चार साल से कालेधन ने हम हिंदुस्तानियों का जीना हराम कर रखा है. आंदोलन पर आंदोलन, दावे पर दावे और न जाने कितनी कालिख इस कालेधन ने फैलाई है. आज इंडियन एक्सप्रेस अखबार नया आंकड़ा लेकर आया है, इसके मुताबिक 1195 भारतीयों के 25 हजार करोड़ रुपए स्विस बैंकों में जमा हैं. इसके बाद कालेधन पर बहस तेज हो जाएगी. लेकिन हल्ला करने से पहले एक बात पर गौर करें- अखबार ने मोटे अक्षरों में एक भी जगह काले धन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है. हां, एक जगह मोटे अक्षरों में इतना जरूर लिखा है कि इस खुलासे से कालेधन पर बनी एसआइटी के काम का दायरा बढ़ जाएगा.
खैर आगे चलकर हमारा यह भ्रम टूट जाए कि यह काला धन है, उससे पहले एक मोटा हिसाब लगाने में क्या हर्ज है. अगर यह 25 हजार करोड़ की पूरी रकम भी सरकार एक झटके में वापस ले आए तो भी हर आदमी को 200 रु ही मिल पाएंगे. यह उस 15 लाख की आकर्षक रकम से बहुत कम है, जो प्रधानमंत्री पद के आकांक्षी के तौर पर नरेंद्र मोदी बताया करते थे. यह रकम इतनी कम है कि दो दिन की मनरेगा की दिहाड़ी भी इससे ज्यादा बनती है. यानी अगर यह धन काला भी है तो सियासी हसरतों के खजाने से बहुत कम है.
लेकिन इस लेखक को बहुत संदेह है कि यह धन काला साबित हो पाएगा. इसे जमा करने वालों और कराने वालों ने इस पर इतनी फेयर एंड लवली लगा रखी है कि इसका बड़ा हिस्सा कानूनी पाया जाएगा. मसलन देश के सबसे बडे धन्नासेठ बंधुओं मुकेश और अनिल अंबानी के नाम पर स्विस बैंक में 164-164 करोड़ रुपए दिखाए जा रहे हैं. बडे अंबानी के प्रवक्ता ने डंके की चोट पर कह दिया है कि अंबानी साहब का दुनिया के किसी कोने में गैरकानूनी बैंक खाता नहीं है. छोटे अंबानी के प्रवक्ता ने खाता होने से ही इनकार कर दिया है. जेट एयरवेज के संस्थापक अध्यक्ष नरेश गोयल ने कहला भेजा है कि वे तो प्रवासी भारतीय हैं, यहां के कानून से उनका क्या लेना. कुछ रईसों ने कहा है कि वे मामला पहले ही भारत में उचित कानूनी प्रक्रियाओं के जरिए सेटल कर चुके हैं. वे अपना जुर्माना भी चुका चुके हैं. खाते में जो रकम है वह कानूनी है. सूची में शामिल जिन धन्नासेठों ने टिप्पणी नहीं की है वे भी जल्द ही ऐसे बयान जारी कर देंगे.
वे ऐसा कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने पैसा बैंक में जमा किया है, किसी तहखाने में छिपा कर नहीं रखा है. बैंक जिस देश में भी बनता है, उसके कानूनों के तहत बनता है. जो बैंक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैसा जमा कर रहा है वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों से बंधा होता है. वहां जो पैसा जमा हो रहा है वह भी इन कानूनों के दायरे में होता है. यानी अगर यह पैसा काला भी है तो तमाम आर्थिक कानूनों ने इसे बहुत हद तक सफेद कर दिया है. ऐसे में अगर भारत बहुत सख्त कार्यवाही करता भी है तो वह उस पुलिसिया कार्रवाई की तरह होगी जिसमें हत्या और अपहरण के अरोपी तो दरोगा जी के साथ चाय पिएंगे और मामूली गिरहकट जो जमानत तक नहीं करा सकते जेल में होंगे. जब हम देश के भीतर के कालेधन को नहीं पकड़ पाते तो बाहर से धन क्या खाक लाएंगे. वैसे भी भारतीय बैंकों में इससे बड़ी रकम के डिफाॅल्टरों के नाम आज तक देश में कोई सरकार सार्वजनिक कर पाई है क्या.
ये बातें घोर निराशावादी लग रही हों तो यह सोच कर देखिए कि लिस्ट में शामिल सब लोगों को सरकार ने कालेधन का चोर मान लिया और अदालत उन्हें जेल भेज रही है. ये वे लोग होंगे जिन्हें आपकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है, ये वे लोग होंगे जिनके परिवारों के साथ मुस्कुराती फोटो खिंचाने में बड़े से बड़े नेता को मजा आता है, ये वे लोग होंगे जिनसे क्रिकेट के मैचों की रौनक है, ये वे लोग हैं जिनके पैसे से फिल्में बनती हैं, ये वे लोग हैं जिनसे देश का सारा गैर सरकारी बाजार चलता है. तो ऐसे में इन्हें जब हथकड़ी लगेगी और वे कहेंगे कि अच्छा अगर हम चोर हैं तो कल से हम कारोबार बंद करते हैं. तब क्या होगा. सारी सरकार और विपक्ष हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाएगा कि हुजूर ऐसा गजब न करिए देश का कारोबार बंद हो जाएगा. यहां तक कि अदालत ने भी अगर फरमान सुनाया, तो सरकारों के पास उसे अनसुना करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा.
वैसे भी पिछले लोकसभा चुनाव में जिस कदर कालेधन का प्रयोग हुआ है, वैसे में किस नेता की हिम्मत है कि अपने भामाशाह को हथकड़ी लगा दे. अगर कलयुगी भामाशाह को हथकड़ी लगी तो क्या वे अपनी वे डायरियां अदालत में नहीं खोलेंगे जिनमें नेताओं को दिए कालेधन के चंदे का ब्यौरा होगा. यानी देश एक खुला हमाम बन जाएगा, जहां लाखों के सूट भी किसी का तन नहीं ढक पाएंगे.
यह बहुत ही निष्ठुर सच्चाई है. लेकिन हमें इसके साथ जीना सीख लेना चाहिए. और अगर हम इसके साथ जीना नहीं सीखना चाहते, तो हमें अपनी सरकारों से मांग करनी चाहिए कि ऐसे कानून बनाएं जो मौजूदा अर्थतंत्र के हिसाब से व्यावहारिक हों. अतिआदर्शवादी कानून के लिहाज से तो आपके मुहल्ले में चलने वाली परचून की दुकान भी गैरकानूनी है और उससे बिना बिल के एक पैकेट दूध लेकर आप भी कालेधन को बढ़ावा दे रहे हैं. इसलिए आंदोलन करना है तो व्यावहारिक व्यवस्था के लिए करें कालेधन के जुनूनी मुद्दे के लिए नहीं. इस तरह के मुद्दे विपक्ष को सत्ता में आने का मौका तो दे सकते हैं, लेकिन आम आदमी को तरक्की का रास्ता नहीं.
जरा सोचिए पिछले चार साल में आंदोलनों की बाढ़ ने केंद्र सरकार के हाथ बांध दिए थे, देश में कारोबार को घुन लगने लगा था, अफसरों की कलम रुक गई थी और आपकी तनख्वाह और प्रॉपर्टी के दाम अपनी जगह जम गए थे. अपनी तरक्की चाहिए, तो कुछ दिन के लिए क्रांति भूल जाइये, भले ही यह कितनी ही मोहक अवधारणा हो. या इस तरह की क्रांति को कम से कम 5 साल का ब्रेक दे दीजिए. इसीलिए इस बार संसद में जब कालेधन पर हंगामा हो तो इसमें शामिल होने से पहले सोच लीजिए कि इस मनोरंजन में आपका फायदा है भी या नहीं.