जंगल का खौफ अब शहर में बरपेगा. निशाने पर होंगे आप और हम. नक्सलियों की नई रणनीति शहरों पर धावा बोलने की है. और ये शहर सिर्फ नक्सल प्रभावित राज्यों के ही नहीं हैं. इस लिस्ट में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का भी नाम है. और यहां पर हिंसा के लिए चुनिंदा ठिकानों या शिकारों पर हमले की रणनीति बनाई जा रही है. लड़ाई की भाषा में इसे टारगेट किलिंग कहा जाता है. यानी नक्सली शहर में कोई अस्पताल, स्टेशन या स्कूल चुनेंगे और तैयारी के बाद वहां धावा बोलेंगे. मौतें होगी, बंधक बनाए जाएंगे औऱ सरकार से शर्तें मनवाई जाएंगी.
ऐसा नहीं है कि सरकार को खौफ के इस खेल की नेट प्रैक्टिस के बारे में पता नहीं है. हालिया इंटेलिजेंस रिपोर्ट में यह साफ किया गया है कि नक्सली अब शहर की तरफ रुख कर सकते हैं. इसका मकसद है उनके संगठन सीपीआई माओवादी के प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाना. नक्सली इस लडा़ई में इंडियन मुजाहिदीन औऱ दूसरे आतंकवादी संगठनों और अलगाववादी गुटों के नेटवर्क का भी इस्तेमाल करने की तैयारी में हैं. इंटेलिजेंस रिपोर्ट में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में सक्रिय नक्सली कमांडरों की टेलिफोन पर हुई बातचीत का हवाला दिया गया है. इसमें बार-बार यह बात दोहराई जा रही है कि शहर में मौजूद अपने वैचारिक सपोर्ट ग्रुप के जरिए अब लड़ाई वहीं लड़ी जाए. इसकी एक वजह यह भी बताई जा रही है कि ग्रामीण इलाकों में देर से ही सही सरकारी योजनाओं की आमद देख नक्सली बेचैन हो रहे हैं.
साफ है कि अब लड़ाई जंगल की जमीन तक सिमटी नहीं रहेगी. अब ये मामला सिर्फ आदिवासियों औऱ पिछड़े इलाकों तक का नहीं रहेगा. ऐसे में आईपीएल के तमाशे की खुमारी में डूबे देश को, उसके हुक्मरानों को सिर्फ फौरी बहसों और उपायों तक सीमित नहीं रहना होगा.
आखिर हम पर हमला क्यों
इस रिपोर्ट के बाद जेहन में सवाल आता है कि नक्सली शहरों पर हमला कर क्या हासिल कर लेंगे. यहां तो उनका सपोर्ट बेस बनने से रहा. यहां सवाल सपोर्ट से ज्यादा अटेंशन का है. ये कुछ वैसा ही है कि कश्मीर में मुजाहिदीन आजादी के नाम पर दशकों से लड़ रहे हैं. मगर कश्मीर का मुद्दा सुर्खियों में तब आता है, जब यही आतंकवादी मुंबई जैसे किसी शहर में आतंक का नंगा नाच दिखाते हैं. उसी तर्ज पर माओवादियों को ये समझ में आ गया है कि जब तक अनछुए निशाने नहीं साधे जाएंगे, उनका प्रभाव और उनके विचार की बहस मुख्यधारा में नहीं आएगी.
माओवादियों ने पिछले महीनों में कई तरीकों से सरकारी तंत्र पर हमला किया. कभी सरकारी अफसरों को किडनैप किया, तो कभी दूरदर्शन के टावर पर हमला किया. मगर उनकी मौजूदगी, उनके निशाने औऱ उनकी मंशा बहस में तब आई, जब शहरों में बसर करने वाले नेता निशाने पर आए. दरअसल बस्तर में हुए इस हमले ने माओवादियों के लिए नियॉन के चमकीले होर्डिंग वाली पब्लिसिटी का काम किया है. नक्सलवाद को इंटरनेशनल लेवल पर अटेंशन मिले और फिर सरकार पर इसे सुलझाने के रणनीतिक, सामरिक दबाव पड़ें, इसी को ध्यान में रखकर ये सब किया जा रहा है.
आज हम आपको बताएंगे कि लड़ाई के इस नए तरीके के मायने क्या हैं. इनके निशाने पर आए नागरिकों की सुरक्षा के लिए सरकारें क्या कर रही हैं औऱ कहां चूक रही हैं और आखिर 44 साल पहले शुरू हुई यह आग, जिसका नाम नक्सलवाद है, अपने लिए कच्चा माल औऱ हवा कहां से पाती है.
इस मुद्दे पर आपकी सोच, आपकी राय भी उतनी ही अहम है. तो बताइए आपकी नजर में कितना बड़ा है खतरा औऱ कौन है जिम्मेदार...
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