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संशोधन बिल से कमजोर होगा RTI कानून, घटेंगी सूचना आयोग की शक्तियां

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई एक्ट) में संशोधन करने जा रही है. बुधवार से शुरू हो रहे मानसून सत्र में सरकार इस बिल को संशोधन के लिए सदन में पेश करेगी. इस बात की जानकारी लोकसभा में दिन के कार्यक्रम को लेकर पेश किए गए लेखा-जोखा में दी गई है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

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केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई एक्ट) में संशोधन करने जा रही है. मॉनसून सत्र में सरकार इस बिल को संशोधन के लिए सदन में पेश करेगी.

आरटीआई एक्टिविस्ट और सूचना आयोग के पूर्व सदस्य एम. एम. अंसारी का मानना है कि केंद्र सरकार आरटीआई एक्ट में संशोधन कर उसके कद को चुनाव आयोग की तुलना में कम करना चाहती है, जिससे सरकार उस पर पूरी तरीके से नियंत्रण रख सके. आरटीआई एक्टिविस्टों का दावा है कि सरकार ने इस संशोधन के लिए न तो सभी पक्षों से परामर्श लिया और न ही केंद्रीय सूचना आयोग से संशोधन की बात की.

सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम में संशोधन कर केंद्र दो बुनियादी तत्वों को बदलना चाहती है. पहला ये कि सूचना आयोग का कद चुनाव आयोग (ईसी) से कम हो जाए और 5 साल के कार्यकाल में परिवर्तन पर नियंत्रण मजबूत किया जाए. इंडिया टुडे के पास सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन की कॉपी है, जिससे इस बात की पुष्टि हो गई है कि सरकार चुनाव आयोग के मुकाबले सूचना आयोग के आला अधिकारियों के वेतन, भत्ते और सेवा शर्तों की समानता को समाप्त करने जा रही है.

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बता दें कि वर्तमान में सूचना आयोग के आयुक्त का वेतन सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर होता है. अगर सरकार बिल को पास करवा लेती है तो सूचना आयुक्त का वेतन सरकार के नियंत्रण में होगा, जिसे कम भी किया जा सकता है. प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक, 'मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों को देय वेतन और भत्ते और अन्य नियमों और शर्तों को केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित किया जा सकता है.'

साथ ही अन्य संशोधन का लक्ष्य मुख्य सूचना आयुक्त और अन्य राज्यों के सूचना आयुक्तों के निर्धारित पांच साल के कार्यकाल को संशोधित कर केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित शर्तों में तब्दील करना है.

संशोधन को न्यायसंगत बनाने के लिए सरकार ने बिल को लेकर स्पष्टीकरण दिया है. सरकार का कहना है कि चुनाव आयोग और सूचना आयोग के कार्यों में अंतर है. स्पष्टीकरण में यह कहा गया है, 'चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324 के खंड (1) द्वारा स्थापित एक संवैधानिक निकाय है, जबकि सीआईसी और राज्य सूचना आयोग आरटीआई अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत स्थापित वैधानिक निकाय हैं.'

सरकार का यह तर्क है कि मुख्य सूचना आयुक्त, सूचना आयुक्त और राज्यों के सूचना आयुक्तों को मिलने वाले वेतन, भत्ता और अन्य सुविधाएं मुख्य चुनाव आयुक्त, अन्य चुनाव आयुक्तों, राज्य के मुख्य सचिव के बराबर हैं. जबकि, कार्य अलग हैं. ऐसी स्थिति में उनके वेतन और सेवा में तर्कसंगत बदलाव की आवश्यकता है.

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पूर्व सूचना आयोग के अधिकारी और यूपीए सरकार द्वारा कश्मीर में शांति वार्ता के लिए नियुक्त सदस्यों में से एक एमएम अंसारी कहते हैं कि संशोधन का आधार दोषपूर्ण है. उन्होंने कहा कि सूचना के अधिकार के बिना वोट का अधिकार बेकार है, क्योंकि दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं. यही कारण है कि मुख्य चुनाव आयुक्त, मुख्य सूचना आयुक्त और सुप्रीम कोर्ट के जज का कार्यकाल और पद से हटाए जाने की प्रकिया को बराबर रखा था.

उन्होंने कहा कि सरकार आरटीआई अधिनियम की नींव को कमजोर करने के लिए एक अपारदर्शी तरीके से काम कर रही है जिसे पारदर्शिता और जवाबदेही के नजरिए से महत्वपूर्ण कदम माना जाता है.

प्रोफेसर अंसारी ने कहा, 'सीआईसी को उनके काम के कारण अन्य के बराबर रखा गया था. जिसके तहत वे वरिष्ठता के आधार पर अधिकारियों और अन्य लोगों को नोटिस जारी कर सकते हैं, जानकारी मांग सकते हैं. लेकिन उनका वेतन कम होते ही उनकी स्थिति भी बाकी अधिकारियों के मुकाबले गिर जाएगी.'

पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने कहा, 'यह कदम एक प्रतिकूल प्रस्ताव है और यह सूचना आयोग और चुनाव आयोग की स्वायत्तता से समझौता करने जैसा होगा. इसके पीछे तर्क है कि कानून द्वारा सीआईसी को चुनाव आयोग के बराबर का स्तर नहीं दिया जा सकता है, जो कि पूरी तरह से त्रुटिपूर्ण है.'

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उन्होंने बताया, 'सूचना आयोग (सीआईसी) में नियुक्त किए गए पूर्व सरकारी अधिकारियों में से अधिकांश को 5 साल का कार्यकाल नहीं मिला है. कानून कहता है कि सूचना आयोग के आयुक्तों का कार्यकाल 5 साल का होना चाहिए या अधिकतम 65 वर्ष की आयु तक होना चाहिए. हालांकि, ज्यादातर अधिकारी केवल 62 वर्ष की उम्र में ही आते हैं. इसलिए आयु अवधि के कारण उनका कार्यकाल लगभग 3 साल है. ऐसे में उनके विशिष्ट कार्यकाल को ठीक नहीं करना शरारत से कम नहीं है.'

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