मेरा नाम हिमांशु है. ये बात उस वक्त की है जब मैं घर से दूर पहली बार नौकरी के लिए अपने शहर आगरा से दिल्ली आया था. सारी चीजें बेहद नई थीं. ऐसा नहीं था कि मुझे कोई नया माहौल मिला हो लेकिन, जिसके बारे में अब तक सुना था वो सब देखने को मिल रहा था.
यहां आकर काफी चीजों में बदलाव देखने को मिला. रहन-सहन से लेकर पहनावे तक में बहुत खुलापन था. लोगों के बातचीत का तरीका भी अलग था.
मेरे अंदर तमाम भावनाएं उमड़ रही थीं. पहली नौकरी की खुशी और नए माहौल में खुद को ढालने की जल्दी दोनों ही थी. कई बार मैं इस ऊहापोह से परेशान हो उठता था. ऐसे ही एक दिन लंच के दौरान मैं अकेले बैठा था. तभी मेरे पास ऑफिस में काम करने वाले एक चाचा आए, जो यहां चपरासी का काम करते थे. मैं उन्हें चाचा कहता था क्योंकि अदब में हम बड़ों को उनके ओहदे से नहीं उम्र देखकर इज्जत देते हैं.
चाचा अाए और बोले, 'क्यों अकेले बैठे हो बेटा? कोई तकलीफ है तो बताओ...' मैं उनसे कोई बात कहता तब तक उन्होंने कहा, 'नए-नए आए हो, माहौल के साथ ढलने में थोड़ा वक्त लगेगा.' इतना सुनते ही मैंने उनसे कई दिनों से मेरे अंदर चल रहे एक सवाल को पूछा कि चाचा क्या माहौल के साथ बदल जाना जरूरी है? हम जैसे हैं वैसे क्या नहीं रह सकते? इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'हम जैसे हैं वैसे रहने में कोई बुराई नहीं बशर्ते हम दूसरों को भी इसकी आजादी दें.' मैंने कहा मैं समझा नहीं... तो वो बोले, 'जो जैसा है वैसा सही है. तुम्हारा आगरा भी और दिल्ली भी . दोनों को उनकी तरह रहने दो, हां कोई अच्छा लगे तो उसे जरूर अपनाओ. लेकिन कोई तुम्हारे लिए बदल जाए ये मत अपेक्षा करो.'
हमारी बातों के दौर में लंच टाइम तो ओवर हो गया लेकिन वो बातें आज भी मुझे याद हैं. आज मैं वहां काम नहीं करता लेकिन वो सीख हर जगह काम आती है.
यह कहानी है हिमांशु शर्मा की. उन्होंने पहली नौकरी से जुड़ा अपना अनुभव हमारे साथ साझा किया है.
आप भी हमारे साथ अपने अनुभव aajtak.education@gmail.com पर भेज सकते हैं, जिन्हें हम अपनी वेबसाइट www.aajtak.in/education पर साझा करेंगे.