बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति के मुखिया और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार को दिल्ली पहुंचे. कथित वजह है योजना आयोग के साथ मुलाकात. मगर निगाहें राजनैतिक पतों पर ज्यादा टिकी हैं क्योंकि ये चुनावी मुकुट धारण करने के बाद मोदी की पहली दिल्ली यात्रा है. मोदी इसका इस्तेमाल आडवाणी और जोशी जैसे बुजुर्ग नेताओं से मेल-मुलाकातों के अलावा काडर को संदेश देने के लिए भी करेंगे. क्या हैं इन सबके मायने...
मोदी सुबह सवेरे पार्टी के बुजुर्ग नंबर-2 मुरली मनोहर जोशी के पास पहुंचे. जोशी उन कुछ नेताओं में बताए जा रहे थे, जो आडवाणी गुट के तो नहीं हैं, लेकिन मोदी उदय से सहज भी नहीं हैं.जब गोवा में एक वक्त ये बात उठी कि संकेतों के बजाय सीधी बात हो और नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित किया जाए, तो जिन कुछ लोगों ने इस पर एकबारकी वीटो किया उनमें जोशी एक थे. गोवा में हुई रैली से भी वह नदारद थे. सच्चाई तो यह है कि 2004 में वाजपेयी सरकार जाने के बाद से जोशी अपना राजनैतिक महत्व बनाए रखने के लिए जोरदार संघर्ष कर रहे हैं. लोकसभा चुनाव हारने के बाद उनका जोर अपने लिए सुरक्षित सीट तलाशने पर ही रहा. 2009 में तलाश का नतीजा दिखा, जब जोशी इलाहाबाद के बजाय बनारस से चुनाव लड़े और लोकसभा पहुंचने में सफल रहे. इसके बाद भी उनका पुनर्वास नहीं हो पाया.
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में उनके गुट का जोर नहीं चला. संसद में भी महत्वपूर्ण मसलों पर बहस में वह लीड करते नजर नहीं आए. जोशी को इस दौरान सहारा रहा तो सिर्फ संघ का. जब वह मानव संसाधन मंत्री थे, तो पाठ्यक्रम में बदलाव, ज्योतिष की पढ़ाई जैसे कई कदमों के जरिए वह संघ के चहेते बन गए थे. आलोचकों ने इसे शिक्षा का भगवाकरण कहा था, मगर जोशी तब बेपरवाह रहे. लेकिन अब उन्हें परवाह करनी है. उन्हें देखना है कि जब पार्टी की दूसरी पीढ़ी नेतृत्व संभाल चुकी है, तो उनके लिए क्या, कितनी और कहां जगह बचती है.
मोदी जोशी के घर गए और एक घंटे तक बातचीत हुई. उसके बाद जोशी पत्रकारों के सामने आए और बोले, ‘मोदी जी आए थे. उन्होंने कहा कि आप सब लोगों ने मुझे ये जिम्मेदारी दी है, मैं उसे अच्छी तरह से सबको साथ लेकर निभाने की कोशिश कर रहा हूं.’इस दौरान जोशी के चेहरे और हाव-भाव में वह जोश नहीं था, जिसे मोदी के संदर्भ में देखने के बीजेपी कार्यकर्ता आदी हो गए हैं. जोशी की एक चिंता यह भी है कि मोदी यूपी की जिन सीटों से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं, उनमें से एक सीट बनारस की भी बताई जा रही है. ऐसे में वह कहां से चुनाव लड़ेंगे.
हालांकि इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है. नरेंद्र मोदी को अपनी टीम में निश्चित रूप से ऐसे लोग चाहिए होंगे, जो अनुभवी हों, केंद्रीय सत्ता के रूप रंग देख चुके हों. जोशी के रूप में उनके पास एक ट्रंप कार्ड हो सकता है. उनके जरिए ये संदेश दिया जा सकता है, कि देखिए बुजुर्गों की अभी भी इज्जत है. ये दांव सुरक्षित होगा क्योंकि जोशी कभी भी मोदी के लिए खतरा नहीं बन सकते.
खतरे की बात आई, तो आडवाणी फिर याद आए. हमेशा आएंगे, जब भी बीजेपी का, या इस देश का राजनैतिक इतिहास लिखा जाएगा. जब भी मोदी की पीएम दावेदारी का जिक्र आएगा और इसके बाद पितामह के कोप भवन में बैठने का.बहरहाल, मोदी ने इस नाराजगी को कितनी तवज्जो दी थी, ये उन दो दिनों में साबित हो गया. जब पूरा पार्टी संगठन आडवाणी के सामने प्रकट रूप में दंडवत था, तब मोदी गुजरात में व्यस्त थे. उन्होंने आडवाणी को सिर्फ दो संदेश दिए. दोनों ट्वीट के जरिए.पहला, देश के लाखों कार्यकर्ता चाहते हैं कि आप इस्तीफा वापस लें. और फिर दो दिन बाद दूसरा कि आपने हमें निराश नहीं किया.मगर राजनाथ के इसरार पर भी मोदी मनाने दिल्ली नहीं आए थे. अब आए हैं, तो आडवाणी से मिलने पहुंचे हैं. मगर यह सब सिर्फ राजनैतिक शिष्टाचार ही है. मोदी ब्रिगेड ने बार-बार साफ कर दिया है कि पार्टी को अब सिर्फ आडवाणी जी का मार्गदर्शन और आशीर्वाद चाहिए. नेतृत्व करने की न सोचें वह.
दरअसल आडवाणी ने अपने लिए खुद ही राजनैतिक एकांत का बियाबन चुना है. पहले वह जेडीयू के सहारे दबाव बनाते रहे. अब जब नीतीश ने पल्ला झाड़ लिया है, तो निगाहें बुजुर्ग की तरफ भी उठ रही हैं.इन सबके बीच मोदी उनके घर जा तो रहे हैं, लेकिन यह भी साफ है कि कुछ ही दिनों में यह मुलाकातें रस्मी हो जाएंगे.बीजेपी नेता अभी भी अटल बिहारी वाजपेयी के घर जाते हैं. उनसे आशीर्वाद लेते हैं.लेकिन वाजपेयी सार्वजनिक रूप से नजर नहीं आते. आडवाणी नजर आते हैं, मगर पार्टी नहीं चाहती कि वे इसका इस्तेमाल संगठन पर ही निशाना साधने में करें. इसीलिए संघ प्रमुख के फोन की ढाल में वह इस्तीफा तो भूल गए. मगर संघ बार बार उन्हें याद दिलाता रहेगा कि अब मोह छोड़िए.ये लाजिमी भी है क्योंकि फिलहाल संघ का मोह सिर्फ और सिर्फ मोदी के लिए है.
मोदी की दिल्ली यात्रा का एक और पड़ाव झंडेवालान का संघ दफ्तर भी सकता है. मुद्दा यहां भी बदलाव का है. संघ के पार्टी में प्रतिनिधि सुरेश सोनी को लेकर कई सवाल उठे हैं. और ये सवाल अब से नहीं उठ रहे. राजनाथ के पहले कार्यकाल के दौरान ही सोनी की सक्रियता राष्ट्रीय हो गई थी. ऐसे में समझा जाता है कि मोहन भागवत यहां भी चेंज ऑफ गार्ड करेंगे. गैरराजनैतिक रुचि और छवि वाले दत्तात्रेय होसबले जैसे संघ पदाधिकारी को संगठन में भेजा जा सकता है. मोदी की रुचि भी सोनी को बचाने से ज्यादा, नए दावेदार के साथ दोस्ती गांठने में होगी.
दोस्तों की मोदी को वैसे भी इस वक्त सख्त जरूरत है. उनका मातृ संगठन संघ दोहराता है, संघे शक्ति कलयुगे. और इस कलयुग में देश की सत्ता साझेदारों के लिए जरिए ही मिलती है. साझेदार, जो आज उनकी वजह से पटना की सड़कों पर आपस में लाठियां भांज रहे हैं.मगर इस आज के बाद एक कल भी आएगा. जिसकी कोख में 2014 के लोकसभा चुनाव हैं, उसके नतीजे हैं और उन्हें तय करने वाली जनता का मिजाज है. मोदी हों या कोई और, सबको बस उस मिजाज की चिंता करनी है. बुजुर्गों के साथ या उनके बिना.क्योंकि ये जनता हर पांच साल में जवान होती है औऱ लोकतंत्र पर अपना मजबूत ठप्पा जड़ती है.