भारत में मौजूदा भ्रष्टाचार-विरोधी तंत्र का रिकॉर्ड गड्ड-मड्ड और छवि धूमिल है. इसके चलते भारत के लोकपाल के हिस्से में यह मुश्किल काम आया है कि वह देश के लोगों को विश्वास दिला सकें कि बड़े और ताकतवर लोग भी अगर कानून का उल्लंघन करेंगे तो उनकी जवाबदेही तय होगी.
भारत दशकों से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहा है. लेकिन इस संघर्ष में एक पड़ाव के रूप में आया जब राष्ट्रपति सचिवालय ने लोकपाल की नियुक्ति की घोषणा की, लेकिन यह महत्वपूर्ण दिन चुनावी सरगर्मियों के बीच खामोशी से गुजर गया. 19 मार्च, 2019 को पूर्व जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष को भारत का लोकपाल नियुक्त किया गया. साथ ही उनके 8 न्यायिक और गैरन्यायिक सहयोगियों की भी नियुक्ति की गई.
गौरतलब है कि 1950 और 1960 के दशकों में देश में कुछ बड़े घोटाले सामने आए थे. उन्हीं दशकों में भ्रष्ट्राचार के आरोप लगने के बाद टीटी कृष्णामाचारी और प्रताप सिंह कैरों जैसे दिग्गजों को इस्तीफा देना पड़ा था. इसके बाद 1966 में पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने पहली बार सिफारिश की थी कि उच्च पदस्थ लोगों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए लोकपाल का गठन किया जाना चाहिए. 2002 में संविधान समीक्षा आयोग ने और 2007 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी.
1968 में पहली बार लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया था. इसके बाद आठ बार इस विधेयक को पारित कराने का प्रयास हुआ. 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001 और 2011 में लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया, लेकिन पारित नहीं हो सका. अंतत: दिसंबर, 2013 में यह विधेयक पास हुआ और 1 जनवरी, 2014 को अधिसूचित किया गया. इसके बाद लोकपाल की नियुक्ति में पांच साल और लग गए. अब यह उम्मीद की जानी चाहिए कि कुछ ही समय में भारत का लोकपाल नाम की संस्था काम करना शुरू कर देगी.
नियुक्ति की विश्वसनीय प्रक्रिया
हालांकि, लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया विवादों के घेरे में आ गई जब यह आरोप लगे इसमें निष्पक्षता अथवा पारदर्शिता नहीं बरती गई. कानून में लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया द्विपक्षीय रखी गई है जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष की सहमति होनी चाहिए. ऐसा इसलिए किया गया है ताकि लोगों में यह भरोसा कायम हो सके कि इस उच्च पद पर बैठा व्यक्ति स्वतंत्र और निष्पक्ष है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो लोकपाल कानून ही सवालों के घेरे में होगा.
लोकपाल कानून विपक्षी पार्टी को भी प्रतिनिधित्व देता है. कानून का सेक्शन 4 कहता है कि लोकपाल का चयन करने वाली समिति के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होंगे. इसके अलावा 4 और सदस्य होंगे– लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस और इन चारों की अनुशंसा पर एक कानूनविद.
लेकिन सेक्शन 4(2) कहता है, “इस तर्क के आधार पर चेयरपर्सन या सदस्य की कोई नियुक्ति अवैध नहीं होगी कि चयन समिति में कोई पद रिक्त है.” पिछली लोकसभा में स्पीकर ने किसी को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता नहीं दी थी. इस प्रावधान के चलते लोकपाल की नियुक्ति बिना नेता प्रतिपक्ष के ही हो गई. लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी. कांग्रेस सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे लोकसभा में कांग्रेस के नेता थे. उन्हें लोकपाल चयन समिति की ओर से 'विशेष आमंत्रित' सदस्य के रूप में कई बार बुलाया गया, लेकिन उन्होंने जाने से इनकार कर दिया. उनका तर्क था कि लोकपाल कानून में 'विशेष आमंत्रित' सदस्य का कोई प्रावधान नहीं है. इसलिए अगर वे जाते हैं तो उन्हें लोकपाल की चयन प्रक्रिया में भाग लेने का कोई कानूनी आधार नहीं होगा. न वे वोट कर सकेंगे, न ही उनकी राय मायने रखेगी.
2014 में 16वीं लोकसभा गठित होने के बाद स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस या किसी भी दूसरे विपक्षी दल को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने से इनकार कर दिया था. क्योंकि किसी भी दल के पास कुल सदस्यों का 10 प्रतिशत यानी 545 में से कम से कम 55 सदस्य नहीं थे. कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी, जिसके पास कुल 44 सदस्य थे.
यही स्थिति सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति में भी आई. हालांकि, सरकार ने नवंबर, 2014 में डेल्ही स्पेशल पोलिस स्टैबलिशमेंट एक्ट में संशोधन करते हुए प्रावधान किया कि “अगर ऐसी स्थिति आती है कि किसी भी दल के पास नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं है तो सदन में सबसे बड़ी पार्टी के नेता को सदस्य के रूप में चयन समिति में शामिल किया जाएगा.”
सरकार ने 2014 में ही लोकपाल के लिए भी ऐसा ही संशोधन पेश किया था, लेकिन वह पास नहीं हो सका.
नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता के लिए लोकपाल कानून का सेक्शन 4(4) कहता है, “चयन समिति लोकपाल के चेयरपर्सन और सदस्यों के चुनाव के लिए अपनी प्रक्रिया का विनियमन खुद ही करेगी.”
लेकिन एक आरटीआई के जवाब से खुलासा होता है कि चयन समिति की मीटिंग के मिनट्स देने से सरकार ने यह कहकर इनकार कर दिया कि ऐसी मीटिंग के मिनट्स से जुड़े दस्तावेज गोपनीय हैं. ऐसे दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराए जा सकते जिसमें देश के 3-5 सर्वोच्च पदाधिकारी शामिल हैं.
जनता का विश्वास जीतना होगा
यह कहने की जरूरत नहीं है कि भारत के लोकपाल में जनता का विश्वास बना रहे, इसके लिए लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया का द्विपक्षीय और पारदर्शिता होना बेहर जरूरी है. इसके अलावा कुछ और चुनौतियां हैं जिन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है.
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 में संशोधन करके यह प्रावधान किया गया है कि सरकार की अनुमति के बगैर किसी पदाधिकारी से जुड़े भ्रष्टाचार की जांच नहीं की जा सकती. इस प्रावधान को हटाने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार निवारण कानून से ऐसे प्रावधान को दो बार रद्द कर चुका है. यह प्रावधान हटाना जरूरी है क्योंकि लोकपाल सिर्फ ऐसे मामलों की जांच कर सकता है जो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत दंडनीय हैं.
दूसरा, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 के सेक्शन 44 को अपने मूल रूप में पुनर्स्थापित किया जाए जो कहता है कि कानून के प्रभावी होने के बाद जन सेवक को पत्नी और बच्चों समेत पूरी संपत्तियों को सार्वजनिक किया जाए.
तीसरा, जितना जल्दी हो सके, लोकपाल को एक विश्वसनीय 'इन्क्वायरी विंग' यानी जांच दल मुहैया कराया जाना चाहिए. मौजूदा कानून के मुताबिक, लोकपाल सरकार के उन्हीं 'अधिकारियों और अन्य स्टाफ' के भरोसे रहेगा जो पहले से भ्रष्टाचार के मामले देखते आए हैं. मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी तंत्र के रिकॉर्ड और छवि को देखते हुए यह लोकपाल की अपंगता होगी.
इन परिस्थितियों में भारत के लोकपाल का दायित्व है कि वे अपनी विश्वसनीयता स्थापित करें और भारत की जनता का भरोसा जीतें, जैसे पिछले दशकों में टीएन शेषन ने चुनाव आयोग और एन विट्ठल ने मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के प्रति जनता में भरोसा जगाया था.