राम के अवतार से लेकर सूट-बूट वाली सरकार के नायक तक, अंध भक्तों से लेकर धुर विरोधियों तक और गुजरात के एक सामान्य परिवार से निकलकर भारतीय राजनीति के सर्वोच्च पद तक, नरेंद्र मोदी के बारे में जिस एक बात को सब मानते हैं वो है उनकी राजनीति की अजेय यात्रा. मोदी अपराजेय बने हुए हैं. विपक्ष लगातार कोशिश कर रहा है कि मोदी को घेरा जा सके. लेकिन गुजरात से लेकर दिल्ली तक मोदी को घेरने के सारे चक्रव्यूह अबतक विफल होकर बिखरते ही रहे हैं. साथ ही बिखरता रहा है विपक्ष का मनोबल और ताकत. मोदी लगातार पहले से और बड़े होते जा रहे हैं.
वर्ष 2001 में जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता के सोपान चढ़कर गुजरात की कुर्सी अर्जित की, तब से लेकर अब तक मोदी और पराजय कभी एक रास्ते पर साथ चलते नज़र नहीं आए. दरअसल, मोदी को रोकने के लिए गुजरात से लेकर दिल्ली तक जितनी कोशिश की गईं, वो मोदी की प्रगति में खाद का काम करती गईं. सामाजिक क्षेत्र के कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्होंने मोदी विरोध को ही जीवन का लक्ष्य बनाया. परिणाम यह रहा कि दोनों ही विरोध की इस रस्साकशी में मज़बूत हुए. विरोधियों को भी मंच और पहचान मिली. मोदी को विरोध से उर्वरा मिली. आज मोदी इतने बड़े पेड़ बन चुके हैं जिसके कंधे तक भी पहुंच पाना किसी के सामर्थ्य की बात नहीं रहा.
भाजपा का मोदी युग
मोदी का विरोध केवल विपक्षी नहीं कर रहे थे, खुद अपनी ही पार्टी में भी मोदी को रुकावटों, असहमतियों और मतभेदों का सामना करना पड़ा है. गुजरात से निकलकर दिल्ली तक अपना रास्ता और अपनी ज़मीन मोदी ने खुद तैयार की है. इस रास्ते में सबसे ज़्यादा रुकावट खुद पार्टी के भीतर से मोदी को देखनी पड़ रही थी. पार्टी के कुछ चेहरे मोदी स्टाइल की राजनीति के न तो राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो पाने को लेकर आशान्वित थे और न ही मोदी के दिल्ली आने को पार्टी और अपने लिए स्वस्थ मानते थे.
लेकिन पार्टी के इन विरोधों को मोदी धराशायी करते गए. दिल्ली का दुर्ग टूटा और बंटा. दिल्ली में काबिज भाजपा के चेहरों के बीच इसी दरार में मोदी ने अपनी रेड कार्पेट बिछा दी. संघ और भाजपा की सत्ता में आने की व्याकुलता और इसके लिए कुछ समझौते करने को तैयार होने की मंशा ने मोदी को मज़बूती दी. विरोध पिछड़ता और कमज़ोर होता गया. मोदी ने प्रचार, प्रबंधन और संसाधनों के दम पर 2014 में ऐतिहासिक जीत हासिल की. अपने सबसे विश्वासपात्र व्यक्ति को पार्टी सौंपी. सत्ता और पार्टी दोनों अपनी जेबों में आने के बाद भाजपा मोदीमय हुई और आज जिस भाजपा को हम देखते जानते हैं, वो अटल युग से निकलकर मोदी युग में पूरी तरह से समाहित है.
भाजपा में पुरानी पीढ़ी संदर्भों के चेहरे बन चुकी है. वे अब इतिहास हैं. कुछ जीते-जागते तो कुछ शेष हो चुके. राज्यों से लेकर केंद्र तक जो चेहरे अब भाजपा की पहचान हैं, वे मोदी के लोग हैं. इनके लिए एक समय में नैपथ्य भी नहीं था. आज वे मुख्यधारा के मुख्य चेहरे हैं. मोदी और अमित शाह के दौर की भाजपा इनकी राजनीतिक बिसात के हिसाब से बिछाया गया शतरंज है. इसमें खेल से बाहर हो चुके प्यादों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है.
व्यक्ति बनाम विचार
सत्ता के लिए आगे बढ़ने के क्रम में जो बड़े समझौते एक भाजपा सदस्य के तौर पर मोदी ने किए हैं, उनमें सबसे बड़ा है विचारों से समझौता. मोदी ने आज की सत्ता और भाजपा को नए विचार के सांचे पर गढ़ा है. इसमें स्वदेशी के प्रति हठधर्मिता नहीं है. पश्चिम के प्रति पूर्वाग्रह नहीं है, संसाधनों के प्रति संरक्षणवाद नहीं है, निजीकरण के खिलाफ दृढ़निश्चय नहीं है. बल्कि इस सारे ही मामलों में भाजपा और मोदी सरकार अपनी 1990 के दशक की किताबों, पर्चों को खंडित करती नज़र आती है.
दरअसल, मोदी ने राजनीति के खेल में यह अच्छे से समझा है कि कांग्रेस को खत्म करने और सत्ता में आगे बढ़ने के लिए कुछ हद तक कांग्रेस बनना भी पड़ेगा और उन्होंने ऐसा किया भी. मोदी ने दशकों के पिटते आ रहे पुराने तरीकों को त्यागकर नए रास्ते अपनाए. अपने समय और ज़रूरत के हिसाब से विचारों को गढ़ा है. मोदी अब उसे ही आगे लेकर बढ़ रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि नए विचारों के क्रम में मोदी अपने मूल एजेंडे से बाहर हो गए हैं. दरअसल, मोदी या संघ, दोनों के लिए विचारों का यह तुष्टिकरण एक त्याग की तरह है जो बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए किया जा रहा है. विचारों में इन सुधारों के ज़रिए मोदी ने पार्टी को और अधिक व्यवहारिक, आधुनिक और समन्वयवादी दिखाने की कोशिश की है. इसका पार्टी को लाभ भी मिला है.
आज जब संघ अपनी स्थापना के 10वें दशक में चल रहा है, वो केवल विचार के दम पर आगे नहीं बढ़ सकता. संघ को भी पता है कि विचार को आगे बढ़ाने के लिए ताकत चाहिए और ताकत के लिए व्यक्ति का नायक बनकर जीतते रहना ज़रूरी है. इसलिए संघ ने भी व्यक्ति को विचार से बड़ा होने दिया है और आज उस व्यक्ति की छांव विचार से खासी बड़ी हो चुकी है. मोदी उस विशाल पेड़ की तरह हो गए हैं जिसकी छांव में संघ की पाठशाला फलफूल और मज़बूत हो रही है.
भाप होता विपक्ष
लेकिन किसी के बरगद हो जाने से केवल छांव बड़ी नहीं होती. उसके इर्द-गिर्द की सूर्यसीमा में पनपने की गुंजाइश सिमटती जाती है. ऐसा दिख भी रहा है. मोदी ने गुजरात में कांग्रेस को बुरी तरह मसल दिया है. इतना कि राज्य में एक सम्मानजनक विपक्ष बनने में कांग्रेस को 20 साल लग गए हैं. जिन लोगों ने मोदी का विरोध भाजपा या गुजरात में किया उनका भी हश्र ऐसा ही रहा.
कभी भाजपा के पोस्टरब्वाय रहे चेहरे आज भाजपा कार्यालयों के दुकानों से गायब हो चुके हैं. जिन्होंने गुजरात में मोदी को चुनौती देने के लिए पार्टी बनाईं, वो मोदी के हैलीकॉप्टरों की धूल में खो गए. जिन्होंने मोदी के समानान्तर खड़े होने की कोशिश की, वो अब पार्टी की आखिरी लाइन में भी नज़र नहीं आ रहे.
मोदी ऐसे नेता हैं जो जहां पनपते हैं, बाकी की राजनीति ऊसर हो जाती है. क्षेत्रीय दलों से लेकर सहयोगी दलों तक और आंतरिक विपक्ष से लेकर राजनीतिक विपक्ष तक, मोदी के विरोधी लगातार कमज़ोर पड़ते गए हैं. जिन्होंने मोदी की वजह से कभी एनडीए छोड़ा, आज वो मोदी की कृपा पर सत्ता में हैं. जिन्होंने कभी भाजपा के लिए अपने राज्यों में रास्ते खोले, आज वो अपनी ज़मीन और राजनीति के लिए मोदी को ही सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं.
वामदल हों, कांग्रेस हो, सपा-बसपा-राजद जैसे क्षेत्रीय महाबली हों, मोदी ने सबको एकसाथ छांटकर छोटा कर दिया है. मोदी विपक्ष को लगातार तोड़ते जा रहे हैं. विपक्ष जबतक मोदी के एक कदम की काट खोजता है, मोदी अपनी रणनीति में आगे बढ़ चुके होते हैं.
आज विपक्ष मोदी के कदमों के निशानों पर लाठी मारने से ज़्यादा कुछ नहीं कर पा रहा. मोदी की परछाई पर प्रहार करता विपक्ष और दयनीय नज़र आ रहा है.
राजनीति के लिए यह चिंता का युग भी है. इसलिए, क्योंकि संगठन, विचार और विपक्ष तीनों का कमज़ोर हो जाना लोकतंत्र के लिए मल्टीऑर्गन डैमेज जैसी क्राइसिस है. फिलहाल, क्राइसिस की इस कीच में मोदी का कमल पूरा खिला और मुस्कुराता हुआ अजेय खड़ा है.