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'मेहनत से मिलती है सफलता, बोर्ड के नंबर से कुछ नहीं होता'

भारत की पूर्व नेशनल चेस चैंपियन अनुराधा बेनीवाल ने बोर्ड परीक्षा में कम नंबर लाने वाले स्टूडेंट्स को सलाह दी है कि जिंदगी में मेहनत जरूरी है, ड‍िग्री नहीं...

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Anuradha Beniwal
Anuradha Beniwal

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भारत की पूर्व चेस चैंपियन अनुराधा बेनीवाल ने आज तक एजुकेशन के साथ अपनी बोर्ड परीक्षा की यादें शेयर की हैं. जानिए क्‍या कहा है उन्‍होंने...

'दसवीं-बाहरवीं के बोर्ड एग्जाम्स के नतीजे आ रहे हैं. सफलता-असफलता डिसाइड हो रही है, असीम प्रतिभा से भरे बच्चों को पर्चों में मिली पर्सेंटेज से आंका जा रहा है. कुछ मुट्ठी भर 99 प्रतिशत वालों को छोड़ कर ज्यादातर लोग परेशान ही हैं.

परेशानी कहीं-कहीं इतनी ज्यादा है कि रोना-पीटना चल रहा है, मासूम बच्चे इस घनघोर प्रेशर में आकर आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं. इस जिंदगी को 15-17 बरस की अपार संभावनाओं से भरी उम्र में खो दे रहे हैं. ये डरावना तो है ही, शर्मनाक भी है. सबसे शर्मनाक ये है कि ये एकदम ही पॉइंटलेस है.

ये शर्मनाक ही है कि सैकड़ों, हजारों, तरह की प्रतिभा लिए हमारे बच्चों को एक तरह के सेट पर्चों से आंका जा रहा है. चाहे बच्चे में गुण हो पिकासो बनने के, चाहे चाह हो बिल गेट्स बनने की, चाहे हिम्मत हो नीरजा बनने की, उसकी चाह, गुणों, हिम्मत से ना हमें कोई वास्ता है, ना सरोकार. हम चाहते हैं 90.5 पर्सेंट! और चाहिए भी क्यूँ ना हों, 'बढ़िया' कॉलेज में दाखि‍ला कैसे मिलेगा?

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चाहे नौकरी में कोई पूछे ना पूछे, कॉलेज में तो नम्बरों के बिना दाखिला नहीं मिलता. और 'इज्जत' का क्या? रिश्तेदारों को क्या बताएंगे? पड़ोसी के बच्चे के तो इतने आए हैं! फलाने के ने तो टॉप कर दिया! ढिमका तो ये बन गया! हम क्या जवाब देंगे?

अगर चिंता 'इज्जत' की है, 'दिखावे' की है, तो आपका कुछ नहीं हो सकता. फिर तो आप पूरी उम्र परेशान रहेंगे. अभी दसवीं के नंबरों से, फिर बारहवीं की. फिर कॉलेज कौन सा, फिर नौकरी पड़ोसी से अच्छी पैकेज वाली होनी चाहिए. फिर शादी फलाने से बड़ी. फिर गाड़ी ढिमकाने से लम्बी. ये राग तो नेवर एंडिंग है!

लेकिन अगर चिंता कॉलेज की है तो एक हद तक जायज है. ये भी अफ़सोस की बात है के हमारे देश में मुट्ठी भर 'अच्छे' कॉलेज हैं और वहां पहुंचना एक जंग ही है. लेकिन एक बात समझनी जरूरी है, वो ये कि‍ सिर्फ कॉलेज अच्छा करि‍यर नहीं दे सकता, अच्छा इंसान तो और भी आगे की बात है. जाने कितने ही सफल, विद्वान लोगों को हम जानते हैं, जो कभी कॉलेज नहीं गये या डिस्टेंस से पढ़ाई की. अगर आप मन लगा कर कहीं से भी पढ़ाई करें, सफलता मिलनी मुश्किल नहीं होती. मन लगा के मेहनत से पढ़ाई तो क्या और कुछ भी करें तो सफलता कहीं नहीं गई.

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मैं तो बाहरवी तक स्कूल ही नहीं गई. दसवीं के पेपर ओपन स्कूल से दिए. मैं शतरंज की खिलाड़ी थी, पढ़ाई कभी-कभार ही हो पाती थी. लेकिन दसवीं में अच्छे नम्बर लाने का खौफ मुझे भी उतना ही था, जितना किसी भी आम बच्चे को. इतनी बातें जो चलती थी, 'उनकी छोरी के 80 परसेंट आए सैं!' (उस समय में अस्सी परसेंट ही लैंडमार्क था) अब उनकी छोरी के आगे तो मैं कैसे पीछे रह जाऊं? मैं तो चेस की खिलाड़ी थी!

लेकिन आया मैथ में कम्पार्ट्मेंट! नहीं कर पाई पढ़ाई. हो गयी सिली मिस्टेक्स! लेकिन वही रोना-धोना मचा. रिश्तेदारों का डर सबसे बड़ा! अनु तो होशियार लड़की थी! ऐसे कैसे हो गया? पड़ोसी की छोरी के तो इतने आए हैं नम्बर! क्या कहेंगे? मेरे पापा को भी अपनी एक्सपेरिमेंट वाली परवरिश पे शक हुआ. शायद स्कूल भेजना चाहिए था, शायद खेल में कम ध्यान देना चाहिए था, जैसे सवालों से वो गुजरे. एक फेल हुए बच्चे से बुरा तो शायद क्रि‍मिनल भी नहीं मान जाता हमारे समाज में. जितनी नाक फेल होने से कटती है, उतनी तो रिश्वत लेने/देने से भी नहीं कटती! मेरा भी बाथरूम में रखा हार्पिक पीने को मन किया. लेकिन नहीं पिया.

अगर उस समय हार्पिक पी लेती तो लंदन में अपनी कंपनी कैसे शुरू करती? 'अनु चेस लिमिटेड' कैसे खड़ी होती? आज मैं सैकड़ों बच्चों को लंदन में चेस सिखाती हूँ और खुद लंदन लीग में खेलती हूं. अगर उस दिन हिम्मत हार गयी होती तो ये सब कैसे कर पाती? आज कंपनी के रजिस्ट्रेशन के वक्त ना किसी ने दसवीं के नंबर पूछे, ना कोई डिग्री मांगी. आज जब और लोगों को काम देने की पोजीशन में हूं तो कभी किसी की डिग्री नहीं पूछती. लगन देखती हूं और मेहनत कर सकने की कपैसिटी .

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अगर पी लेती तो 'आजादी मेरा ब्रांड' किताब कैसे लिखती? मेरी पहली किताब जिसे "राजकमल हिंदी सृजनात्मक गद्य" के सम्मान से नवाजा गया. ना किताब छापते हुए पब्लिशर्स ने हिंदी के नंबर पूछे, ना ही कहां तक हिंदी पढ़ी है पूछा! आज किताब अमेजन पर बेस्टसेलर किताबों में डोल रही है, हिम्मत हार के हार्पिक पी लेती तो ये कैसे हो पता?

सौ बात की एक बात, मेहनत से मुंह मोड़ना नहीं और हिम्मत कभी हारना नहीं. जिस चीज में जी लगता हो, मन रमता हो, उसमें जी जान से उतर जाना है. इतनी मेहनत कर देनी है, के सफलता इंतजार करे कि कब मेरी तरफ देखा जाएगा! नंबर जिंदगी नहीं बनाते, आपकी लगन, मेहनत और चाह आपको बनाते हैं. ये बात बच्चों से ज्यादा उनके अभिवावकों को समझनी जरुरी है.

इस आपार संभावनाओं से भरी अनमोल जिंदगी को हिम्मत हार के मत खो देना. अपनी पसंद की चीज ढूंढ लो. शायद थोड़ा टाइम लगे, लेकिन मिलेगी जरूर, अगर ठान लोगे तो. और फिर जुट जाओ. प्यारे मम्मी, पापा, अपने बच्चों को 'पड़ोसी क्या कहेंगे' सवाल से बचाओ'.


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