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मोदी-शाह से मुकाबले को इसलिए एकजुट नहीं हो पा रहे विपक्षी दल!

कहते हैं कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है लेकिन देश के विपक्षी दलों के मामले में ये कहावत गलत साबित होती जा रही है. वो भी तब जबकि हर पार्टी जानती है कि वो अकेले दम पर बीजेपी से मुकाबला नहीं कर सकती.

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विपक्षी दल क्या होंगे एकजुट?
विपक्षी दल क्या होंगे एकजुट?

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नरेंद्र मोदी ने देश की सियासत में बीजेपी को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां मौजूदा वक्त में उसके मुकाबले कोई नहीं है. ऐसे में मोदी के सामने चुनौती बनने के लिए कई स्तर से विपक्षी दलों को एकजुट करने की लगातार कोशिशें हो रही हैं, लेकिन ये प्रयास वजूद में आने से पहले ही बिखर जाते हैं. जबकि विपक्षी दलों का ग्राफ दिन-ब-दिन नीचे आता जा रहा है.

इन दिनों कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, आरजेडी, एआईएडीएमके, डीएमके, वामपंथी दल,एनसीपी, समाजवादी पार्टी, बीएसपी, आम आदमी पार्टी सहित अन्य क्षेत्रीय दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी ही है. कहते हैं कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है लेकिन देश के विपक्षी दलों के मामले में ये कहावत गलत साबित होती जा रही है. वो भी तब जबकि हर पार्टी जानती है कि वो अकेले दम पर बीजेपी से मुकाबला नहीं कर सकती.

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नेतृत्व की लड़ाई

नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष के एकजुट न होने की सबसे बड़ी वजह नेतृत्व की है. कांग्रेस से लेकर सभी विपक्षी दल मोदी से मिलकर लड़ना चाहते तो हैं, लेकिन इस लड़ाई का नेतृत्व कौन करेगा इस सवाल पर बात अटक जाती है. कांग्रेस का तर्क है कि विपक्षी दलों में सबसे बड़ी पार्टी वो है तो नेतृत्व उसके पास हो और राहुल गांधी के नेतृत्व में बाकी विपक्षी पार्टियां आएं, लेकिन क्षेत्रीय दलों के ये बात गले नहीं उतर रही. तमाम क्षत्रप इस लड़ाई का नेतृत्व करने की लालसा रखते हैं, क्योंकि उनके लिए ये सुनहरा मौका है जब वे एचडी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, चंद्रशेखर जैसे नेताओं की तरह पीएम की कुर्सी पर काबिज हो सकते हैं. नीतीश कुमार के महगठबंधन से नाता तोड़ने का एक बड़ा कारण भी यही बताया जा रहा है क्योंकि नीतीश को उम्मीद थी कि मोदी के मुकाबले उनके चेहरे को विपक्ष आगे करेगा, लेकिन कांग्रेस नेताओं ने इससे साफ इनकार कर दिया था. कांग्रेस 2019 के लिए राहुल के चेहरे को ही आगे कर रही है, जो क्षेत्रीय दलों को कुबूल नहीं हो पा रहा है.

क्षत्रपों का आड़े आना

दूसरी सबसे बड़ी वजह ये है विपक्षी दलों में कुछ राजनीतिक पार्टियां हैं, जिनके बीच वर्चस्व की लड़ाई है. ये दल अपने अपने सूबे में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते रहे हैं. ऐसे में वो कैसे एक-दूसरे का साथ खड़े हो? उत्तर प्रदेश में बीएसपी और एसपी तो बंगाल में टीएमसी और वामपंथी दलों की यही स्थिति है.

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अहंकार बना रुकावट

विपक्षी दलों के नेताओं में अहंकार का होना भी एक बड़ी वजह है. इन सभी दलों के नेताओं को लगता है कि वो एक दूसरे से बड़े सियासी नेता हैं. उनकी यही सोच एक-दूसरे के संग चलने के आड़े आ रही है. कांग्रेस को जहां अपने सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी होने का अहंकार है तो ममता और मायावती जैसे नेताओं को अपने जनाधार का. ऐसे में बिना अहंकार को त्यागे कैसे विपक्ष की एकजुटता की उम्मीद की जा सकती है

विचारधाराओं का मेल नहीं

मौजूदा दौर में जो भी पार्टियां हैं, वो सभी कांग्रेस की विचारधारा के विरोध में खड़ी हुई हैं. चाहे समाजवादी पार्टी हो या फिर बीएसपी या आरजेडी जैसे दल. ममता बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी सियासी जमीन बनाई है. इन सभी दलों ने हमेशा कांग्रेस की विचारधारा को कोसा है. मुलायम सिंह यादव ने साफ कहा दिया है कि मैं किसी भी गठबंधन के पक्ष में नहीं हूं और अगर अखिलेश और रामगोपाल किसी से भी गठबंधन करेंगे तो वह कोई और फैसला लेंगे.

दलों के बदलते स्टैंड

इन विपक्ष दलों के बीच एकजुटता न होने की एक बड़ी वजह उनका एक स्टैंड पर कायम न रहना भी है. महागठबंधन बनने की जब बात उठी तो उस समय एसपी शामिल थी, लेकिन ऐन वक्त पर पीछे हट गई. मायावती क्या स्टैंड लेंगी इसे लेकर हमेशा सस्पेंस रहा है. कांग्रेस का भी स्टैंड पूरी तरह से साफ नहीं रहता. ममता बनर्जी ने हाल ही में कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के विकास मॉडल से कोई समस्या नहीं, लेकिन अमित शाह जिस तरह तानाशाही दिखा रहे हैं वो घोर आपत्तिजनक है. एनसीपी ने तो गुजरात राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ वोट किया और विधानसभा चुनाव भी वो अलग लड़ने के संकेत दे रही है.

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