चाहते हैं जिससे संकेत यही जाये कि मोदी के विरोधी राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरी चुनाव लड़ने के लिये हो सकती है लेकिन चुनाव के बाद अगर बीजेपी सत्ता तक पहुंचने की स्थिति में आती है तो सभी बीजेपी के साथ खड़े होंगे ही.

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