नक्सलवादियों के प्रभाव क्षेत्र की बढ़त को लेकर होने वाली बहसों में ये बात बार-बार सामने आती है कि आखिर क्यों नहीं सरकार सुरक्षा बलों को झोंककर उन्हें खदेड़ देती. उनके ठिकाने, नेटवर्क और प्रभाव को ध्वस्त कर देती है. इस बहस को दुरुस्त करने के लिए पहले हम कुछ आंकड़े समझ लें.
अलग-अलग राज्यों की पुलिस के अलावा इस वक्त नक्सलवादियों के खिलाफ पूरे देश में चल रहे ऑपरेशन में पैरा मिलिट्री के 82 हजार जवान तैनात हैं. इसमें सीआरपीएफ और आरएएफ से लेकर आईटीबीपी जैसे बल भी शामिल हैं. इसके अलावा कोबरा जैसे विशेष बल भी हैं, जो गुरिल्ला वॉरफेयर को ध्यान में रखकर ही तैयार किए गए हैं. इसी तर्ज पर आंध्र प्रदेश के ग्रेहाउंड्स बल भी हैं, जिनकी आक्रामक रणनीति के चलते आंध्र प्रदेश में माओवादियों को लगातार नुकसान उठाना पड़ा है.
मगर इन सबके बावजूद देश के मध्य औऱ पूर्वी इलाकों में कई हिस्से ऐसे भी हैं, जहां सरकार की मौजूदगी सिर्फ नक्शों और कागजों पर है. अगर बस्तर की ही बात करें, जो कांग्रेस नेताओं पर हालिया हमले के बाद देश की जुबान पर आ गया है, तो यहां एक बड़े हिस्से में स्थानीय प्रशासन की मौजूदगी ही नहीं है. भूगोल के लिहाज से समझें तो ये उतना ही बड़ा इलाका है, जितने में केरल फैला हुआ है. यहां पर ऑपरेशन के लिए सिर्फ 18 हजार सुरक्षा बलों की तैनाती है. इन्हें भी खुफिया जानकारी और वीआईपी मूवमेंट की वजह से लगातार जगह बदलनी पड़ती है. ऐसे में मौजूदगी का कोई स्थायी प्रभाव नहीं होता.
सुरक्षा बल इंटेलिजेंस के ग्राउंड पर भी मात खा रहे हैं. नक्सलियों को पता होता है कि कौन सी बटालियन कहां मूव कर रही है. उसी के हिसाब से उनके ऑपरेशन तैयार होते हैं. मूवमेंट के बाद पैदा हुए वैक्यूम को लाल आतंक भरने पहुंच जाता है. ऐसे में उन्हें एक बारगी हर जगह से उखाड़ने के लिए कम से कम 27 हजार जवानों की औऱ जरूरत पड़ेगी.
ये संख्या पूरी होने के बाद भी नक्सलियों के तीन बड़े केंद्रों, छत्तीसगढ़ में बस्तर, उड़ीसा में मलकानगिरि-कोरापुट औऱ झारखंड में लातेहार इलाके की सफाई में दो बरस लग जाएंगे. सुरक्षा बलों ने इसकी तैयारी भी शुरू कर दी है. फिलहाल सारा जोर आक्रामकता पर है. सटीक सूचना के जरिए त्वरित कार्रवाई पर है. इस रणनीति के साथ छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में ऑपरेशन शुरू हो चुके हैं.